लेख ::
नसीरुद्दीन शाह और केदारनाथ सिंह : संजय कुंदन
नसीरुद्दीन शाह अभिनय के उस्ताद हैं तो केदारनाथ सिंह कविता के दिग्गज. इनमें कोई समान बात क्या हो सकती है! मेरे लिए है. एक समय था, जब ये दोनों मेरे सिर पर सवार थे. मतलब कि आंखें खोलूं तो बस ये ही दो दिखते थे. यानी मेरे रोल मॉडल. सोचता था, काश! मैं भी नसीर की तरह अभिनय करता. काश! मैं भी केदार जी की तरह कविता लिखता. वो ही ऐसी थी.
सोलह-सत्रह साल. तब इंटर (बारहवीं) की पढ़ाई भी कॉलेज में होती थी. तब हमारी हालत यह थी कि जैसे अभी-अभी कैद से छूटे हों. इससे पहले तक बंदिशों की चहारदीवारी में घिरे थे. यहां नहीं जाना, वहां नहीं जाना. ये नहीं करना, वो नहीं करना. फिल्म देखना तो जैसे गुनाह था, देखना भी था तो परिवार के साथ. पटना कॉलेज में एडमिशन के साथ ही तमाम बंदिशें हटा ली गईं. लगा कि हम खुले आसमान में आ गए हैं. अब तो पूरी दुनिया हमारी है.
उन दिनों आदर्शवाद हमारी रगों में चक्कर लगाया करता था. लगता था कि दुनिया को बदलने का ठेका हमारा ही है. हमें सब कुछ करना था. रंगमंच पर उतरना था, साहित्य लिखना था, राजनीति करनी थी, पत्रकारिता भी करनी थी और तो और नौकरशाही में भी घुसना था और एक ऐसा अफसर बनना था जो दिन-रात जनता की सेवा में लगा हुआ हो. और हां, औरों की तरह प्रेम भी करना था. सपने ही सपने थे हमारे सामने. 16-17 की नाजुक उमर में न जाने अपने लिए क्या-क्या सबक चुन लिए थे मैंने और मेरे एक-दो मित्रों ने.
हमें यह अहसास होता था कि हम अलग हैं. घर-परिवार, मोहल्ले और समाज में मिसफिट हैं. हमारे सपने अपने हमउम्र लड़कों से अलग हैं. उन्हीं दिनों मैंने एक-एक कर वे काम किए जिनकी मनाही थी. इनमें से एक था-फिल्में देखना. मैंने कॉलेज के मित्रों के साथ फिल्म देखने की शुरुआत की. उन दिनों आज की तरह मल्टीप्लेक्स तो होते नहीं थे. सिंगल विंडो स्क्रीन हुआ करता था. चार रुपये में स्पेशल क्लास, पांच रुपये में बाल्कनी, छह या सात रुपये में ड्रेस सर्किल (डीसी) का टिकट आया करता था. उस वक्त हम स्पेशल क्लास से ऊपर नहीं बढ़ पाते थेे.उस वक्त तक फिल्में भले ही कम ही देखी हों, पर फिल्म की दुनिया से अच्छी तरह परिचित थे. पत्रिकाओं के जरिए हमें सब कुछ मालूम था. उस दौर में कला फिल्म आंदोलन (समानांतर सिनेमा) शुरू हो चुका था और हम खुद को उसका स्वाभाविक दर्शक मानते थे.
उन्हीं दिनों मैंने नसीरुद्दीन शाह की एक कम चर्चित फिल्म देखी- ‘बहू की आवाज.’ यह फिल्म शायद कला फिल्मों की श्रेणी में नहीं गिनी गई. खुद नसीर भी इसे शायद ही याद करते हों, लेकिन हमारे ऊपर इसका गहरा असर पड़ा. हम नसीरुद्दीन शाह के मुरीद हो गए. इसमें एडवोकेट सुनील का उनका रोल हमें जबरदस्त लगा. एक ऐसा फक्कड़ शायराना शख्स जिसके आगे-पीछे कोई न हो, जिसने अन्याय और जु्ल्म के खिलाफ लड़ना ही अपना मकसद बना लिया हो. हमें इस तरह के चरित्र खींचते थे. फिल्म में नसीरुद्दीन शाह ने एक दहेज पीड़िता के पक्ष में मुकदमा लड़ा. चीखते हुए टेबल पर मुक्का मार-मार कर अदालत में अपनी बात कहने के उनके अंदाज ने हमें उनका दीवाना बना दिया. एडवोकेट सुनील में दरअसल हम अपनी छवि देख रहे थे. वह इमेज एक गुस्सैल आदर्शवादी युवा की थी. ‘बहू की आवाज’ के बाद हमने शायद ही नसीर की कोई फिल्म छोड़ी हो.
नसीर की खासियत है कि वह हर चरित्र के मुताबिक खुद को ढाल लेते हैं. फिर उनकी आवाज के क्या कहने! उसमें एक खनक है. फिल्म ‘मंडी’ में एक अल्पबुद्धि नौकर झुमरू के उनके किरदार ने भी काफी प्रभावित किया. झुमरू एक कोठे पर नौकर है, जो किसी से कुछ नहीं बोलता, सिर्फ आदेश का पालन करता है. मगर रात में शराब के नशे में बड़बड़ाता है और खुद से बातें करता है. जब मैं थियेटर करने लगा तो किसी चरित्र को तैयार करते वक्त मेरे जेहन में नसीर के निभाए चरित्र ही हुआ करते थे.
वे सचमुच बड़े अजीब दिन थे. हम फिल्म देखकर लौटते तो घर जाने का मन नहीं करता था. मैं अक्सर अपने मित्र संतोष चंदन के साथ फिल्में देखा करता था. हम दोनों बड़ी देर तक सड़क पर टहलते रहते, फिर थककर कहीं फुटपाथ पर बैठ जाते. उन्हीं दिनों फिल्म ‘मशाल’ का एक गाना बड़ा चर्चित हुआ था. यह गाना हमें छूता था. हम अक्सर इसे गुनगुनाते : ‘फुटपाथों के हम रहने वाले/ और तो अपना कोई नहीं/ फुटपाथों के हम रहने वाले.’ उन दिनों जी करता था कि साधुओं की टोली के साथ चल पड़ें या बंजारों के पीछे लग लें. मैं कई बार श्मशान में जाकर बैठ जाता. बैठा रहता.
ऐसे ही दिनों में केदारनाथ सिंह की कविताओं से परिचय हुआ. साहित्य तो पहले से ही लिख-पढ़ रहा था, स्कूल के दिनों से ही. लेकिन हिंदी कविता की समकालीन धारा से कोई परिचय नहीं था क्योंकि घर में कहानी और नाटक का माहौल हावी था. हां, मुक्तिबोध से पहचान हो चुकी था, अपनी बड़ी बहन की कोर्स की किताब के जरिए. मुक्तिबोध की भाषा ने चमत्कृत किया था. वह एक वैचारिक गुरु की तरह उभरकर आए, लेकिन केदारनाथ सिंह की कविताओं ने वह असर डाला जो नसीर की फिल्मों ने डाला था.
कॉलेज में जाते ही शहर के उन दिनों के कुछ युवा साहित्यकारों से जान-पहचान हुई. उनके जरिए पता चला कि बिल्कुल अभी कौन-कौन लिख रहे हैं. पता चला कि अभी केदारनाथ सिंह सबसे महत्वपूर्ण कवि हैं. जब ‘जमीन पक रही है’ की कविताएं पढ़ीं तो लगा कि अरे! यह क्या हो रहा है. लगा जैसे कोई जादू दिखा रहा है. या कोई फिल्म सी चल रही हो. उन्हें पढ़ते हुए लगा जैसे धीरे-धीरे हम हवा में ऊपर उठने लगे हों. आसपास की हर चीज में एक हलचल सी मच गई है. वे हमसे बतियाना चाहती हैं. हम पेड़, पौधे, घास, नदी, टमाटर, घोड़े और सिक्कों को रोज देखते थे, पर उनका यह गतिशील रूप भी हो सकता है, यह तो कभी सोचा ही नहीं था. लगा जैसे किसी ने मेरे भीतर घुसकर कई तार झनझना दिए हों.
तो इस तरह भाषा-साहित्य की दुनिया में एक और दरवाजा मेरे लिए खुला. फिर तो केदार जी के सारे संग्रह पढ़ डाले, बार-बार पढ़े. कुछ पंक्तियां जुबान पर चढ़ गईं- खाली कटोरों में वसंत का उतरना…. घोड़े उठेंगे और आंकड़ों को रौंद डालेंगे… मैंने पैरों में सड़क पहन ली, उठो कि नाव के पाल में, कुछ सूत कम पड़ रहे हैं… दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए.
उसके बाद ‘बाघ’ कविता का पाठ सुनने को मिला. सुनकर स्तब्ध रह गया. लगा कि साहित्य गहरे पैठने की चीज है. वह उतना आसान और आराम का मामला नहीं है, जितना मैं समझ रहा था. बहरहाल आज नसीरुद्दीन शाह के अलावा भी मेरे कई प्रिय अभिनेता हैं. केदारनाथ सिहं के अलावा भी मेरे और कई प्रिय कवि हैं. लेकिन इन दोनों ने मेरी युवावस्था में जो असर मुझ पर डाला था उसका मेरे जीवन में हमेशा महत्व बना रहेगा.
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संजय कुन्दन सुपरिचित कवि-कथाकार हैं.
उनसे sanjaykundan2@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.