आलेख::
उपांशु

भाषा अनुभव की चीज़ है, मसलन ये कि जिस हद तक भाषा हमारे अनुभवों से बनती है, उसी हद तक या उससे कोसों दूर तक भाषा हमारे अनुभवों को आयाम भी देती है। भाषा से मेरा रिश्ता एक कवि के रूप में है। लेकिन ऐसा मैं सोचता हूँ। यह सच तो है, लेकिन इसके साथ कई और सच जुड़े हैं। दरअसल, मेरे बनने से पहले भाषा बन चुकी थी और मेरे जाने के बाद तक यह बनती रहेगी। भाषा की आग में तपकर मेरा बनना मुमकिन हुआ है, और इस आग को हवा और इंधन देने का कर्तव्य मैंने खुद चुना है – यही कवि होने का अर्थ है। लेकिन इन सब के बीच जिस प्रश्न पर प्रकाश डालने की ज़रुरत है, वो कुछ और है। सवाल यह है कि ये किसकी भाषा है जिसने मुझे तपाया, मेरे निर्माण कार्य में अपना योगदान दिया। इस सवाल में, मैंने कई और सवाल छिपा रखे हैं, उन्हें एक-एक कर आपके सामने रखता हूँ। हिंदी दिवस के आस-पास हमसे कहा जाता है कि सवाल हिंदी भाषा का है, उसके प्रसार का है। कुछ असल, कुछ कृत्रिम समस्याएँ हमारे समक्ष रखी जाती हैं और फिर समय का चक्र पहले की तरह चलने लगता है। लेकिन मेरा समय नहीं बढ़ता, मैंने भाषा को अपना जीवन दिया है, यही मेरी कर्मभूमि है, दरअसल यही मेरा तपस है। इसीलिए मेरा सवाल खुद से यही रहता है कि ये किसकी भाषा है, यहाँ बात केवल हिंदी, अंग्रेजी, तमिल, तेलुगु, मैथिली, भोजपुरी या बांग्ला की नहीं है। यहाँ सवाल भाषा का है कि यह क्या चीज़ है। संरचना है, अनुभूति है, व्याकरण है? लिखने, बोलने, महसूस करने का माध्यम है? भाषा ये सब कुछ है, और बहुत कुछ भी जिसका ज़िक्र मैं यहाँ नहीं कर रहा है।

बहुत आसान शब्दों से शुरुआत करनी हो तो मैं एक मकान का बिम्ब देना चाहूँगा, मकान को आप घर न माने, केवल ईंटों और पत्थरों से बना एक ईमारत समझें। हर शहर में कई-कई आधी बनी इमारतों का ढाँचा दिख जाता है। घर उस ईमारत को प्रयोग में लाने का एक तरीका है, लेकिन ज़रूरी नहीं है कि कोई इमारत केवल घर ही बने। वह एक दुकान, एक अस्पताल, एक स्कूल भी बन सकता है। अब तक आप समझ गए होंगे मैं किस दिशा में आगे बढ़ रहा हूँ। किसी ईमारत को घर बनाना एक बड़ा काम है, जो किसी मज़दूर, बिल्डर, ठेकेदार या राजमिस्त्री का नहीं है। उस घर के लोगों का है। आप समझ गए होंगे कि इसी ईमारत में जब डॉक्टर और नर्स हमारे और आपके इलाज के ध्येय से जुटेंगे, तभी यह एक अस्पताल बन सकेगा। बिना ध्येय भाषा केवल एक संरचना है। मेरे और आपके बिना यहाँ केवल व्याकरण की मृत नियमावली है जिसे कितना भी पढ़ लिया जाए, जीवंत नहीं किया जा सकता। यही भाषा की समस्या है, और यही उसका उद्धार भी है।

फिर भाषा किसकी है? दफ्तरों की, जहाँ भाषा का प्रयोग केवल पत्राचार के लिए होता है। जहाँ पत्राचार के माध्यम से हमें, अर्थात वहाँ काम करने वालों, वहाँ काम करवाने जाने वालों को, डराया और धमकाया जाता है। या उन लोगों की जो वहाँ काम करने जाते हैं, काम करवाने जाते हैं, मिन्नत करते हैं, मज़ाक, हँसी-ठिठोली करते हैं, कभी दुःख रोकर, कभी हँसकर, तो कभी उग्र होकर भी व्यक्त करते हैं। मुझसे हिंदी के किसी प्राध्यापक ने कभी कहा था कि भाषा सीखनी है तो कभी कॉलेज मत आना, किसी गली, किसी गाँव, किसी टोले में चले जाना जहाँ कुछ लोग, कुछ औरतें, कुछ बच्चे बात कर रहे हों। वहाँ आप भाषा की जीवन्तता को देखेंगे। देखेंगे कि मुहावरे कैसे बनते हैं, व्याकरण की मृत नियमावली में जान कैसे फूँकी जाती है। देखेंगे कि कैसे भाषा टूटती है और एकदम से नई बन जाती है। एक कवि के लिए इससे बड़ा उपहार और क्या हो सकता है? भाषा एहसास की चीज़ है, यह सुख और दुःख व्यक्त करने की चीज़ है, रोने की चीज़ है, गाने की चीज़ है। मजेदार तो यह है कि यह उपहास करने की और उपहास का जवाब उपहास में देने की चीज़ है। यदि हम यह समझ रहे हैं, तो आज भाषा के संकटों को भी समझ सकेंगे। अभिव्यक्ति के संकटों को भी समझ सकेंगे और यह भी समझ सकेंगे कि किसी भी भाषा के लिए सबसे बड़ा संकट उसे बोलने वालों की रूढ़ियाँ है। रूढ़ि की समस्या हम इस हिसाब से समझ सकते हैं कि जहाँ हमें विभिन्नता को देखकर कौतुक व्यक्त करना चाहिए, वहाँ हम उसकी अवहेलना करते हैं। यदि किसी बच्चे के सवालों को लगातार चुप करा दिया जाए, तो पहले तो बच्चा सवाल पूछना छोड़ देगा, लेकिन फिर सवालों से किनारा भी कर लेगा. वह सोचना छोड़ देगा। विचारों का दुश्मन बन जाएगा। जो संकीर्णता उस पर थोपी गई वही वो अपने आस-पास के लोगों पर लागू करेगा। भले ही यह उदाहरण अधूरा हो, इसमें एक सच्चाई है। ऐसा क्या किया अंग्रेजी भाषा ने कि अन्य भाषाओं को उसका प्रताप प्रकोप लगने लगा। भारत के दृष्टिकोण से इसके कई जवाब हैं। लेकिन अंग्रेजी के दृष्टिकोण से सबसे महत्वपूर्ण जवाब इस भाषा के लचीलेपन से जुड़ा है। आज दुनिया के हर कोने में अंग्रेज़ीभाषी लोग हैं, लेकिन अधिकतर ऐसे हैं जिनकी मातृभाषा, या पहली भाषा अंग्रेजी नहीं है। अंग्रेजी को अपना बनाने की कोशिश में वो अपनी भाषा के शब्द जोड़ते हैं, उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि बुद्धिजीवी उनके इन नए शब्दों पर किस तरह मूँह बिचकाते हैं, वे इन शब्दों को प्रयोग में लाते हैं और कुछ समय बाद ये शब्द इतने-इतने लोगों की ज़बान पर बैठ जाता है कि शब्दकोष में इन शब्दों की जगह अपने-आप बनने लगती है।

भाषा किसी के आधिकारिक क्षेत्र में नहीं आती है। जब मैं पूछता हूँ कि भाषा किसकी है, तो इसका जवाब केवल “हम सबकी” नहीं हो सकता। कहीं न कहीं इसके जवाब में “किसी की नहीं” की ज़रुरत महसूस होती है। कहीं न कहीं हमारी समझ को “किसी की नहीं” की विवेचना करनी होगी, क्योंकि निश्चित ही भाषा किसी की नहीं है, और क्योंकि यह किसी की नहीं है, यह सबकी है। हमारे पूर्वजों ने ज़रूर वो समय देखा होगा जब धरती का कोई हिस्सा किसी के नाम नहीं था। वह एक जंगल था, बीहड़ था और वहाँ हर किसी को फल-फूल, कंद-मूल, जलावन की लकड़ियाँ, इत्यादि चुन लेने की आज़ादी थी. शायद आज भी कहीं ऐसी भूमि बची हो, मैं नहीं जान रहा। लेकिन निश्चित ही भाषा किसी के आधिकारिक क्षेत्र में नहीं है, यह एक सत्य है। जहाँ ये नहीं है, वहाँ वो भाषा एक धीमी मौत मर रही है। दरअसल इस तड़प के साथ जी रही है कि कई मौत को इससे बेहतर मानेंगे।

भाषा को अधिकार क्षेत्र मुक्त कराने का एक महत्वपूर्ण पहलु, हिंदी के दृष्टिकोण से एक और बात समझना है। मैं इस बात को मानने के लिए बिलकुल तैयार हूँ कि संस्कृत हिंदी भाषा की जननी है, लेकिन हमें समझना होगा कि किसी बच्चे के विकास में भले ही माँ का योगदान अहम होता है, लेकिन वो एकमात्र नहीं होता। एक समग्र समाज की सामाजिकता, उस बच्चे की जिजीविषा, और भी कई, कई चीज़ें उसके विकास में अपना योगदान देती है। हिंदी कई भाषाओँ से घिरी हुई एक भाषा है, हिंदी कई बोलियों, और उनको बोलने वालों से घिरी हुई भाषा है। यह संकट नहीं, सुयोग है, एक उपहार है। शब्दों का, अनुभूतियों का उपहार, जो हिंदी को केवल स्वीकार करना है, मुझको और आपको स्वीकार करना है। हीनभावना जिसकी हम अक्सर बात करते हैं, स्पर्धा से जन्म लेती है। लेकिन भाषा को कैसी स्पर्धा? भारत में हम सभी कम से कम तो द्विभाषी हैं ही, एक भाषा के शब्द को दूसरी भाषा में बेझिझक ले आते हैं। भले ही हम कोष कहते हैं लेकिन शब्द कभी खर्च नहीं हो सकते, और यदि हो सकते हैं तो खर्च करना इस कोष को और समृद्ध बनाता है।

हिंदी के दृष्टिकोण से मैं चंद शब्द और कहना चाहूँगा। यह बात मूलतः मध्य वर्ग पर लागू होती है, लेकिन मनुष्य अनुसरण का इस कदर आदि है कि सभी पर लागू हो सकती है। हम बात नहीं करते। मेरे और आपके बीच भी आज एक स्क्रीन का फासला है, और इसके अपने फायदे हैं, लेकिन हम नुकसानदेह चीज़ों को जल्दी अपनी आदत बना लेते हैं। हम बात नहीं करते, जब तक हमारे बीच एक स्क्रीन की दूरी न आ जाए। मैं घर जाकर शायद अपने घरवालों के साथ बैठ भी जाऊँ, तो वे मुझसे बात नहीं करेंगे, उनकी नज़र एक स्क्रीन पर केन्द्रित होगी, उनकी उँगलियाँ उसी स्क्रीन पर नाच रही होगी। वो मुझसे बात तभी करेंगे जब मैं उनके पास नहीं होऊंगा। वो मुझसे बात तभी करेंगे जब उन्हें मेरी सुधि लेनी होगी। मैं कहना चाहता हूँ कि हम असहज हो चुके हैं। जिस स्क्रीन का काम हमारी ज़िन्दगी को आसान बनाना था, उसने हमें असहज बना दिया है, और यह उस स्क्रीन की गलती है। इसका सबसे बड़ा असर हमारी भाषा पर पड़ा है, अब हम अपने विचार सहजता से व्यक्त नहीं कर पाते। जिन्हें स्क्रीन देखने की मोहलत है वह किताब नहीं देखना चाहते। दरअसल देख भी नहीं पाते, शीशे पर अँगूठा फेरते हुए, कागज़ पर लिखे हुए अक्षरों से आँखों को शत्रुता हो जाती है। हमारे समय पर एक भद्दा उपहास यह भी है कि आज नए अंगूठेछापों की फ़ौज तैयार हो रही है, जिसके लिए फिर से काला अक्षर भैंस बराबर ही तो है। मैं फिर से अपना सवाल दोहराना चाहूँगा। इस बार बिना किसी उत्तर के, क्योंकि आपसे बेहतर इसका उत्तर अब शायद कोई नहीं जानता। आपसे बेहतर इस उत्तर का आशय भी शायद कोई और नहीं जानता।


उपांशु हिंदी के सुपरिचित युवा कवि हैं।  इंद्रधनुष पर उनके पूर्व-प्रकाशित कार्यों के लिए यहाँ देखें : सुबह किसी स्वप्न को पूरा होने नहीं देती  | किसान और हम: रोजमर्रा के ‘नए हथियारों’ के खिलाफ

Categorized in:

Tagged in: