उपांशु की कविताएँ :

1. फासीवाद या फायरिंग स्क्वॉड

ये कैसा जीवन मिला है मेरे मिल जाने से तुमको
मेरा हर चुम्बन तुम्हारे तन पर
तेज़ाब सा चुभता है उन आंखों को
जिनके लिए केवल कब्रिस्तान है रिवाज़ों का ये मोहब्बत

मेरी छाती पर तुम्हारे होंठो के लिए कोई जगह नहीं बची है यहाँ
लेकिन संभोग की इतनी आज़ादी जरूर है कि
एक धर्म, एक परंपरा के परिधान, बिस्तर के सिरहाने लिपट सकते हैं

कहो, क्या यही नहीं इस संसार का वीभत्स आवरण
जितना भी चाहे तुमसे लिपट कर तोड़ना अपना दम

न जाने किस तरह मारा जाएगा मेरा तन
कहो, क्या दे पा रहा है तुमको मेरा होना हरेक क्षण
एक दूसरे को चूम न पाने का अधूरापन?
अपनी कनखियों में साँस लेने दो मुझे,

बाहर बंदूक की नलियों से निकलते धुएं में गिरफ्तार
आदमी आज भी हर तिलिस्म को अपना यथार्थ मान बैठता है
दुहाई देता है जीवन की, उसकी जुगत की, और ओढ़कर अपना मखमली कंबल पीता है घी

हर ऐसा आदमी मेरी जीभ से अपने तलवे की मालिश चाहता है
हर ऐसे आदमी के मुँह से तलवों को बू आती है

न जाने कितने अरमानों से पाला होगा इन्होंने ताकत पाने का सपना
आइखमैन और पिरांडेलो के फीके अपभ्रंश ये कितनी बार मरते होंगे।

बेहतर है
किसी दीवार के सामने छलनी कर दिया जाए मुझे
ताकि
मरूं तो एक ही बार।

अपनों का चेहरा
और
आज़ादी।

बस गम है तो उन्हीं अपनों के लिए एक दुनिया को अधूरा छोड़ जाने का
दोनों बाहें फैला कर दिखा न पाने का वो हकीकत जिसे सभी मेरा स्वप्न मानते रहे।

सिगरेट, सीढ़ी और पूंजीवाद

घर तक पहुँचने के लिए सीढ़ियों की चढ़ाई जब मुश्किल हो जाए
जब कदम इस हद तक भारी होने लगे कि किवाड़ पर अड़ कर पलड़ जाए देह समूचे ही
बेबुनियाद है तब किसी और चढ़ाई को तरजीह देना

घुट कर मर जाना चाहिए, जब मकसद केवल पायदान लांघना बन जाए
जब दोनों हाथों से खींच कर दिन लंबा कर लेने के बाद, घर लौटते हुए सिगरेट की तलब को बुलाना मुनासिब लगने लगे
और करियाया कश जुबान पर मिठास छोड़ता फाहों में हवा हो जाए,
घुट कर मर जाना चाहिए, घुट-घुट कर गुलामी करने से बेहतर
लेकिन तलब के साथ जीने वाले तलब के लिए अपनी जिंदगी को दो धुरों में कटने देते हैं,

तलवों के छिल जाने और अधरों के सूख जाने तक ओछी महत्वाकांक्षाओं के लिए मर मर कर काम करने वाले
गुलामी के पश्चात प्रशंसा में रेड वाइन की मिठास चखने वाले निरा मूर्ख
और वे महामूर्ख जो भद्दे शब्दों से काला करते हैं अपने होंठ कि शुचिता का दंभ उन्हें जहन में पनप रही घृणा की सिहरन खुद के लिए महसूस होने नहीं देती
केवल रौंओ का एहसास समझ आता है मेरी चर्म को, ठीक नीचे रेंग रहे केंचुओं से पनपने वाली थर्राहट को समझ लेना मेरी इच्छाओं को नाकुबूल है।

दोनों ही सीढ़ियाँ लांघने को आतुर, बह जाते है धुएं पर बैठकर मकसद के कब्रगाहों तक अधूरी मृगतृष्णाओं के रास्ते
कुछ आत्मसम्मान चाहतें हैं, कुछ कागज़ की गड्डियाँ
और सुबह किसी स्वप्न को पूरा होने नहीं देती।
कमबख्त ये मौत भी उसी वक्त आनी होती है जब अरमानों की फेहरिस्त एक और क्षण जिस्म में रूह
को कैद रख लेना चाहती हो।

हकीकत के अलावा भी

रात जब तक मेरी आंखों पर ठहरी रही, पलकों को आराम देना मुनासिब नहीं रहा, लम्हों का मुलाजिम वक्त मुझसे दूर होता रहा, और सितारों के क्षीण हो जाने की खबर भी मुझ तक न पहुँची।
क्या ये मेरी खुशकिस्मती नहीं कि बेझिझक लिख सकता हूँ, अंतरिक्ष में विस्फोट की कथा, कहते हुए, दरअसल यही तो हकीकत है, किंतु किस्मत क्या ये नहीं कि हमारी मर्जी के खिलाफ सितारें तो आसमान बदल ही लेते हैं, निगल जातीं हैं रातें भी आंखों का सुखन और कोई बोल उठता है, यही हकीकत है।

क्या केवल खिलाफत की आवाज उठाना हिम्मत है, और हकीकत एक-एक कर उंगलियों पर अपने दुश्मनों को गिन लेना?
अगर हाँ, तो रहने दो, हम ढूँढ़ लेंगे वो जगह जहाँ सितारों के सहारे मुकम्मल होगी दुनिया
कि बच नहीं रही है ऊर्जा तुम्हें सही करते रहने की अब

लेकिन तुम बढ़ाते चलो अपने कदम विध्वंस की राह पर
फिर तुम्हारी हकीकत के परे सोचने के अलावा कोई चारा न बचा हो जब
यहीं किसी कोने में, मिल जाएंगे हम, नई पत्तियों और फूलों के बीच, इस अथाह बाग की मिट्टी को सींचने में व्यस्त।

न्याय

हद तो यही है मेरी
लिपट कर तुमसे
बाहों में अपने थाम सकता नहीं वक्त
उंगलियाँ सुलझाती हैं तुम्हारे गुथे हुए केश
फिसलकर छूट जाती हैं मेरी मुट्ठी से
हद तो यही है मेरी
न वक्त ठहरता है न तुम
स्पर्श मेरी स्मृति बनती है
और बिस्तर पर काला एक रेशा
तुमसे की गई मोहब्बत का सबूत
जंगें छेड़ी जाती हैं निशानियों के नाम
बच्चे अनाथ होते हैं
रोते बिलखते चेहरे हमारे आंसुओं के हवाले कर

न्याय की परिभाषा सीखचों से लिखते हैं
धागे भर की हकीकत मुझसे छीन कर
मेरी सांसों का हिसाब रखा जाता है
हद तो यही है मेरी
रगों में रक्त बहता ही जाता है गुलाम वक्त बनता है
तुम्हारी राय लेने का तुम्हारी बात सुनने का
तुम्हें फिर चूम लेने का हिसाब मांगा जाता है
जंगे फिर भी छिड़ती हैं
मोहब्बत हर कदम पर हारकर निराश होती है
वो जो मुझमें मरता है वही कुछ तुम में भी
हर पल बहुत तफरीह से दो लोग तब्दील होते हैं
ओढ़ते हैं पुरखों के शिकन अपने माथे पर
इच्छाओं पर अंकुश को सीखचों का न्याय कहकर
किसी खेत में धूल बन जाते हैं।

अधूरे ही रह गए

१.
कहना, हुआ सो हुआ आगे सवेरे और भी हैं, मिटा सकते नहीं उन रातों को कटे जो नम आंखों की धुंधली रोशनाई में।
नजर मिलाने की खुद से करो भी खुशामद
मिटाते जो नहीं मिटता पुतलियों पर अंकित पश्चाताप
आंखों को झुकने पर मजबूर कर देगा।
लम्हों का मुलाज़िम यादों का मुजरिम मैं ही हो सकता हूँ।
संताप उकेरता है मेरा जिस्म और अक्स की कारीगरी ग्लानि के हवाले मुमकिन हो पाती है –

२.
अभाव के बाद सबसे बड़ा अन्याय है प्रेयसी को फूल न दे पाना,
घर पर उससे मिलकर, उसके कमरे को अपना कमरा न कह पाना,
उसके पिता से नज़र चुराए बिना चूम पाना माथा, गाल और ओठ ताकि चार अतिरिक्त पैसों के अभाव में भी पेट भर जाने के बाद
मन देह को चैन से सोने भर का सुकून दे सके।

३.
फैलती सड़कों को देखकर जब भी
सोचता हूँ तुम तक पहुँचने के रास्ते
होने लगे हैं आसान,
आंखों से ओझल हो रही उजड़ती बस्तियों पर
अटक जाता है मन सहसा।
धूल की परतें शिला की सी जटिलता
छोड़ जाती है मेरे चेहरे पर और रोम रोम
आंसुओं की पिपासा में कंकड़ बन बिखरता है।
अवसाद की सियाही मेरे होंठो का आवरण हो जाती हैं
गोया आक्रोश का स्वाद भूल चुकीं हों
गोया शिथिल चीत्कार पर मुस्कान मल दी गई हो।

•••
उपांशु हिन्दी के चर्चित युवा कवि-अनुवादक हैं। ‘ठहरना-भटकना’ शीर्षक से उनका एक काव्य-संकलन दृश्य में है। उनसे m.upanshu@gmail.com पर बात हो सकती है। 

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