कविताएँ ::
कपिल भारद्वाज

1.
मेरे देश
एक निर्णय करना ही होगा तुम्हें
कि चाँद सिर के ऊपर से जब गुजरे
तो उसके दोनों सींग पकड़कर
अपने कमरे में घसीट लाओ और
तब तक बंदी बनाकर रखो
जबतक पक्षियों का कलरव न सुनाई दे।

मेरे देश
एक निर्णय करना ही होगा तुम्हें
कि जब कोई मसखरा/ मंच पर
कबीर को ढूंढने का दावा करे
और मंच के नीचे/ आदमियत की टांट पर थूके
तो उसे आकाश से टूटते तारे की सीध में
फेंक दिया जाए।

मेरे देश
एक निर्णय करना ही होगा तुम्हें
कि खद्दर के पैजामे में सड़ाँध ठाये हुए
थुलथुल काया से इतराये हुए
देश को श्मशान में बदलते
लीडरों के बाप को बस में बैठाकर
रवाना कर दिया जाए नरक के रस्ते।

मेरे देश
एक निर्णय करना ही होगा
कि तुम क्या करना चाहते हो
किस तरफ बैठना है तुम्हें
ये जो दोनों तरफ की तरफदारी है
ये ही सबसे बड़ी बीमारी है।

2.
इतिहास की एक इबारत में लिखा गया है
कि एक राजा बंशी बजाता रहा और
देश जलता रहा, ख्वाहिशों की कीमत पर।
हमने सीखा कि संगीत भी अश्लील हो सकता है।

इतिहास की एक और इबारत में कभी लिखा जाएगा
कि एक महादेश का आत्ममुग्ध मसखरा
विलासिता की अट्टालिका बनाने में इतना मुग्ध हुआ
कि शहर के शहर मुर्दों के दड़बे में बदलते रहे
और राजमिस्त्री भरी दोपहरी सरिए और सीमेंट के साथ अठखेलियाँ करते रहे।

हमने सीखा कि कला भी अश्लील हो सकती है।
रही बात कविता की तो,
वो हमेशा से संघर्ष से चूते पसीने की इबारत लिखने में मशगूल रही।

राजधानी में प्रवेश करते ही
अपने सींगों को यदि ओर पैना न कर पायीं
तो मैं अपनी सारी कविताओं को फूंक दूंगा।

3.
एक आंख है जो देख रही है
तुम्हें कपड़े उतारते हुए

एक कान है जो सुन रहा है
तुम्हारे नारों की खड़खड़ाहट को

एक दिमाग है जो नियंत्रित कर रहा है
तुम्हारी सांस्कृतिक लड़ाई को।

यह सदी, गुमराह करने के लिए
सृजन की ईमानदारी को
कड़ाही में उबाल खा रहे
मटन के टुकड़ों में खरीद लेगी।

फिर भी कविता को
न आकाश की तरफ ताकना होगा
न अपनी जमीन छोड़नी होगी
और न ही अपनी मुलायमियत का रंग।

3.
कोयल कूकेगी
तुम चाहे अपने कानों में रुई भर लो
तब भी वो कूकेगी।

फूल खिलेंगे
तुम चाहे अपनी बीनाई खुरच डालो
तब भी वो खिलेंगे।

कविता लड़ेगी
तुम चाहे अपनी पीठ दिखा दो
तब भी वो लड़ेगी।

4.
कितने पत्ते झड़ गए हैं
पिछले दिसम्बर से इस दिसम्बर के बीच
कितनी उदासी उड़ाई है गर्दिश में मैंने
पिछले दिसम्बर से इस दिसम्बर के बीच
कितने फूलों को सहलाया है हवा ने
पिछले दिसम्बर से इस दिसम्बर के बीच

पिछला दिसम्बर याद आता है
तो याद आती है
महामारी की रातों की बेबसी
दीवारों पर पसरा अकेलापन
दर्ज होती मृतकों की संख्या।

पिछले दिसम्बर में तुम नहीं थी
तो मेरे पास क्या था गिलहरी
आंखों में भरी अजनबियत
पावों में आवारगी की थकावट
और जीवन की बदसूरती।

अबके दिसम्बर मेरे पास हो तुम
यानी कविता है, बुद्ध की प्रतीक्षा है
और है साथ में जीवन जीने की जिज्ञासा।

5.
आधी रात को रोती है एक विरहणी
खारे आंसुओं की नदी में गिरती है
चार बूंदे और ज्यादा।

रात बरगद पर लटकी है उसकी
उलटे चमगादड़ की ज़्यूं

गाती है ‘जोबन रुत्ते जो भी मरदा फूल बने या तारा’ गीत
और याद करती है अपने प्रेमी को।

रोती जाती है और गाती जाती है
सन्नाटे में फैले सन्नाटे को सुनाती है अपना विरह

करतल करती है हवा कि साथ देती है
रोने में और गाने में।

जितनी गहरी है वेदना
उतनी गहरी है खारे आंसुओं की नदी।

प्रार्थना करता है कवि
हर विरहणी को मिले ऐसी ही रात,
ऐसा ही सन्नाटा और ऐसी ही खारे पानी की नदी।

•••

कपिल भारद्वाज कवि हैं और कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में शोधरत हैं। फरवरी 2021 में पहला काव्य-संग्रह ‘फिर देवता आ गए’ प्रकाशित है। उनसे kapilbhardwaj3939@gmail.com पर बात हो सकती है।

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