स्मृति शेष ::
तृप्ति नारायण शर्मा

Now he is scattered among a hundred cities
And wholly given over to unfamiliar affections

—W.H. Auden

उनके जाने के बारह दिनों बाद यह खबर मिली कि वे नहीं रहे। ग्यारहवीं और बारहवीं में उनकी हिन्दी की कक्षा में मैं बैठा और अगर किसी दिन किसी वजह से अनुपस्थित होता तो उसकी रिक्ति भीतर कई-कई दिनों महसूस होती। तृप्ति बाबू,  जैसा हम लोग पीठ पीछे उन्हें बुलाया करते, उन दिनों पचहत्तर पार कर चुके थे। तब भी उनको चश्मा नहीं लगा था, पुराने स्टाइल का कुर्ता पहना करते, धोती में ही स्कूल आते। बुलंद तेज़ आवाज़ जिसको माइक की ज़रूरत नहीं और गहरी और नीली आँखें, बातें करतीं हुईं। कोई अभिनेता जैसे मंच पर चल कर आया हो। एक बहुत नीरस जगह पर कई रसों का एक साथ प्रवाह। हम सब विज्ञान के विद्यार्थी थे। स्कूल के पहले दिन ही उन्होंने नये विद्यार्थियों के बीच जो भाषण दिया था उसका मुझ पर गहरा असर पड़ा था। उस भाषण में वह महाभारत पर कुछ बोल रहे थे और क्या बोल रहे थे से ज़्यादा मुझे उनका बोलने का तरीक़ा याद आता है और उनके चेहरे का भाव। उसी दिन मुझे लगा था कि मैं कुछ खो रहा हूँ। गणित पढ़ने वाले लोगों को हिन्दी नहीं पढ़नी थी क्योंकि वह ऐच्छिक थी। एक तरह दुनियावी व्यवहारिकता और दूसरी तरफ़ एक अनंत दुनिया का दरवाज़ा पकड़े खड़ा शिक्षक। मुझको लगता है, उस भाषण को सुनना मेरे जीवन का एक निर्णायक क्षण था। जैसे जॉयस ने समंदर में खड़ी एक लड़की को देखकर तय किया था लिखना। तब वे मुझे नहीं जानते थे और ज़ाहिर है, मैं कौन सा बहुत दूर तक देख रहा था।

मैंने तब तक हिन्दी में प्रसाद को थोड़ा बहुत, और बंकिम के अनुवाद पढ़े थे। कविता के रास्ते तो बहुत बहुत दिनों तक नहीं आना था हालाँकि मैंने तुकबंदी में कुछ कुछ लिखना शुरू किया था, कवितायें कहीं दिखतीं तो पलट लेता था और प्रेम से उबरता हुआ व्यक्ति कविता की ओर मुड़ता है कि तर्ज़ पर शब्द जोड़ना शुरू कर चुका था। तृप्ति सर पटना में रंगमंच से गहरे जुड़े थे, कविता से तो ख़ैर जुड़े थे ही। दिनकर से उन्होंने इतिहास पढ़ा था और शायद उनके लिए सबसे बड़ी चीज़ उनके जीवन में यही थी। उनको दिनकर की कई कविताएँ सस्वर याद थीं और उन कविताओं के किरदार जितना तृप्ति बाबू के पाठ में जीवंत होते, और शायद कहीं नहीं। उस उम्र में उन्होंने एक दिन कहा था कि अगर दिनकर की कविता होगी तो बिना किसी माइक्रोफोन हाजीपुर से पटना तक पहुँचा सकते हैं। एक बार दिनकर ने उनसे कहा था कि दिनकर को कौन याद रखेगा और तृप्ति बाबू ने तुरंत उन्हें कुरुक्षेत्र का तृतीय सर्ग सुना दिया था। दिनकर के चेले का चेला होना चाहना, साहित्य की मेरी सबसे पहली चाहों में से है।

पाठ्यक्रम बहुत डिमांडिंग नहीं था और वे चूँकि रिटायरमेंट से पहले कॉलेज में पढ़ा चुके थे, उनकी कक्षायें वैसी ही होतीं। उन्होंने हिन्दी के सबसे मूल पाठ मुझे दिये, भाषा के सबसे सूक्ष्म विवरण। मात्रा गिनना। कवियों की शैली से उनको पहचानना, तार-सप्तक के कवि, और अनगिनत ऐसे पाठ जो मेरी देह की अस्थि-मज्जा बने। उन्होंने मुझे सिखाया कि कविता करुणा के बग़ैर संभव नहीं। उन्होंने मुझे सिखाया कि इस अकेली दुनिया में जहाँ रोज़ जहालतें झेलनी होतीं हैं, भाषा ही मरहम है और भाषा ही घर। उन्होंने एक कक्षा में कहा था, “कविता दुखी हृदय से निकलती है और दुखी हृदय में घर करती है।“ उन्होंने एक बार कहा था कि “कविता लिखने के लिये सरस प्रेमी का दग्ध ह्रदय होना आवश्यक है”। उनका कहा हुआ याद नहीं रखना पड़ता था, याद हो जाता था। वे जानते थे कि वे अनगढ़ मिट्टी से आकृतियाँ बना रहे हैं और मैं सबसे अच्छी आकृति बनना चाहता था। मेघदूत पर बात करते हुए एक कक्षा में वह लगभग रोने लगे थे। उनकी आँखें डबडबा रहीं थीं और उनको सुनते हुए मेरे रोयें खड़े हो गये थे। अब समझ आता है कि वह अनंत मनुष्यता का प्रथम अनुभव था। उस छोटी सी कक्षा में मुश्किल से दस विद्यार्थी थे – अमित और सरस्वती, बारहवीं डी से, अली नवाज़ बारहवीं ए का, जो रमज़ान के दिनों में थूक भी नहीं घोंटा करता, आतिफ़ और श्रेया जो प्रेम में थे, तेजस्विता जिससे हमेशा नंबरों की मारामारी रहती और वह बूढ़ा मास्टर जो हम सबसे युवा था। शुद्ध लिखने पर उनका बड़ा ज़ोर था और भाषा की शैली बनाने पर। तुलसी जयंती पर हुई एक लेखन प्रतियोगिता में उन्होंने मुझे प्रथम पुरस्कार दिया और एक बार यूनिट टेस्ट में बीस में बीस क्योंकि पूरे पेपर में मैंने एक हिज्जा भी ग़लत नहीं लिखा। दो वर्षों में मैंने तीन बार हिज्जे की ग़लतियाँ कीं और तीनों उन्होंने बाद तक याद रहीं। स्कूल ख़त्म होने के वर्षों बाद और पहली बार “परिकथा” के नवलेखन अंक में अपनी कविताओं के छपने के बाद मैं उसकी एक प्रति लेकर उनके पास गया था। साथ में मेरे दो तीन मित्र भी थे। तब तक स्कूल पास किए चार साल बीत चुके थे। गुरु को क्या दिया जा सकता है। उसके दरवाज़े पहुँचते पहुँचते ही आप ख़ाली हो जाते हैं। उन्होंने मेरे मित्रों को मेरी तीनों ग़लतियों के बारे में बताया।  उन शब्दों को मैंने कैसे ग़लत लिखा था यह भी बताया। ऐसे ही एक बार, उन्होंने सरस्वती पूजा के कार्यक्रम के दौरान नाटक करवाने का तय किया और मुझसे “कलिंग विजय” में अशोक की भूमिका निभाने को कहा। मुझे न अनुभव था न मंच को लेकर सहजता लेकिन गुरु के प्रताप से चेला चक्रवर्ती हो जाता है, यह कोई नई बात नहीं है।  हमने खूब रिहर्सल की। उन्होंने बाक़ायदा कपड़े, दाढ़ी आदि मंगाई और कलिंग कुमार, महामत्य और अशोक तीनों मंच पर प्रकट हुए। मुझको यह ताउम्र यह भरोसा नहीं होगा कि मैं अपने जीवन में यह कर चुका हूँ। पर तृप्ति सर का चेला कुछ भी कर सकता था।

ऐसे इतने वाक़ये हैं और इतनी स्मृतियाँ कि उनसे पार पाना असंभव है। बहन की मृत्यु होने के बाद मेरी उनसे मिलने जाने की हिम्मत नहीं हुई। वे उससे गहरे जुड़े थे और उसकी मृत्यु की खबर से उनको गहरा आघात होता। यह बात मुझे रोकती रही। उनसे आख़िरी मुलाक़ात होने पर वे चीज़ें भूलने और दोहराने लगे थे पर उनकी लाइब्रेरी में छ: हज़ार किताबें थीं और कौन सी कहाँ, उन्हें याद रहता था। एक बार उन्होंने कहा था कि वे अपनी किताबें अपने नाती को देंगे। उम्मीद है ऐसा हुआ होगा। इस आख़िरी मुलाक़ात को भी वक्त हुआ। तृप्ति बाबू से उनकी जीवटता सीखी जा सकती है, उनकी प्रगतिशीलता और जीवन से पैदा हुए कष्ट के प्रति उनका मज़ाक़िया रवैया। उन्होंने मुझे भाषा दी और इसलिए कविता और इसलिए प्रेम। वे मेरी ज़िंदगी के उन थोड़े नायकों में से हैं जिन्होंने अपने नायकत्व की रक्षा की और मुझे निराश नहीं होने दिया। आदमी जैसे जैसे उम्र में बढ़ता है, पीछे मुड़ता है। इतनी बड़ी दुनिया में, इतने लंबे सभ्यता के इतिहास में यह बहुत मामूली और ग़ैरज़रूरी घटना है कि एक स्कूल था, वहाँ एक छोटे कमरे में एक बूढ़ा शिक्षक, हिन्दी पढ़ाया करता था। लेकिन मैंने वह जादू देखा है और मैं जानता हूँ कि उस कमरे में मेरा सामना उसने सभ्यता के सबसे सूक्ष्म सत्य से कराया – एक मानवीय क्षण, कविता में कहा हुआ, कभी भी अभिधात्मक नहीं, हमेशा बस इंगित करता हुआ।

उनके जाने की खबर सुनकर एक आघात तो लगा लेकिन फिर लगा कि उनको खोया नहीं जा सकता। कम से कम मेरे जीवन में तो वे कभी कमेंगे नहीं क्योंकि जो है उनका दिया है, उनका ही गढ़ा हुआ है। उनकी याद करते हुए फिर समय में वापस जाया जा सकता है। मैं आँखें बंद करूँगा और पंद्रह सोलह साल पहले, अपनी सोलह सत्रह बरस की उम्र में लौट जाऊँगा। एक बच्चा वहाँ पहली बार दुनिया देख रहा है, उसने पहली बार धूप जानी है, उसने पहली बार जो सूक्ष्म और विराट एक साथ है, उसका साक्षात्कार किया है, वह देख रहा था और अब देखने को जाना है, देखने को जानने के बाद उसे जोड़ना सीख रहा है। सारी मुश्किलें सुलझ गयीं हैं। सिर्फ़ सहजता है वहाँ और दुखों का अंत। एक मास्टर है जो चश्मा नहीं लगाता, जो मुस्कुराता हुआ मेज़ के पीछे से देख कर हँसेगा, जहाँ इंतज़ार के बाद ही पहुँचा जा सकता है। वह काँपते हाथों से बोर्ड पर कुछ लिखेगा। वह फिर मुस्कुरायेगा। एक सत्य खुलेगा। एक जादू अपना विस्तार लेगा। जीवन में कई नायक आयेंगे फिर पर विजयों के बाद जिसका आशीष खोजा जाएगा वह यही है, हार के बाद जिसकी याद आएगी वह यही है। एक आदर्श नायक, जो आदर्श बिंब है उस पूर्णता का जो उसके बिना अप्राप्य है।

प्रणाम।

अंचित

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