चन्द्र की कविताएँ ::

माँ और पिता

मैंने छोटी-छोटी बातों पर चिंता करना
माँ से सीखा
और बड़ी-बड़ी बातों पर गंभीर रहना
यह पिताजी से सीखा!

मैंने कपिली नदी की तरह मुस्कुराना
और कपिली नदी की तरह चुपचाप रोना-
माँ से ही सीखा धरती की तरह सहना !

अचानक ब्रह्मपुत्र की तरह बढ़ियाना
फिर कुछ दिनों में
धीरे धीरे धीरज से
घट जाना
पिता जी से सीखा !

मैंने माँ से ही सीखा
किसी आदमी या किसी जीव के दुख से
दुखी होना

और पिताजी से यही सीखा
किसी जन के तकलीफ में शामिल हो जाना!

मैंने माँ से प्यार किया है बहुत
माँ भी मुझसे बहुत प्यार करतीं हैं
यह तो
मेरे घर के अगल-बगल के स्नेहिल पेड़-पौधे
खेत-खलिहान के साथ साथ
चिरई-चुरूँग,वनफूल, झींगुर
खूब जानते हैं.

और पिताजी के बारे में कहना ही क्या
कि जब खेत से खटकर आते हैं न
तो बड़े प्यासे होते हैं

उनकी प्यासी पसीनेदार आत्मा की आहत आहट
सबसे पहले मैं जानता हूँ
इसलिए सबसे पहले मैं ही
लोटा भर पानी
और गुड़ की मीठी भेली
पिताजी के हाथों में सौंपता हूँ

धन नहीं,
यह जीवन
जिन्होंने इस जीवन को कई कई बार
मौत के मुंह में जाने से बचा लिया..!!

एक कवि है

एक कवि है यार
वह पसीने की बात लिखता है
और मुझसे बहुत घृणा करता है
जबकि मेरे पसीने की दम से
उसके पेट में जाते शब्द हैं
तभी तो वह रहता है जिंदा
तभी तो वह लिखता है पसीने के बारे में
लेकिन उसकी बोली बचन मेरे खिलाफ है
क्या कहूं मैं
मुझसे बहुत घृणा करता है वह!
किंतु यदि वह मुझसे घृणा करता है
तो उसे पसीने के बारे में लिखना नहीं चाहिए
बल्कि मेरे संग मिलकरइन्हीं खेतों में खटना चाहिए
इसी जेठ की चिलकती दुपहरी में पसीना बहाना चाहिए!

मिट्टी और शब्द

मेरी कोई जाति नहीं
मेरा कोई धर्म नहीं
देश नहीं मेरा कोई भी
पर मैं अनंत हूँ !
मैं मिट्टी हूँ , मिट्टी!

मेरा प्रेम-सद्भाव ही
सबसे बड़ा गुण धर्म है
मेरा कर्म है शब्दों को ऊगाते रहना !
मैं मिट्टी के छाती पर सदाएँ
उपजता हुआ सत्य अनाज हूँ
मेरी भी कोई जाति नहीं
मेरा भी कोई धर्म नहीं
देश नहीं मेरा कोई भी
पर मैं अनंत-बसंत हूँ

मैं मिट्टी का अमर वंशज हूँ
मेरे जितने भी श्रमिक मजदूर किसान भाई हैं
सब के सब अपने दिल के लाल लहू और पानीदार पसीने से सींच कर
उगाते रहे हैं मुझे
कि लाल लहू का भी तो कोई जाति-धर्म नहीं होता
कि पानीदार पसीने की भी तो कोई जाति-धर्म नहीं होता
न मैं भूखों के लिए कोई जाति धर्म हो सकता

मेरा प्रेम-सद्भाव ही
सबसे बड़ा गुण धर्म है
मेरा कर्म है एक मात्र सत्य शब्द बन
भूखी चिरईंओं का पेट भरना
असंख्य-असंख्य खेतियों-खरिहानों में लहराना
और भिन्न-भिन्न हरी सब्जियों और फसलों से मन भर गले मिल जाना
हर किसी के गले की हार की तरह

भूखे पेटों की हार बन जाना…!

दोस्तों! यकीन मानो!
मैं मिट्टी हूँ
मैं मिट्टी का अमर वंशज शब्द हूँ

मेरी हत्या कोई नहीं कर सकता
कोई नहीं कर सकता मेरी हत्या!

यदि हत्या करने की कोशिश भी करता है कोई
तो सबसे पहले वह खुद खत्म होगा
सबसे पहले उसकी तमाम दुनिया खत्म होगी
सबसे पहले उसके तमाम देश खत्म होंगे
सबसे पहले उसकी तमाम सुंदरता खत्म होगी…..!!

उनके कहने का मतलब

मेरी प्यारी-दुलारी बहिनों की निश्छल हँसी
वेश्याओं की हँसी जैसी है
मेरे परम पिताओं,बूढ़े बाबाओं की
नीले आसमानों में लहराती हुईं
मैली-चिथड़ी , लेवा-गुदड़ी सी पगड़ियाँ
गूह-मूत और गोबर के घूर से सनी हुई हैं

मेरी कर्मठ माताओं का यह अनंत-आंचल
धूल-मिट्टी ,राखी-पातियों से

लथराया है सदा

मेरी तमाम जनता और मेरे तमाम लोगों की
मेहनतकश जिंदगियां
कोयले की तरह काली हैं

अंततः
उनके कहने का मतलब
हम उनके लिए
फट्टी और भद्दी गाली हैं!!

***

चंद्र युवा हैं. इधर ही उनकी कविताओं ने सबका ध्यान आकृष्ट किया है और उनकी कविताओं में मिट्टी-पानी का अपना एक तेवर है. इंद्रधनुष पर पहली बार उनकी कविताएँ छप रही हैं. यहीं यह भी कह देना चाहिए कि उनके कवि को अपनी एक वैचारिक और मौलिक यात्रा अभी करनी है. उनको भविष्य के लिए शुभकामनाएँ. चन्द्र से chandramohanchauhan99653@gmail.com पर बातचीत की जा सकती है.

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