युवराज सिंह की कविताएँ ::

नींद, सफर और सपनों की खातिर

दरवाजे के पीछे
सोती है उम्मीदें
किवाड़ के छेदों से
झाँकती है नींदे
रौशनदान पर बैठी
पीली पड़ चुकी
पिछली लैम्प-पोस्ट की रौशनी
करती है पहरेदारी.

खिड़कियाँ झाँकती हैं
उसी की ओर
उसके चैन से पड़े शरीर को
जागने न देतीं
किसी रोज रात की गोद में सोया था
वो तन्हा मुसाफ़िर
पूर्ण हो चुके सफर के
ख्वाब देखता.

अँधेरा घूमता है
उसके कमरे में
बड़ी हसरतों से निहारता
उसका मुस्कुराता चेहरा
दबे पाँव हवा सहलाया करती
उसके फैले बाल
दीवारें सोई हैं आज
उसी खुशी में.
मगर नींद की आंखे
रूखी पड़ चुकी है
किसी की याद में.
जंग लग चुका है
किसी ताले में.
चाबी गुम कर दिया है रास्तों ने.
वो दरवाजा सूना है
जहाँ एक अँधेरा ताक रहा है
राहों पर
दूर कहीं दूर
जहाँ लौटना मुश्किल है
किसी मुसाफिर का
सफर अपूर्ण है उसका
उम्मीदें पूर्ण.

वर्षों बीते जश्न मनाए
होठों से गुम हो चुके
गानों के दो लफ्ज़ गाए,
माँ ने सुनाई थी जो कहानियाँ
उन्हें मन ही मन दोहराए.
आज लौटना चाहता है कोई
नदी किनारे
लहरों की आवाजों
और सुबह के गीतों के पीछे.
लौटना चाहता है कोई
पुरानी ईमारतों की छाँह में.

जिस भाँति लौटता है अंधेरा
हर शाम
लौटना चाहता है कोई.

जिस सड़क के किनारे टूट चुके हैं बाजार,
जो सालों पहले के
शहर के किराएदार
अपने मकानों से दूर
मुसाफ़िर हो चुके.
वो मुसाफ़िर लौटना चाहते हैं
अपनी गलियों में,
अपनी छत पर
पीना चाहते हैं
बस एक कप चाय
और गाना चाहते हैं
एक याद भरी ग़ज़ल.

किसी रोज़ सफर पूरा होगा
तब मुसाफ़िर जागेगा
किसी कमरे के कोने से,
और लौटेगा
किसी पीपल की छाँह में.
जहाँ यादें बैठीं
ताकती होंगी राह उसकी
और तरसती होंगी
उसके स्पर्श बिना,
तब सुनाएगा वो
सफ़र की कहानियाँ
और
खिड़कियाँ
नींदें
रेत
नदियाँ
धूप
प्रेम
और साहस की,
तब जाकर एक सफ़र पूर्ण होगा
उसकी आँखों में.
उस पल नींद सें जागना
एक बेकार सा अफसाना होगा.

अमर कवि

(एक)

जब हजारों सालों बाद
किसी अद्भुत, घुम्मकड़, खोजी इंसान को
किसी कवि की किताब मिलेगी
जिसके पन्ने चाट गए होंगे दीमक
और शब्दों के लाख कोशिशों के बाद भी
उसके पन्नों के टुकड़े झड़ने लगेंगे
और
जो किताब हजारों सालों से दफन होगी
धूल के बीच
उसका नाम स्वर्ण-अक्षरों में लिखा जाएगा
उसकी कविताएं पढ़ी जाएंगी.
दुनिया में नया युग आएगा.
वो कवि जिसका शरीर
कब का मिट्टी हो गया,
आज वो पूजा जाएगा
जिसके वंशज तक मिट गए,
उसे अमर कवि घोषित किया जाएगा.

(दो)

मुश्किल से चार प्रतियाँ ही बिकी थीं,
बाकी उसने खुशी से बाँटी थीं.
कुछ तो सड़ गईं पानी से,
प्रकाशक के गोदाम में,
और कुछ उसके घर की अलमारी में
चैन से पड़ी थी।

जमाने को उसकी कवितायें
रास नहीं आती थीं
और उन्हीं कविताओं को
हजारों सालों बाद
इस तरह पूजा गया.
कोई समझ न पाया,
बस शब्दों ने ठान लिया था
जिनकी उम्र उस कवि से
करोड़ो साल ज्यादा थी
और रिश्ता बस पलभर का।

(तीन)

उसे शांति मिलती थी
जब हर रात वो अपनी किताब से
एक कविता पढ़ता था
और सीने पर किताब रखकर
आंखे मूँद लेता था.
जमाने ने जिसे दफन कर दिया था
वह उसके आँसुओं में
और उसकी साँस
और उस किताब में थी।
अगर हजारों साल और जीता वो
तो अपनी कविताओं को
विश्व मे गूँजता देख
घुटनों के बल बैठ जाता
और घास मे मुँह दुबकाए
वो खूब रोता।
मिट्टी उसके आंसू पोछती
और जमाना कहता
“चुप हो जाओ“
“हमारे अमर कवि।“

(चार)

उसे किसने दफ़नाया?
नहीं मालूम.
उसके मरने पर कौन रोया?
ये भी नहीं मालूम.
क्या उसे किसी ने कवि कहा
जीवन में?
उसे याद नहीं.
क्या उसकी किताब पढ़ते हुए
पन्नों पर
किसी के आंसू गिरे थे?
पता नहीं
क्या उसे याद करती थी दुनिया?
नहीं कोई नहीं.
मरने से पहले,
अपनी ठंडी पड़ी अंगुलियों से
उसने कोई कविता लिखी थी?
लिखी थी
अमर कवि…..

***

युवराज सिंह किशोर हैं, विद्यार्थी हैं और कविताएँ लिखते हैं. उनकी कविताएँ अभी अपनी यात्रा की शुरूआती अनुभवों और प्रश्नों से होकर गुजर रही हैं, और अभी कवि से कविता-कर्म की पगडंडियों, गलियों, सड़कों और विरासतों से रूबरू होने की अपेक्षा रखते हुए, हम उनके सजग और जिज्ञासू रचनाकार बने रहने की आशा रखते हैं. युवराज से ysrajyuvrajsingh@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

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