गद्यांश : अमृता प्रीतम

अमृता प्रीतम (१९१९-२००५) हिंदी और पंजाबी भाषा की मशहूर लेखिका हैं, जिनका परिचय उनकी रचनाओं के माध्यम से सशक्त रूप से मिलता है. उनकी रचनाएँ जैसे पिंजर, किसी तारीख़ को, मन मिर्ज़ा तन साहिबां, कच्ची सड़क आदि समय-समय पर पाठकों से वार्तालाप करती रही हैं. पंजाबी और हिंदी दोनों ही भाषाओँ पर उनकी समान पकड़ है. प्रस्तुत दो गद्यांश उनकी चिरपरिचित आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ से साभार उद्धृत हैं, इस आशा के साथ कि पाठक एक बार फिर उनकी आत्मकथा की ओर लौटेंगे.

आधी रोटी पूरा चाँद

वह पूरे चाँद की रात थी. बात शायद १९५९ की है, मैं दिल्ली रेडियो में काम करती थी, और वापसी पर मुझे दफ़्तर की गाड़ी मिलती थी. एक दिन दफ़्तर की गाड़ी मिलने में बहुत देर हो गयी उस दिन इमरोज मुझसे मिलने के लिए वहाँ आया हुआ था, और जब गाड़ी का इंतज़ार करते-करते बहुत देर हो गयी, तो उसने कहा- चलो, मैं घर छोड़ आता हूँ.

वहाँ से चले तो बाहर पूरे चाँद की रात देखकर कोई स्कूटर-टैक्सी लेने का मन नहीं किया. पैदल चल दिए पटेल नगर. पहुँचते-पहुँचते बहुत देर हो गयी थी, इसलिए मैंने घर के नौकर से कहा कि मेरे लिए जो कुछ भी पका हुआ है, वह दो थालियों में डालकर ले आए.

रोटी आई, तो हर थाली में बहुत छोटी-छोटी एक-एक तन्दूरी रोटी थी. मुझे लगा एक रोटी से इमरोज का क्या होगा, इसलिए उसकी आँख बचाकर मैंने अपनी थाली की एक रोटी में से आधी रोटी उसकी थाली में रख दी.

बहुत बरसों के बाद इमरोज ने कहीं इस घटना को लिखा था- ‘आधी रोटी ; पूरा चाँद’- पर उस दिन तक हम दोनों को सपना-सा भी नहीं था कि वक़्त आएगा, जब हम दोनों मिलकर जो रोटी कमाएंगे आधी-आधी बाँट लेंगे

एक दिन

वह भी एक दिन था, जब मैंने अपनी बात विस्तार से लिखने की जगह सोचा था, कभी जब मैं अपनी आत्मकथा लिखूंगी, केवल दस पंक्तियाँ लिखूंगी और वे पंक्तियाँ मैंने कागज पर लिखकर रख ली थीं. वे पंक्तियाँ आज भी मेरे सामने है, और आज भी वे उतनी ही सच है, जितनी उस दिन लिखते समय थीं. वे पंक्तियाँ हैं-

मेरी सारी रचनाएँ, क्या कविता और क्या कहानी और क्या उपन्यास, मैं जानती हूँ, एक नाजायज़ बच्चे की तरह हैं.

मेरी दुनिया की हक़ीकत ने मेरे मन के सपने से इश्क किया और उनके वर्जित मेल से यह सब रचनाएँ पैदा हुईं.

जानती हूँ, एक नाजायज़ बच्चे की किस्मत, इसकी किस्मत है और इसे ससरी उम्र अपने साहित्यिक समाज के माथे के बल भुगतने हैं.

मन का सपना क्या था, इसकी व्याख्या में जाने की आवश्यकता नहीं है. वह कमबख्त बहुत हसीन होगा, निजी जिंदगी से लेकर कुल आलम की बेहतरी तक की बातें करता हुआ, तब भी हक़ीकत अपनी औकात को भूलकर उससे इश्क़ कर बैठीं, और जो रचना पैदा हुई, हमेशा कुछ कागजों में लावारिश भटकती रही…

और आज भी मेरा यकीन है, ये दस पंक्तियाँ मेरी पूरी और लम्बी आत्मकथा हैं…

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