आलेख ::
उपांशु

भारत में हुए हालिया किसान आंदोलन को कई तरह से पढ़ा गया है। उन पाठों में एक पाठ यह भी है जो किसान आंदोलन के आसपास की परिस्थिति को लेखक के शब्दों को ‘अनपैक’ करता है। यह भी देखना महत्वपूर्ण है कि लेख वहाँ से आगे चलता हुआ समसामयिक प्रवृतियों की भी एक द्वंदात्मक विवेचना करने की कोशिश करता है और समकालीन भारतीय समाज और उसकी राजनीति की ओर इशारा करता है।

—सम्पादक

1932 में अर्नस्ट ब्लॉख अपने लेख, ‘Nonsynchronism and the Obligation to its Dialectics’, में किसानों के बारे में लिखते हैं : ‘गांवों में ऐसे वृद्ध चेहरे हैं, जिनकी युवावस्था भी, शहर के सबसे वृद्ध लोगों से भिन्न दिखती है। दुर्गति या बेहतर अवसर यदि उन्हें कारखानों की ओर धकेल भी दें, किसान फिर भी कहेंगे “नौकरी कतई ठीक नहीं अगर किसी की सीटी की गुलामी करनी पड़े”। एक छोटा किसान इसी तरह सोचता है, फिर चाहे वो इससे पहले दिहाड़ी ही क्यों न रहा हो। ‘ (खुद का अनुवाद)
ब्लॉख यहाँ किसानों के भीतर स्वछंदतावाद का कोई मूल स्थापित नहीं करना चाहते, मानों किसान की प्रवृत्ति ही स्वछन्द विचरण की हो। यह लेख किसानों पर नहीं, जर्मनी में फासीवाद के उत्थान पर है। यहाँ उन कारणों को खोजने की कोशिश है जिसने नाज़ीवाद को जन्म दिया, मसलन हमारे समाज में वैसे पहलू, वैसे सामाजिक ढांचे जो आधुनिकता की परछाई तले एक मध्यकालीन या पौराणिक मानसिकता में जी रहे हैं (जर्मन में : Ungleichzeitigkeit)। ब्लॉख का यह सवाल किसी भी युग मे लाज़िमी है। इतिहास की किताबों में सामंतवाद के बाद पूंजीवाद का आना इस तरह पढ़ाया जाता है, गोया पूंजीवाद सामंतवाद का असल उत्तराधिकारी हो। सचमुच इतिहास समझने वाले जानते हैं कि ऐसा कतई नहीं है, सामंतवादी ढांचों के खिलाफ पूंजीवाद की लड़ाई और पूंजीवादी ढांचों के खिलाफ ‘कलेक्टिव’ या यों कहें तो ‘ कॉमन्स ‘ का विरोध, लहू से लथपथ लाशों की लड़ाई थी और आज भी जारी है। फिर चाहे वो 15 वीं शतब्दी का ‘किसान आंदोलन’ हो जिसमें टॉमस म्युंत्जर के साथ लड़ने वाले किसानों को हर-तरह की यातनाएं झेलनी पड़ीं, या मध्यकालीन यूरोप में चुड़ैल कहीं जाने वालीं औरतों का उत्पीड़न, जिसका एक उद्यत विश्लेषण सिल्विया फेदेरिची की किताब ‘Caliban and the Witch: Women, the Body and Primitive Accumulation’ में पढ़ा जा सकता है।

अब बात मौजूदा समय की। ब्लॉख के अनुसार किसानों की अपनी सामाजिक व्यवस्था है जो सामंतवादी काल से अब तक, उपकरणों और वैज्ञानिक क्रांतियों के बावजूद, बदलाव की आदि नहीं है। जिसे शहरी या आज के समय का कॉरपोरेट वर्ग किसानों की स्वच्छंदता कहेगा, ब्लॉख उसे एक पुराने सामंतवादी ढांचे से जोड़ते हैं, जिसके तहत किसान अपनी ज़मीन और संपत्ति से कुछ इस तरह जुड़ा है, जो किसी भी समय में पूंजीवादी सामाजिक, न्यायिक और आर्थिक ढांचों के खिलाफ है। पूंजीवाद में आजादी की विचारधारा ‘enlightenment’ के युग से जुड़ी है। किसान, आज भी उस पुराने वक्त का प्राणी है जब उसे राजाओं को ज़मीन का कर फसल के तौर पर अदा करना होता था, जब कर्ज के मायने आज से काफी अलग थे। उनकी मानसिकता को आज भी युधिष्ठिर के इस उत्तर से समझा जा सकता है : ‘ जो अपने घर की रूखी – सूखी खाकर खुश है, लेकिन किसी का कर्जदार नहीं, हे यक्ष! वो सबसे प्रसन्न है। ‘ हमारे इस वक्त की गुलामी से न किसान वाकिफ है, न होना ही चाहता है। उसे कतई मतलब नहीं कि डाटा कंपनी वाले इस कदर आज के समाज पर हावी हैं , कि हमारी आदतों को अद्भुत चालाकी से बदलने कि कोशिश कर रहे हैं। वो अलग बात है कि किसान भी सामाजिक ‘ कंट्रोल ‘ की इन व्यवस्थाओं से अछूते नहीं होंगे, लेकिन उनका पतन शहर में रहने वाले नौकरी पेशा लोगों को तरह नहीं हो रहा। जहाँ हम शहरियों को आदेशानुसार ऑफिस पालिसी के तहत एक तरह के कपड़ों की आदत कुछ इस तरह है कि घर आकर भी वो लिबास हमारी आत्मा से नहीं उतरते। कभी भी आफिस का कॉल आ सकता है, हर समय मेल चेक करने की ज़रूरत होती है। हम फिल्में भी खुद को ‘मोटिवेट’ करने के लिए देखते हैं। ये गुलामी कतई नही है, हमारे लिए। ये हमारी मर्ज़ी से हम कर रहे हैं। अपनी मर्ज़ी से अपने फ़ोन का डाटा, न सिर्फ अपने उंगलियों के निशान, बल्कि अपनी सोच, अपने सिद्धान्तों को भी हमने गूगल और फेसबुक जैसी कंपनियों के अधीन कर दिया है। फ़्रांसिसी दार्शनिक देलेज़ की माने तो हम अब ‘dividuals’ हो चुके हैं। मसलन अपने स्कूलों में हमारी पहचान हमारी रिपोर्ट कार्ड से थी, बैंक के लिए हमारा सिबिल स्कोर कार्ड हमारी पहचान है और हेल्थ इन्शुरन्स कंपनियों के लिए हमारा हेल्थ कार्ड या डीएनए टेस्ट। जो इंसान कभी एक अविभाजित समग्र था, ‘इंडिविजुअल’ था, उसका विभाजन बहुत पहले ही इन सामाजिक मशीनों द्वारा हो चुका है। नीत्शे का कथन कि ‘man has been made calculable’, आज के समय में भयावह रूप से प्रासंगिक है। लेकिन क्या किसान सचमुच इस ढांचे का हिस्सा है?बचपन से कॉर्पोरेट ढांचे के अधीन, संभवतः हमारे लिए ऑफिस में यूनिफार्म का न होना विचित्र होगा, लेकिन किसी किसान के लिए यूनिफॉर्म पहन कर खेती करने का विकल्प, कुछ दिनों के लिए मज़ाक के रूप में ही संभव होगा।

इसीलिए 21वीं सदी का यह किसान आंदोलन महत्त्वपूर्ण है। ये लड़ाई केवल सरकार और किसानों की नहीं, न ही केवल कॉर्पोरेट और किसानों की है। आखिर इसी आंदोलन में किसानों ने किसान मॉल जैसे कई कॉरपोरेट ढांचों का प्रयोग किया है। इस परिस्थिति को थोड़ा अनपैक करते हैं। एक सरकार है, जो अपनी पौराणिक सामंती विचारधारा के लिए लोकप्रिय है। इस सरकार में रामराज्य के सामंतवाद का शस्त्रीकरण किसी विकृत कलाकृति की तरह सम्पूर्ण होते देखा गया है। उसके खिलाफ, ब्लॉख के शब्दों में, एक ऐसा वर्ग है, एक ऐसी जाति है (आज के जातिवाद से भिन्न), जो आज भी एक मिथकीय ढांचे का हिस्सा है। ये कहना गलत नहीं होगा कि ये लड़ाई रूढ़िवादिता के खिलाफ रूढ़िवादियों ने छेड़ी है, जिसमें रूढ़िवादिता एक अटल सत्य की तरह अडिग है और रूढ़िवादी अवसरवादियों की तरह अपनी विचारधारा को त्याग प्रशासन होने का ढोंग रच रहे हैं। लेकिन अवसरवादी होने का विचार अचानक एक सुबह नहीं आता। हमारे इस समय में, अवसरवाद अपने आप में एक विचारधारा है, जिसे कॉर्पोरेट जगत में एक ज़रूरी ‘स्किल’ की तरह देखा जाता है। वो समय दूर नहीं जब स्कूलों में अवसरवाद की कक्षाएँ शुरू होने लगे। लेकिन बात फिलहाल मौजूदा समय में, मौजूदा सरकार की है, जिसके लिए रूढ़िवाद केवल एक अजेंडा था, ऐसा दिन, प्रतिदिन साफ हो रहा है। दरअसल हम ऐसे समय से आ रहे हैं जिसमें विकास और रूढ़िवाद का द्वंद्व बिना किसी मूल के एक अंतहीन, समयहीन रास्ते पर चला जा रहा है। ड्राइविंग सीट पर बैठे लोगों को ऐसे तो हमने ही चुना है, लेकिन कहीं न कहीं, हमारे इस सामाजिक ढांचे में, जहां ‘influencer’ होना एक पेशे की तरह उभर कर आया है, इस पर भी संशय किया जाना चाहिए। क्योंकि मैं और आप फिलहाल किसी दस्तावेज़ के आंकड़ें हैं, जिसे यूट्यूब पर या फेसबुक पर बड़ी आसानी से ‘इन्फ्लुएंस’ किया जा सकता है। आप अपने फेसबुक के पोस्ट हैं, अपने यूट्यूब एकाउंट के वाच हिस्ट्री हैं, वग़ैरह-वग़ैरह। इसे मुझसे बेहतर जाइल्स देलेज़ के 1990 में लिखे ‘Postscript on the Societies of Control’ में पढ़ा जा सकता है।

बहरहाल कोरोना काल में वर्चुअल स्पेस पर हुए जनसंख्या विस्फोट के बाद, ‘इन्फ्लुएंस’ होने वाली हम लोगों की भीड़ को सचमुच डेमोग्राफिक और डाटा यूनिट बनाने की प्रक्रिया लगभग सम्पन्न हो गयी है। ऐसे में यह किसान आंदोलन महज़ ‘कॉर्पोरेट स्टूज’ न बनने की लड़ाई नहीं है। भले ही यहाँ लड़ाई मौजूदा सरकार की कॉर्पोरेट एजेंडा के खिलाफ शुरू हुई हो, हर आंदोलन की तरह यहाँ भी कलेक्टिव बनेंगे, कॉमन्स पर चर्चा शुरू होगी। आज की आर्थिक व्यवस्था पर आलोचनाएं होंगी। मैं ये नहीं कह रहा कि ये कोई नई शुरुआत है, उलटे हमे ऐसे वाक्यों से बचना चाहिए। हर पीढ़ी की अपनी लड़ाई होती है, जो कुछ पिछली पीढ़ी से, कुछ अपनी पीढ़ी की और कुछ आने वाली पीढ़ी के लिए चलती जाती है। खिलाफत हर पीढ़ी का कर्तव्य है और एकजुटता इसका पहला कदम। ब्लॉख ने कहीं लिखा है : ‘आप खुद के साथ अकेले होते हैं, औरों के साथ आप खुद के बिना अकेले होते हैं। हमें इन दोनों से निकलना होगा।
लेकिन अक्सर किसी फिलॉसफर पर सबसे बड़ा आरोप यही लगता है कि वो बड़ी बातें कर आगे का रास्ता नहीं बताते। किसी भी आंदोलन में आगे का रास्ता वो भी नहीं बता सकते तो जो इसे कमज़ोर करने के लिए हर तरह के अवसरवाद को पनपने का मौका देते हैं। लेकिन ज़ाहिर है, हम यहां न सिर्फ अवसरवाद की राजनीति के खिलाफ हैं, बल्कि एकजुटता के साथ लड़ना भी चाहते हैं। कहीं न कहीं किसानों के लिए भी अब समय आ गया है कि वह उत्पादकता को अपने हाथों लें। कॉमन्स पर बात एक समकक्ष आर्थिक संरचना के रूप में होनी चाहिए। यह समाज हमारी एकजुटता के सहारे ही है। कहना कि कोई विकल्प नहीं है, हमें मशीनीकरण की ओर और धकेल देता है। अब तक हमें इकट्ठा किया गया ताकि हम कारखानों में किसी और के लिए वो सब बना सके जो हमारे बिना कभी बाज़ार में बन ही नहीं सकती। लड़ाई इंसानों की उस सामाजिक ढांचे के खिलाफ है, जो उन्हें आंकड़ों की तरह इस्तेमाल करता है। लड़ाई उस संरचना के खिलाफ है, जो कुछ लोगों की अवसरवादिता को इंसानियत की एकमात्र प्रवृत्ति मानती है। सिर्फ आंदोलन के लिए ही नहीं, हमारा एकजुट होना, परस्पर संवाद के लिए खुद को अवसर देना भी है। जिस हद तक किसानों की लड़ाई आर्थिक न्याय की है, उसी तरह हमारी लड़ाई भी आर्थिक और सामाजिक न्याय की ही है। आप अपने घर आ रहे राशन का हिसाब खुद भी रखते हैं। खाने पर ब्रांड का ठप्पा लग जाने से दाल-भात- सब्ज़ी के दामों में ही केवल इज़ाफ़ा होगा, उसकी पौष्टिकता में नहीं। फिर चाहे सूडो-विज्ञान का सहारा लेकर आपको यूट्यूब और इंस्टाग्राम के ‘इंफ्लुएंसर’ कुछ भी कहे। देलेज़ का कथन कि ‘डर या आशा की नहीं, सिर्फ नए हथियारों को खोजने की ज़रूरत है’, आज किस तरह प्रासंगिक है, हमें खुद समझना होगा।

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उपांशु कवि और स्कालर हैं। उनसे m.upanshu@gmail.com पर बात हो सकती है।

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