कहानी ::
उदासियों का बसंत : हृषिकेश सुलभ

ज़िन्दगी सहल नहीं रह गई थी. वे बसते-बसते उजड़ गए थे. उनकी देह और उनके मन, दोनों का छन्द भंग हो रहा था…….और वे थे कि बार-बार भंग हो रहे छन्दों के सहारे जीवन की लय पकड़ने में लगे थे.

वे चले जा रहे थे. श्लथ पाँव. छोटी-सी मूठवाली काले रंग की छड़ी के सहारे. यह छड़ी कुछ ही दिनों पहले, ……कल ही, उनकी ज़िन्दगी में जबरन शामिल हुई थी, …..बिन्नी की ज़िद पर.
वे छड़ी ख़रीदने के पक्ष में नहीं थे. किसी के सहारे, चाहे वह कोई निर्जीव वस्तु ही क्यों न हो, चलना उन्हें प्रिय नहीं. पर भला बिन्नी कहाँ माननेवाली! ज़िद पर अड़ जाती है तो एक नही सुनती. तमाम तर्क, …..‘‘आपको अभी ज़रूरत है……छड़ी लेकर चलने से कोई बूढ़ा थोडे़ ही हो जाता है, ……अभी आपको चलते हुए सतर्क रहने को कहा है डॉक्टर ने. ……नेलिंग हुई है पिंडली में और पाँव पर ज़रा भी ज़्यादा ज़ोर नहीं पड़ना चाहिए …..छड़ी रहेगी तो वजन सम्भालेगी. ……पहाड़ी रास्ते हैं, ……ऊपर-नीचे, ….चढ़ना-उतरना, …….हर बात में आपकी मनमानी नहीं चलेगी…..!‘‘
बोलते हुए वह दम नहीं लेती. एक बार शुरु हो गई तो रूकने का नाम नहीं लेती है यह लड़की. लड़की ही तो है बिन्नी. उनके सामने तो लड़की ही है. वे दो सालों बाद पचास के हो जाएँगे और बिन्नी अभी इक्कतीस की है. सत्रह वर्षों का अंतराल कम नहीं होता. उन्हें बिन्नी की बात माननी ही पड़ी और यह छोटी-सी मूँठ वाली काले रंग की छड़ी उनकी ज़िन्दगी में शामिल हो गई.

वे चल रहे थे. अवसन्न मन. थके-हारे. मन के अतल में गहरे, ……कहीं बहुत गहरे छिपी कोई हूक उनका कलेजा चीरकर बाहर आने को बेचैन थी. उमड़-घुमड़ रही थी. सप्तम स्वर में बजते शंखध्वनि-सी शून्य में जाकर अँटकी हुई कोई चीख़. पकती, ……सयानी होती, ………सिकुड़ती त्वचा के नीचे चुभतीं अस्थियों की किरचें. आँखों की कोर पर सहमी हुई नमी……. दिवंगत होता सा कुछ, …….लोप होता हुआ कुछ….. कुछ नहीं, ……बहुत कुछ. कुछ जाना-सा और कुछ अनजाना. सब धीरे-धीरे, बिना किसी आहट के दूर जाता हुआ.

वे चले जा रहे थे अपनी आत्मा में लहराती अग्निपताकाएँ लिये. इन अग्निपताकाओं में उभरता-छिपता आत्मा के घाव-सा बहुत कुछ लहरा रहा था. कुछ बहुमुँहे घाव, ……कुछ बंद मुँहवाले और कुछ खुले मुँहवाले घाव. एक मौन भी था ठिठका हुआ, जिसे वे अपने साथ लिये चल रहे थे.
हल्की चढ़ायी थी. एक कॉटेज था सामने, जिसकी ओर बढ़ रहे थे वे पाँव घसीटते हुए. जब बिन्नी ने केरल चलने का प्लान बनाया, उन्हें मुन्नार याद आया. मुन्नार तब और छोटा था, ….बहुत छोटा. बस स्टैन्ड के पास चार-पाँच दुकानें और चालीस-पचास घर. आज भी छोटा ही है, पर पहले के मुक़ाबले बड़ा.  मुन्नार से थोड़ी दूरी पर, …….लगभग दस-बारह किलोमीटर दूर थी वह जगह. वे उस जगह का नाम भूल चुके थे. बीस साल पुरानी डायरी निकालकर उन्होंने उस जगह का नाम ढूँढ़ा – लछमी इस्टेट. लक्ष्मी नहीं, …….लछमी. चारों ओर पहाड़ों की ढलान पर चाय के बगान. करीने से कटे-छँटे चाय के पौधों की झाड़ियों के बीच से ऊपर जाती चक्करदार सड़क. बीच-बीच में सघन वन. ऊँचे, नाटे, छायादार, पत्रहीन, ………तरह-तरह के वृक्षों, लताओं और वनस्पतियों से लदे हुए पहाड़. इन्हीं पहाड़ों में से एक के शिखर पर था वह कॉटेज.
जब मुन्नार आना अंतिम रूप से तय हो गया और ठहरने के लिए लिए बिन्नी होटल का चुनाव करने बैठी उन्होंने इस जगह का ज़िक्ऱ किया. बिन्नी ने गूगल मैप पर यह जगह ढूँढ़ निकाली. मुन्नार से पूरब की ओर जाती इस सड़क पर स्मृतियों के सहारे धीरे-धीरे वे आगे बढ़ते रहे और जैसे ही यह जगह,……….ये कॉटेज दिखा वे बच्चे की तरह चहक उठे थे -‘‘……यही, …..यही है, …..हन्डरेड परसेन्ट यही है …..ये फाटक के पास वाला पेड़ अब बड़ा हो गया है बस…..और वो जो…….‘‘ जैसे धरती का सीना फोड़कर अचानक कोई जलसोता फूट पड़ा हो! बिन्नी उन्हें नन्हें शिशु की तरह उत्साह,……..उमंग और कौतूहल से भरते, ………छलकते हुए एकटक निहार रही थी. वे अपनी रौ में थे – ‘‘ये जो पेड़ है न, …..कामिनी का पेड़ है. जब हम लोग यहाँ रुके थे, उन दिनों यह सफ़ेद फूलों से लदा हुआ था…..युवा पेड़…..फूलों से लदा हुआ. एक तो युवा और ऊपर से फूलों की चादर लपेटे आपके स्वागत के लिए द्वार पर खड़ा. …..अनूठा लगता था……मेरे दोस्त गोपी नायर का काटेज था यह. गोपी अक्सर यहाँ आकर महीनों रहता. उसने इसे लछमी इस्टेट वालों से दो साल के लिए लीज पर लिया था. उसकी ही सलाह पर ……या उसके ही आमंत्रण पर मैं राधिका और नन्हीं-सी टुशी के साथ केरल घूमने आया था. मुन्नार के इस कॉटेज में हमलोग दस दिनों तक रुके रहे थे. पता नहीं अब इसका कौन मालिक होगा! किसी ने ले रखा होगा या लछमी इस्टेट वालों ने अपने चाय बगान के किसी मुलाजिम को दे रखा होगा! ……..गोपी भी तो नहीं रहा. सात-आठ साल हुए किसी सड़क दुर्घटना में……इस काटेज के पीछे ढलान है…..नीचे की ओर उतरती सपाट ढलान. दायीं ओर वाली पहाड़ी से तेज वेग के साथ उतरकर एक पहाड़ी नदी इस ढलान के बीचों बीच गुज़रती है……..मैं इन दस दिनों में रोज़ इस नदी से मिलने जाता था. जाने क्यों यह नदी मुझे बहुत अपनी-अपनी सी लगती थी. पहाड़ से उतरती हुई यह नदी वेगवती ज़रूर थी पर संयम वाली भी लगती. इसके प्रवाह में लय थी. उतरती हुई आलाप ध्वनि जैसी गम्भीरता थी. वृक्षों-लताओं से हवाओं के मिलन की, ……..पंछियों की बतकही की, ……..और पुकारों की अंतर्ध्वनियों के अनगिन राग इसके प्रवाह की घ्वनियों में शामिल थे….गुँथे थे…….

वे बोले जा रहे थे और बिन्नी उन्हें अपलक निहारती, ….शब्द-शब्द पीती जा रही थी. तुम उस नदी को ढूँढ़ो…..आगे ले चलो कर्सर….ज़रूर दिख जायेगी वो नदी……ऐसी नदियाँ, ……पहाड़ों से उतरनेवाली नदियाँ मरती नहीं…..वह होगी वहीं कहीं. मुझसे ज़्यादा तो टुशी को उस नदी से प्यार हो गया था.  दो-ढाई साल की टुशी सुबह उठते ही नदी से मिलने जाने के लिए उतावली हो उठती थी…..मैं उसके तट से गोल, …चिकने, …….चमकते हुए तरह-तरह के छोटे-छोटे पत्थरों को चुनता और टुशी के सामने ढेर लगा देता. टुशी उन पत्थरों से खेलती. कभी घर बनाती, कभी कभी पेड़ और कभी फूल, ……पत्थर के फूल.

वे बेचैन हो गए थे उस नदी को देखने के लिए….वे वहीं उसी पहाड़ी पर बने किसी काटेज में ठहरना चाहते थे तकि उस काटेज को एक बार फिर देख सकें. फूलों की चादर ओढ़कर खड़े कामनी के उस पेड़ को, जो अब अधेड़ होने लगा होगा, देख सकें. वे उस नदी से मिलना-बतियाना चाह रहे थे जिसके तट पर उनकी बेटी टुशी ने पत्थरों के टुकड़ों से घरौंदे, ….पेड़ और फूल बनाए थे. वे फिर उस नदी के पाट के बीच उतरकर उसकी जलधारा को स्पर्श करना चाहते थे. वे चाहते थे उन सारी आवाज़ों को फिर से सुनना, जिन्हें वे अब तक अपनी स्मृतियों में बचाए हुए थे.

इंटरनेट पर काफी समय गँवाने के बाद बिन्नी लछमी एस्टेट में ठीक इस काटेज से लगभग एक फर्लांग पहले एक होम स्टे बुक करा सकी. जोसेफ होम स्टे. दिल्ली से कोच्चि की हवाई यात्रा…..कोच्चि से मुन्नार सड़कमार्ग से. टैक्सी वाला एक रिटायर्ड फ़ौजी था और कामचलाऊ अँग्रेज़ी के साथ-साथ अच्छी हिन्दी बोल रहा था. ख़ुश मिज़ाज भी था, सो सारी राह वे उससे गप्पें करते रहे. टैक्सी वाला फ़ौज के अपने क़िस्से सुनाता और वे रस लेकर सुनते. बीच-बीच में बच्चों की तरह अपनी जिज्ञासाएँ प्रकट करते. कभी-कभी वे टैक्सी वाले को छेड़ने के लिए किसी घटना पर संदेह प्रकट कर देते, पर वह भी था जीवट वाला आदमी. हर तरह से उन्हें संतुष्ट करने की कोशिश करता. उसने रास्ते में एक जगह रुक कर इडियप्पम खाने की सलाह दी. उन्होंने स्वाद लेकर इडियप्पम खाया और अनिच्छा के बावजूद बिन्नी को भी खिलाया. मुन्नार पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई थी.  एक बार सबको चाय-कॉफी की तलब लग आई थी. चाय पीते हुए ही बिन्नी की नज़र उस दुकान पर गई थी, जिसमें तरह-तरह के हैट्स और छड़ियाँ टँगी थीं. ज़िद्दी बिन्नी ने उनकी एक न सुनी और यह छोटी मूँठ वाली काले रंग की छड़ी उनकी ज़िन्दगी में शामिल हो गई.

जोसेफ ने बस स्टैन्ड पर आदमी भेज दिया था. वह आगे-आगे मोटर सायकिल से राह दिखाते हुए चल रहा था. हालाँकि उनके होते किसी राह दिखाने वाले की, ….किसी रहबर की ज़रूरत नहीं थी. उन्हें सब कुछ याद था. बारीक़ से बारीक़ डीटेल्स पर हमेशा उनकी नज़र रहती और बातें, ……..घ्वनियाँ, …….दृश्य सब उनकी स्मृतियों में बस जाते. ज़रूरत पड़ने पर वे यह सब अपनी स्मृतियों के ख़ज़ाने से यूँ निकालते, जैसे कोई जादूगर अपनी जेब से कबूतर निकाल कर उड़ा रहा हो. जोसेफ होम स्टे पहुँचते-पहुँचते अँधेरा हो चुका था. स्वागत के लिए जोसेफ कॉटेज के गेट पर खड़ा था. घुँघराले बालों वाले तीस-पैंतीस साल के जोसेफ ने मुस्कुराते हुए स्वागत किया था.

यह कॉटेज दो हिस्सों में बँटा था. आगे के हिस्से में दो बेडरूम, एक लिविंग रूम और सामने बरामदा और फूलों से सजा लॉन. पीछे की ओर था एक बेडरूम, एक लिविंग रूम, छोटा सा बरामदा और सामने छोटा-सा ढालुआँ लान, जिसमें फूलों की पतली क्यारियाँ थीं. कँटीले तारों के फेंस से घिरे इस छोटे लॉन के बाद घना जंगल था. दीर्घ जीवन जी चुके शाल के ऊँचे अनुभवी वृक्षों के बीच-बीच में कई अन्य प्रजातियों के वृक्ष थे और फूलों से लदफद जंगली लताएँ थीं. सूर्य इसी ओर से हर सुबह घने वन के गझिन संसार में प्रवेश करते और अपनी लालिमा से ढँक देते वृक्षों की काया को. वृक्षों से छनकर जब नीचे गिरतीं किरणें, जंगल की धरती लाल फूलों की छापेवाली चुनरी की तरह लहरा उठती……..जब उन्होंने इस हिस्से को ही पसंद किया, जोसेफ ने रात को, सोने से पहले दरवाज़ों-खिड़कियों को हर हाल में बंद रखने का आग्रह किया था और अक्सर जंगली जानवरों के आ जाने की सूचना दी थी. इस काटेज से लगभग पचास फीट नीचे जोसफ होम स्टे का मुख्य और अपेक्षाकृत बड़ा काटेज था. वहाँ से यहाँ आने-जाने के लिए पत्थरों को तराश कर सीढ़ियाँ बनी थीं. नीचे वाले हिस्से में ही किचेन था. दोनो कॉटेज इन्टरकॉम से जुड़े थे. वे रात को ही ऊपर जाकर उस कॉटेज को देखना चाहते थे, जिसमें वह अपनी पहली मुन्नार यात्रा के दौरान राधिका और टुशी के साथ ठहरे थे, पर जोसेफ की सलाह पर उन्हें रुकना पड़ा. बिन्नी कमरे को उनकी रुचि के हिसाब से व्यवस्थित कर रही थी और वे जोसेफ से उस ऊपर वाले काटेज के बारे में जानकारियाँ ले रहे थे. उस काटेज को इन दिनों भारतीय मूल की किसी फ्रांसिसी महिला ने लीज़ पर ले रखा था. वह साल में एक बार दो-तीन महीनों के लिए आती थी और बाक़ी दिनों में वह काटेज बंद ही रहता. एक स्थानीय आदमी उसकी देख-रेख करता. महीने में एक बार साफ़-सफाई कर देता.

बिन्नी ने रात के खाने के लिए जोसेफ को बताया. कोकोनट मिल्क में बना चिकेन और सादी रोटियाँ. वे केरल के लच्छा पराठे खाना चाहते थे, पर जानते थे कि बिन्नी किसी क़ीमत पर राज़ी नहीं होगी. बिन्नी ने कुछ स्नैक्स तुरंत लाने को कहा था और वे फिर किसी बच्चे की तरह ख़ुश हो गए थे अपनी पसंद का ड्रिंक मिलने की प्रत्याशा में. इस मामले में बिन्नी के हुनर का कोई जवाब नहीं. उसे मालूम है कि उन्हें कब, क्या और कितना ड्रिंक चाहिए और किस ड्रिंक के साथ कौन-सा स्नैक्स.

उनकी रात सहज ही गुज़री थी. लम्बी यात्रा की थकान थी…..और स्मृतियाँ भी तो थकाती हैं कभी-कभी, जब वे ठाट की ठाट उमड़ती हुई बे-लगाम चली आती हैं. उन्होंने बिन्नी के हाथों तैयार दो पेग ग्लेनविट लिया और कोकोनट मिल्क में पके चिकन के दो टुकड़ों के साथ दो फुल्की रोटियाँ. बीस साल पहले यहाँ रोटियों के लिए तरस कर रह गए थे वे. बिन्नी एक छोटा पेग लेकर साथ देने बैठती है. कभी पूरा ले लेती है, तो कभी उस इकलौते छोटे पेग का भी बहुत सारा भाग छोड़ देती है. उनकी नज़र में यही एक बुरी आदत है बिन्नी में कि वह ड्रिंक बरबाद करती है…… फिर बिन्नी की बाँहों में बँधकर सारी रात इत्मिनान से सोते रहे वे. पहली बार बिन्नी के साथ सोये……सुकून के साथ, …..निर्भय होकर. वैसे बिन्नी का साथ उन्हें भयभीत नहीं करता, निर्भय करता है. एक आश्वस्ति का भाव, ……जो दुःखों और निराशा के अंधकूप से बाहर आने के बाद मिलता है, ….वैसा ही भाव भर जाता है उनके भीतर जब बिन्नी साथ होती है. पता नहीं बिन्नी कब सोई या कब तक जागती रही. उन्होंने बिन्नी को अपनी बाँहों में भरा या बिन्नी ने, …….उन्हें नहीं पता. एक तो थकन और फिर ग्लेनविट का सुरूर. सुबह जब उनकी आँखें खुलीं, उनकी उम्मीद के विपरीत बिन्नी गहरी नींद सो रही थी. बिन्नी उन्हें अक्सर बताती रही थी कि वह रात को चाहे कितनी भी देर से सोये, पर जागती अलसुब्ह है और दिन में नींद की क्षतिपूर्ति करती है.

सुबह जब उनकी नींद खुली बिन्नी की बाँहें उनसे लिपटी हुई थीं. जब उसकी बाँहें हौले से हटाकर वे उठे, वह गहरी नींद में होते हुए कुनमुनाई थी. वे उसे निहारते रहे. जुल्फ़ों से झाँक रहा था उसका चेहरा. गोरा रंग, …जैसे दूध में ईंगुर घोल दिया हो किसी ने….नींद में भी दीप्ति से भरा हुआ. बड़ी-बड़़ी आँखों के बंद पटों पर झालर की तरह टँगी बरौनियाँ. सुग्गे की चोंच-सी खड़ी नाक और कतरे हुए पान से सुघड़ होठ, …….और अधखुले बटनों वाले सफ़ेद कुर्ते से झाँकते दो अमृतकलश. वे सम्मोहन में डूब ही रहे थे कि बिन्नी ने करवट बदल ली थी. वे अचकचा उठे थे. पल भर में उनके चेहरे पर अनगिनत भाव आए, …….गए. उन्होंने अपने को सहेजा था और नित्यक्रिया से निबट कर बिन्नी की नींद में खलल डाले बिना बाहर निकल गए थे.

वे उस कॉटेज के सामने थे. वे सबसे पहले कामिनी के वृक्ष की ओर बढ़े. उसके नीचे जा खड़े हुए. उसके तने को, ……..नीचे तक झुक आयीं डालों-पत्तियों को स्पर्श किया. कामिनी पर बहार आ रही थी. कुछ ही दिनों में यह वृक्ष फूलों की चादर से ढँकने वाला था. अभी फूल कम थे, पर कलियों के गुच्छों से लदा हुआ था वृक्ष. वे कामिनी-वृक्ष से निःसृत होती गंध को अपनी साँसों में भर रहे थे. वे कुछ देर तक आँखें मूँदे वहीं, ……वृक्ष के नीचे खड़े रहे. केवल उनकी आँखें मुँदी थीं…..देह और आत्मा का रोम-रोम खुल गया था. वे फाटक के बिल्कुल पास पहुँचे. लकड़ी की पतली फट्टियों से बना छोटा-सा फाटक. अपनी छोटी मूँठ वाली काले रंग की छड़ी से फाटक को ठकठकाया……..थोड़ी देर प्रतीक्षा करते रहे. फिर आवाज़ दी. कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला. वे बेचैन हो रहे थे. वह उमड़ती-घुमड़ती हूक, …….अँटकी हुई चीख बाहर आने को उद्धत हो रही थी. वे कॉटेज के पीछे की ओर गए. पर कहीं कोई नहीं था. कॉटेज बन्द पड़ा था. सुनसान था. काटेज को छोड़कर ऊपर की ओर आगे जाती सड़क के किनारे एक मोटे तने वाला सेमल का विशाल पेड़ था. बूढ़ा पेड़, जिसकी मोटी जड़ों की कई शाखाएँ बाहर निकल आयी थीं. खोड़रों वाला पेड़. इन खोड़रों में सुग्गों के घोंसले थे. वे वहीं, ……सेमल-वृक्ष के नीचे, उसकी बाहर निकल आई एक मोटी जड़ पर बैठ गए थे.

उन्होंने बीस साल पहले के इस सेमल को याद किया था. इतना बूढ़ा नहीं था यह उन दिनों. इसकी विशाल काया में खोड़र नहीं थे. पंछियों के घोंसले ज़रूर थे, पर ऊपर की डालों पर. अब भी होंगे.  उन्हें पतली-छोटी चोंच, सुनहले सिर और नीले रंग के पंखों वाली थ्रश चिड़ियों का वह झुंड याद आया, जो इस सेमल पर रहता था. सुबह उनकी मीठी आवाज़ से नींद खुलती और वह टुशी को लेकर सामने के बरामदे में आ जाया करते थे. नन्हीं टुशी इनको देखकर ख़ूब ख़ुश होती. इक्के-दुक्के ग्रे हार्न बिल भी दिख जाया करते थे. पीली, कठोर और बड़ी चोंच वाले भूरे पक्षी. टुशी उन्हें देखकर डरती थी. वे सोच रहे थे, …….इन्हीं भूरे पक्षियों ने इस सेमल के तने को अपनी चोंच से खोखला किया होगा. पहले उन्होंने ही इस खोड़र को अपना घोंसला बनाया होगा. फिर वे कहीं चले गए होंगे, तब सुग्गों को ये खोड़र मिले होंगे रहने के लिए. घोंसले आसानी से नहीं बसते. उन्होंने भी तो बया की तरह राधिका को रीझाने के लिए बहुत मुश्किलों से अपना घोंसला बनाया था. एक तिर्यक मुस्कान उभरी थी उनके होठों पर, जिसे उन्होंने अपने मन की आँखों से देखा और अपनी ही मुस्कान से आहत हुए.

वे सेमल-वृक्ष के नीचे बैठे पास से गुज़रती सड़क के पार उस कॉटेज के भीतर राधिका और टुशी को अपने मन की आँखों से तलाश रहे थे. सामने बिन्नी खड़ी थी. लगभग हाँफती हुई. तेज़ क़दमों से चढ़ाई वाली राह तय की थी उसने.

‘‘चाय नहीं पी आपने…….‘‘

‘‘तुम नींद में थी, ……सो चला आया.‘‘ उनकी आवाज़ कातर हो रही थी.

‘‘जोसेफ चाय रख गया था ….मैं इंतज़ार करती रही. ठंडी हो गई होगी……चलिए. ‘‘ बिन्नी के स्वर में शिकायत नहीं, ममता थी. वह उनके बिल्कुल पास आकर खड़ी हो गई थी. बिन्नी ने अपना दोनों हाथ उनकी ओर बढ़ाया था ताकि वे उसके सहारे उठ सकें. वे उठे. बिन्नी ने झुककर सेमल की जड़ों से टिकी छड़ी उठाई और उन्हें पकड़ा दी. वे दाएँ हाथ में छड़ी लिये चल रहे थे. बिन्नी उनसे सट कर चल रही थी, ….बायीं ओर. चलते हुए उन्होंने अपना बायाँ हाथ बिन्नी के काँधे पर रख दिया और बोले – ‘‘अच्छा किया तुमने कि यह छड़ी ले ली……चढ़ने में तो नहीं, पर उतरने में इसका साथ होना भरोसा दे रहा है.‘‘

बिन्नी पल भर के लिए रुकी. वे भी ठिठके. बिन्नी उनकी दायीं ओर आई और उसने उनके हाथ से छड़ी ले ली. वे पहले तो चौंके ….फिर मुस्कुराए. उन्होंने अपना दायाँ हाथ बिन्नी के काँधे पर रखते हुए अपना पूरा भार उस पर डाल दिया था. पूछा था – ‘‘ख़ुश?‘‘

‘‘हूँऊँऊँऊँ…..!‘‘ बिन्नी ने अपनी बायीं बाँह उनकी कमर में लपेट दी थी. वह लाड़ कर रही थी और वे बिन्नी के लाड़ को सहेज रहे थे.

फर्लांग भर के रास्ते में बिन्नी ने मीलों का सफर तय किया. उसने उन्हें छड़ी वापस कर दी थी पर वे वैसे ही उसके काँधे पर सिर टिकाए चलते रहे थे. उतरती हुई ढालुई राह उन्हें होम स्टे वाले कॉटेज तक ले आई. बिन्नी ने दूसरी चाय का आर्डर दिया. फूलों की पतली क्यारियों वाले ढालुएँ लॉन में बैठकर दोनों ने चाय पी.

यह एक ख़ुशनुमा सुबह थी. सामने खड़े वृक्षों के पार से आकर धूप के छोटे-छोटे पाखी लॉन में फुदक रहे थे. हवा जब-जब डालियों-पत्तों को हिलाती-डुलाती ये धूप के पाखी फुदक उठते. उन्हें सुनहले सिर वाली नीले रंग की थ्रश चिड़िया दिखी थी, ….ठीक सामने, …..काले द्राक्ष जैसे गोल-गोल झब्बेदार फलों वाले एक छोटे-से वृक्ष पर. अभी टुशी होती ख़ुश हो जाती….पता नहीं अब टुशी को यह सब कितना याद होगा! यह चिड़िया याद भी होगी या नहीं!

……..पाँच बरस बीत गए टुशी को देखे. गई, तब से एक बार भी नहीं लौटी. अब तो इस साल बाईसवाँ लगेगा उसका. यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के सांता बारबरा कैम्पस से उसने पिछले साल अर्थशास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएशन किया और इस साल शोध के लिए चुन ली गई है. पाँच साल पहले जब राधिका का बुलावा आया, टुशी दुविधा में थी, पर उन्होंने उसे दुविधा मुक्त कर दिया था. वह पापा को छोड़कर जाना नहीं चाहती थी. वे नहीं चाहते थे कि बाहर जाकर पढ़ने की अपनी सहज इच्छा को दबा कर टुशी यहाँ रहे. वे यह भी नहीं चाहते थे कि वह राधिका से दूर होती जाए और वे जीवन भर इस लांछन के साथ जीएँ कि उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए बेटी को उसकी माँ से काट कर अलग कर दिया…..उसके कैरियर को नष्ट किया. अजीब दिन थे वे, जब उन्होंने टुशी को विदा किया! ….वे जानते थे कि टुशी जब तक ख़ुदमुख़्तार नहीं हो जाती राधिका उसे मिलने-जुलने के लिए भी आने नहीं देगी …..पर उन्होंने टुशी को प्रसन्नता के साथ विदा किया. इस प्रसन्नता के गर्भ में जो हाहाकार छिपा था, उसे वे दबाए रहे. टुशी को इसकी भनक तक नहीं लगने दी. और टुशी? वह बच्ची ही तो थी. सोलह-सत्रह की उम्र भी भला कोई उम्र होती है! सपनों और उमंगों के पंख लगाकर इस डाल से उस डाल उड़ती हुई उम्र. हालाँकि टुशी के मन में कहीं बहुत गहरे अपने पापा के अकेलेपन और अवसाद की टीस और चिन्ताएँ थीं, पर….. वे जानते हैं कि ये टीस और चिन्ताएँ लगातार उसके भीतर बनी रहती हैं और उसे गाहे-ब-गाहे ज़्यादा परेशान करती हैं. जब उनका पाँव टूटा और उसे यह ख़बर मिली बेचैन हो गई थी. रो-रो कर कई दिनों तक उसने अपना बुरा हाल किये रखा. फोन करती और बिलख-बिलखकर बस एक ही रटन कि ‘पापा मुझे आना है आपके पास, …..पापा मुझे….‘ राधिका ने बस एक बार फोन किया था. उनका कुशल-छेम पूछने के लिए नहीं, …..यह कहने के लिए कि उन्हें टुशी को समझाना चाहिए कि अभी उसका जाना उसके कैरियर पर बुरा असर डालेगा, …..कि अगर उसकी तैयारियाँ ठीक से न हुईं तो रिसर्च के लिए स्कालरशिप नहीं मिल पायेगा और फिर अब तक की पढ़ाई का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा, …..कि उन्हें टुशी को…….उन्होंने टुशी को हर तरह से समझाया. डॉक्टर भटनागर से फोन पर बात करवाई. बिन्नी से भी. बिन्नी का मोबाइल नम्बर दिया कि वह जब चाहे सीधे उससे बात कर उनके बारे में सारी सच्ची जानकारियाँ ले सकती है. उन्होंने यह भी बताया टुशी को कि बिन्नी मेरी दोस्त है और जब तक मैं अपने पैरों से चलने-फिरने लायक़ नहीं हो जाता दिन-रात मेरी देखभाल करेगी…….पता नहीं टुशी ने कितना भरोसा किया…..कितना समझ सकी …..या कितना अपने मन को मार कर समझने का नाटक किया! यह आज भी उनके लिए रहस्य बना हुआ है. पर इन दिनों ख़ूब प्रसन्न रहती है टुशी. फ़ोन पर बातें करते हुए उसकी प्रसन्नता छलक-छलक पड़ती है. इन्टरनेट पर चैटिंग करते हुए तो लगता है, ……लैपटॉप से कूद कर बाहर आ जायेगी और गले में बाँहें डाल कर झूल जाएगी. वहाँ जाकर टुशी का रूप-रंग और निखर आया है. उसने राधिका से न रूप-रंग लिया है और न ही स्वभाव. हाँ, प्रतिभा ज़रूर ली है. बिन्नी से भी ख़ूब पटने लगी है उसकी. वह बिन्नी को पसंद करती है. पता नहीं क्या सोचती है बिन्नी के बारे में !

एक सुबह अकारण, यानी न वे नशे में थे और न ही फिसलन थी, वे वाशरुम में गिरे. और गिरे भी तो ऐसे कि अपने दाएँ पाँव की पिंडली की एक हड्डी तोड़ बैठे. उनके ड्राइवर और पड़ोसियों ने उन्हें लाद कर अस्पताल पहुँचाया. उसी शाम ऑपरेशन हुआ. आपरेशन के तीसरे दिन जब बिन्नी का फ़ोन आया, तो उसे मालूम हुआ. फिर तो बिन्नी ने सबकुछ टेकओवर कर लिया. दस दिनों तक, ज़ख़्म के टाँके सूखने और प्लास्टर होने तक वह रोज़ सुबह अस्पताल आ जाती और रात तक रुकती. प्लास्टर होने के बाद, जब वे घर गये, बिन्नी साथ थी. वहाँ भी यही रूटीन. वह रात को तभी निकलती, जब उनका ड्राइवर आ जाता. रात की देखभाल का जिम्मा उसी पर था. बिन्नी उन्हें एक पल के लिए भी छोड़ना नहीं चाह रही थी, पर वे इसके लिए तैयार नहीं थे कि वह रात में रुके. हालाँकि इस बीच उन्हें विवश होकर कई बार बिन्नी का रात में रुकना स्वीकार करना पड़ा. जिस दिन भी ड्राइवर ने औचक छुट्टी मार दी, बिन्नी रुकी. कई बार ऐसा भी हुआ कि ड्राइवर के होते हुए भी बिन्नी अपने घर नहीं गई और वे उसे जाने के लिए नहीं कह सके. प्लास्टर कटा. फिर फ़िज़ियोथेरॉपी शुरु हुई. फ़िज़ियोथेरापिस्ट को देखते ही उनकी रूह काँप जाती थी. बच्चों की मानिंद वे हर सम्भव कोशिश करते कि आज जान छूट जाए, ……..पर बिन्नी सामने आकर खड़ी हो जाती. वे बहाने करते और बिन्नी तर्क देती. साँप-सीढ़ी के खेल की तरह कई बार वे बिन्नी के प्रति कटु होने का नाट्य करते और जब उनकी एक न चलती, मिन्नतें करते. पर बिन्नी को डिगा पाना मुश्किल था ……..बिन्नी की दिनचर्या बरक़रार रही. देवदूत की तरह बिन्नी प्रकट ही नहीं हुई बल्कि, उनके जीवन में शामिल हो गई. वे संकोच करते रहे, पर बिन्नी ने कभी संकोच नहीं दिखाया. बिन्नी के सामने उनकी एक न चलती थी. डॉक्टर की सलाह पर अमल करने के मुआमले में वह बेहद कठोर थी. ज़रा भी छूट देने की हिमायती नहीं.

चाय ख़त्म हो चुकी थी. नाश्ता भी. बिन्नी भीतर थी. लैपटॉप पर अनुवाद का अपना काम निबटा रही थी. वह अपना काम अपने सिर पर लिये चलती है. जब तक डेड लाइन न आ जाए वह टालती रहती है. कहती है कि दबाव में ही वह बेहतर काम कर पाती है. वे गुमसुम बैठे थे, …..अपने भीतर के सान्द्र, ……निविड़ एकांत में डूबे हुए. वे वहाँ थे भी और नहीं भी थे. वे अपने एकांत में धीरे-धीरे घुलते हुए लोप हो जाते और फिर उसके भीतर डूबते-उतराते, ……..लिथड़ते, ………फिर से आकार लेते और प्रकट होते अपने होठों पर तिर्यक मुस्कान के साथ. धूप सीधी गिरने लगी थी. धूप उन्हें प्रिय लग रही थी, पर उन्हें बादलों की प्रतीक्षा थी. धुआँ-धुआँ से बादल, जिन्हें उन्होंने अपनी पिछली यात्रा में मुन्नार की घाटियों में अठखेलियाँ करते हुए देखा था.

दोपहर के भोजन के बाद वे नदी तट तक जाना चाहते थे और बिन्नी चाहती थी कि वे थोड़ा आराम कर लें. उनकी आकुलता देखकर बिन्नी ने ज़िद नहीं की. पूछा – ‘‘ आप अकेले जाएँगे या…….?‘‘

‘‘नहीं-नहीं तुम भी चलो. उस नदी को देखकर तुम सम्मोहित हो जाओगी……अनूठी है वह नदी…….पारदर्शी जल, …..तरह-तरह के आकारों-रंगों के पत्थरों से सजा हुआ तल, …..और झिर-झिर प्रवाह. जल-प्रवाह का ऐसा संगीत कि जादू की तरह बस जाए आत्मा में…..चलो तुम भी.‘‘

वे बिन्नी के साथ निकले, ……वही अपनी छोटी मूँठवाली काले रंग की छड़ी लिये. धीरे-धीरे ऊपर की ओर चढ़ते हुए उस कॉटेज के पास पहुँचे. उन्होंने ठिठक कर कॉटेज को भर आँख देखा. उनकी आँखों में कोई सपना तैर गया था. बिन्नी उन्हें एकटक निहार रही थी. उनकी आँखें नम हो रही थीं. वर्षों से संचित सपना छलकने-छलकने को आतुर हो रहा था. जैसे सावन-भादो के मेघ उनमत्त होकर उड़ेलते हैं जल पृथ्वी पर….वैसे ही उनमत्त दिख रही थीं उनकी आँखें. बिन्नी ने हौले से अपनी हथेली उनके काँधे पर रख दी. उनकी आँखों में अपने सम्पूर्ण वजूद के साथ उतरने की कोशिश की. बोली – ‘‘ नदी से मिलने नहीं चलना आपको ? ……चलिए.‘‘

फिर वही तीर्यक मुस्कान की रेख-सी खिंच गई उनके होठों पर. उन्होंने अपनी आँखें झुका लीं. बोले – ‘‘चलो…..जानती हो बिन्नी, ……मैं यह कॉटेज ख़रीदने वाला था. राधिका इसे खरीदना चाहती थी. गोपी ने कहा था कि वह लछमी इस्टेट वालों से बात करेगा. अगर वे लोग बेचने को तैयार न हुए तो लम्बे समय के लिए लीज पर तो लिया ही जा सकता है. फिलहाल इसका लीज मेरे नाम है ही. अगर राधिका चाहे तो इसे आगे उसके नाम ट्रांसफ़र करवाया जा सकता है. राधिका का चचेरा भाई था गोपी नायर. गोपी ने ही राधिका से मेरी मुलाक़ात करवाई थी.‘‘

वे धीरे-धीरे चलने लगे थे. थोड़ी दूर की चढ़ाई के बाद उस पार की ढलान शुरु होती थी. इसी ढलान के बीच से बहती थी वह नदी. बिन्नी उनसे सट कर चल रही थी. लगभग उनके काँधे पर झुकी हुई. इतनी क़रीब कि उसकी साँसें उनकी गरदन को, …….चेहरे को छू रही थीं. वे ऊपर चढ़ते हुए धीमी आवाज़ में बोल रहे थे – ‘‘…… मैं सोच ही रहा था कि इस कॉटेज के बारे में बात करुँ कि वह दुर्घटना हो गई और गोपी नहीं रहा. सड़क दुर्घटना में बहुत दर्दनाक़ मौत हुई थी उसकी ……. राधिका से पहली बार उसके घर ही मिला था मैं. सुनहले बार्डरवाली सफ़ेद मालबरी रेशमी साड़ी में बडी़-बड़ी आँखोंवाली साँवली राधिका से, ……वो जिसे पहली नज़र में प्यार हो जाना कहते हैं न, ……वैसा ही प्यार हो गया था मुझे……गोपी और मैं साथ-साथ काम ही नहीं करते थे, अच्छे दोस्त भी थे. मैं उसके यहाँ एक पारिवारिक आयोजन में शामिल होने गया था. राधिका कुछ ही दिनों पहले दिल्ली रहने आई थी. कोच्चि से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद उसने आईआईटी दिल्ली में एमटेक में दाखिला लिया था. वह डिजाइन की छात्रा थी…..उस शाम पूरे आयोजन में मेरी आँखें राधिका के पीछे-पीछे घूमती रही थीं. उसे मालूम हो गया था कि मेरी आँखें उसका पीछा कर रही हैं. उसने मेरी आँखों के रास्ते मेरे मन की आकुलता पढ़ ली थी. जैसे ही मुझसे उसकी आँखें मिलतीं, वह नज़रें झुका लेती और कुछ देर के लिए उस भीड़ में जाने कहाँ छिप जाती. मेरी बेचैनियों का मज़ा लेती रही थी वह.‘‘

वे अपनी रौ में थे. चढ़ाई ख़त्म हो चुकी थी. और दूसरी ओर की नीचे उतरती हुई ढ़लान शुरु हो रही थी. रपटीली ढ़लान, ……..दूब की चादर से ढँकी हुई. बिन्नी ढलान पर उतरते उनके पाँवों को लेकर सतर्क थी. उनकी देह के भार को अपने काँधे पर साझा कर रही थी……स्मृतियाँ, जो उनके एकांत में मौन दुबकी हुई थीं, ……….बाहर आने को आकुल थीं. वे चाहते थे रोकना. अपने को बंद रखना, पर मुन्नार की सिहरन भरी हवा की आँच उन्हें पिघला रही थी. ठंडी सिहरन भरी हवा की आँच गर्म लू के थपेड़ों की आँच से ज़्यादा ताक़तवर होती है. वह कॉटेज, वह घर, ……जिसके सम्मोहन में खिंचते हुए वे मुन्नार तक आए थे, अपनी जगह पर था. उसे कहीं नहीं जाना था, सो वह टिका हुआ था. जैसे पृथ्वी टिकी हुई है अपने अदृष्य अक्ष पर, वैसे ही उनकी स्मृतियों की अदृष्य आभा के अक्ष पर टिका था कॉटेज. बस उसमें रहनेवाला, उसमें नहीं था. वहाँ कोई और होता तो भी, …..वह खुला और लोगों की आवाजाही से भरा भी होता, तो भी उनके लिए वह सूनसान ही होता. नहीं रहना और नहीं रह पाना में बड़ा फ़र्क़ होता है. वह कॉटेज था पर वे राधिका और टुशी के साथ उस में नहीं रह पाए थे. और अब, जबकि एक तृशा, ……एक हाहाकार, …..एक नामालूम-सी व्यग्रता उन्हें खींच लाई थी, उनके भीतर बहुत कुछ बीत रहा था…….लोप हो रहा था. एक दीर्घ अवसान हो रहा था उनकी आत्मा के अतल में. वे बार-बार इस लोप होने को, …….बीतने को, …….इस अवसान को अपने मन की अदृश्य भुजाओं में भींचकर रोकना चाह रहे थे.

बिन्नी मुस्कुराई थी. कुछ देर तक उनकी अँगुलियाँ उसके रूखे हो चले बालों में घूमती रही थीं. वे समझ नहीं पा रहे थे कि वे बिन्नी को सींच रहे हैं या अपने भीतर पसरे बंजरपन को. फिर उन्होंने अपनी अँगुलियों से बिन्नी के होठों को छुआ था.

सामने नदी थी. नदी में जल न के बराबर था. लगभग सूखी हुई नदी. बीच-बीच में, ……कहीं-कहीं, ……..छिट-फुट जल के छिछले चहबच्चे थे. नदी तल में बिछे पत्थर के निरावृत टुकड़े. निस्तेज. धूमिल. जल ही तो था जो उन्हें सींचता, ……जिसका प्रवाह उन्हें माँजकर चमकाता, …….आकार देता और आपने साथ लाये खनिजों से उन्हें रँगता, ……आभा देता. जल की थाप से ही मृदंग की तरह बोलते थे ये पत्थर और लहरें अपने प्रवाह से इन्हें तारवाद्य की तरह झंकृत करतीं थीं. अब जल नहीं था.

उन्हें काठ मार गया था. उनके पाँव थरथरा रहे थे. उनकी देह को सँभाल पाना अब काले रंग की छोटी-सी मूँठ वाली छड़ी के वश में नहीं था. उनकी देह का लगभग पूरा भार बिन्नी के काँधे पर था. अपनी देह की सारी शक्ति संचित कर बिन्नी उन्हें तब तक सँभाले रही थी, जब तक वे धीरे-धीरे ज़मीन पर बैठ नहीं गए थे. वे नदी को निर्निमेश निहार रहे थे. बिन्नी उनके पास थी. रेत के बगूलों के बीच फँस जाने पर पशु-पक्षी जैसे अपने शिशुओं को छाप लेते हैं धूल-धक्कड़ और तेज़ हवा से बचाने के लिए, वैसे ही खड़ी थी बिन्नी उनकी पीठ पर. कभी उन्हें देखती, तो कभी नदी को, …….और कभी पीछे मुड़कर उस चढ़ाई का अंदाज़ा करती, जिससे उतरते हुए यहाँ तक आए थे वे. पानी की बोतल साथ नहीं थी. बिन्नी को मालूम था कि उन्हें प्यास महसूस हो रही होगी. पर अब किया क्या जा सकता था! कुछ नहीं. धीरे-धीरे उनकी साँसें पुरानी लय में लौटने लगी थीं. बिन्नी उनसे मुन्नार, इस कॉटेज, इस नदी के बारे में पहले ही इतना कुछ सुनती रही थी कि उसके लिए कुछ भी अपरिचित नहीं था. वह नदी तट तक गई. उसने कुछ छोटे-छोटे पत्थरों को चुना और उनके सामने लाकर रख दिया. वे पहले तो उन्हें देखते रहे ….फिर छुआ. बिन्नी की ओर देखा. बिन्नी फिर भागती हुई नदी तट तक गई और अपने गले में लिपटे स्टोल में ढेर सारे छोटे पत्थरों को बटोर लाई. उसने देखा, वे घर बनाने की कोशिश कर रहे थे. पहले उन्होंने घर बनाया. फिर चिड़िया, …….और फिर फूल.

वे बड़ी देर तक दूब से पटी ढलान पर नन्हें-नन्हें पत्थरों से बनी आकृतियों को निहारते रहे थेे. अजीब दिख रहे थे वे. वे सोच रहे थे कि अगर उन्होंने अपने अतीत को भुला दिया तो क्या यह अब तक के जीवन की आहुति नहीं होगी! ……..मिथकों और पुराकथाओं की तरह क्या उनके वर्तमान में गर्द-ओ-गुबार की तरह बहुत कुछ अयाचित नहीं घुस आएगा! ऐसा अतीत विहीन घातक वर्तमान क्या वे जी सकेंगे! किंबदंतियों की तरह यह जीना क्या उनकी आत्मा के पटल पर अपमान की नई लिखावटें दर्ज़ नहीं करता जायेगा! अपनी चित्तवृति से से युद्ध करते हुए दैन्य, दुविधा और निग्रह, ….सब था उनके चेहरे पर. वे अपने जीवन के, ……अतीत के, तथ्यों के स्वीकार-अस्वीकार के युद्ध में उलझे हुए थे. कुछ देर तक यूँ ही बैठे रहे वे. थ्रश चिड़ियों का एक झुंड नदी तट पर आया. वे सब फुदकते हुए नदी तल में एक छोटे चहबच्चे के किनारे तक पहुँचीं. वे चिड़ियों का जल-किलोल निहारते रहे. चिड़ियों का झुंड उड़ा. फिर वे अचानक बिन्नी से बोले – ‘‘चलो…..‘‘

बिन्नी ने अपने दोनों हाथ बढ़ा दिए. वे खड़े हुए. बिन्नी ने नीचे से छड़ी उठाकर दी. उन्होंने दाएँ हाथ में छड़ी ली. बायाँ हाथ बिन्नी के काँधे पर रखा और चलने लगे. बिन्नी ने अपना दायाँ हाथ पीछे किया और धीरे-धीरे उनकी कमर को सोमलता की तरह लपेट लिया.

वे अपेक्षाकृत तेज़ी से ढलान चढ़ रहे थे…….बहुत लम्बी नहीं चली थी उनकी प्रेम कहानी. पहली मुलाक़ात के तीसरे दिन ही वे राधिका से मिले और यह मिलने-जुलने का सिलसिला पाँच महीनों तक चलता रहा. छठवें महीने उन्होंने एक सादे और पारिवारिक आयोजन में राधिका से विवाह कर लिया था. उनके कुछ दोस्तों के सिवा ज़्यादातर गोपी और राधिका के परिवार के लोग ही थे. उनका अपना कोई घरवाला या रिश्तेदार नहीं था. माँ-पिता, जब वे अबोध थे, तभी गुज़र चुके थे. बड़े पिताजी ने पाला-पोसा. ज़िन्दगी आकार ले ही रही थी कि वे भी चल बसे और उनके बेटों ने सम्पत्ति की लालच में ऐसा आतंक मचाया कि उन्होंने विरक्त मन सबकुछ छोड़कर अपने शहर से ही नाता तोड़ लिया……बीच की कथा दुःखों और संघर्ष की अनंत कथा है. दिल्ली पहुँचकर वो सब किया जो ऐसे हालातों में जीवित रहने तथा अपनी निर्मिति के लिए एक आदमी कर सकता है। पर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया जो पश्चाताप का कारण बने. प्रतिभा के बल पर हमेशा अव्वल रहे और सबकुछ बनता गया. बड़ी कम्पनी की ऊँची नौकरी, ……दोस्तों से भरा एक संसार, …….अपना घर, ……गाड़ी और एक उछाह भरा व्यस्त जीवन. विवाह के बाद जीवन उन्हें ज़्यादा सुन्दर और आश्वस्तकारी लगने लगा था. साल भर के भीतर ही टुशी आ गई. जब टुशी ढाई-तीन की रही होगी वे राधिका के साथ मुन्नार आए थे.

जब टुशी दस की हुई राधिका पोस्ट-डॉक्टरल रिसर्च के लिए स्कॉलरशिप पर स्टैनफ़ोर्ड चली गई. तब से टुशी के यूएस जाने तक वे टुशी के पापा और माँ दोनो रहे. दोस्त तो थे ही उसके बचपन से. माँ बनकर टुशी को पालते हुए उन्होंने जीवन को नए सिरे से जाना-पहचाना. स्त्री-जीवन के अनन्त दुखों के सूत्र उनके हाथ लगे. उनकी आत्मा की धरती पर कई नए हरे-भरे प्रदेश रचे-बसे. यह माँ वाला कायांतरण ही उनके जीवन की फाँस बन गया. सात साल तक कोई पिता अपनी बेटी को माँ बनकर पाले-पोसे और…….. हालाँकि इन सात सालों में दो बार आई राधिका. रिसर्च के बाद वहीं दो सालों तक बतौर रिसर्च लीडर एक प्रॉजेक्ट में रही. इसके बाद वहीं स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ डिज़ाइन में पढ़ाने लगी. शुरु में उन्होंने राधिका की वापसी के लिए बहुत कोशिशें की. उससे मिन्नतें की, …..टुशी का हवाला दिया, पर…….टुशी के जाने के बाद उन्होंने राधिका से उसकी वापसी के बारे में कोई सम्वाद नहीं किया था. कई सालों बाद उन्होंने उस दिन राधिका की आवाज़ सुनी थी, जब उसने इस बात के लिए फ़ोन किया था कि वे टुशी को समझाएँ कि टुशी उनके पास जाने की ज़िद न करे …….ज़िन्दगी सहल नहीं रह गई थी. वे बसते-बसते उजड़ गए थे. उनकी देह और उनके मन, दोनों का छन्द भंग हो रहा था …….और वे थे कि बार-बार भंग हो रहे छन्दों के सहारे जीवन की लय पकड़ने में लगे थे.

वे जोसेफ होम स्टे के सामने वाले हिस्से के लॉन में गार्डेन चेयर पर बैठे बिन्नी के साथ चाय पी रहे थे. यह हिस्सा ख़ाली ही था. बिन्नी मौन थी. वातावरण में अदृश्य काँपते मौन के स्पन्दन को वह अपनी देह और आत्मा की त्वचा पर महसूस कर रही थी. बिन्नी मौन के इस गुंजलक से उन्हें बाहर निकालना चाह रही थी. और चाह रही थी ख़ुद भी इससे बाहर निकल कर अपने फेफड़े में प्राणवायु भरना. वह इस गुंजलक के दुर्निवार कपाटों को खोज कर उन्हें खोल देना चाहती थी ताकि उन तक भी प्राणवायु पहुँच सके. अपने विशाल डैने फैलाए ग्रे हार्न बिल वापस अपने बसेरों की ओर जा रहे थे. अपने चौड़े ताक़तवर डैनों की धारदार गति से हवा को काटते. सरसर की अजीब-सी रहस्यमय ध्वनि के साथ वे आगे निकल गए. वे उस सेमल को पार करते हुए आ रहे थे, जो कॉटेज के सामने था. अब उस सेमल पर इनका बसेरा नहीं था.

दिन सिमट रहा था. अब साँझ का झिटपुटा घिरने लगा था. रोज़ तीसरे पहर बरसने वाले बादल आज जाने कहाँ आवारगी करते रहे! अपनी तिपहरी कहीं और बिताकर अब पहुँचने लगे थे. उनके आने की आहट से साँझ का अहसास तेजी से घना हो रहा था. देखते-देखते धुआँ-धुआँ बादलों से पूरी घाटी भर गई.  कुछ वृक्षों के शिखर पर जा बैठे, ……कुछ घाटी में तैरने लगे. एक मेघ-समूह कॉटेज के बरामदे में घुसकर जाने क्या तलाश रहा था! उनके होठों पर मुस्कान तिर गई. उन्होंने बिन्नी की ओर देखा और अपनी आँखों से बादलों की ओर संकेत किया. बिन्नी ने बादलों की ओर देखा था और फिर उनके प्रसन्न चेहरे की ओर देखने लगी थी. उसे मालूम था कि वे सुबह से इन बादलों की प्रतीक्षा में थे. यहाँ आने से पहले वे यहाँ की मेघलीलाओं का वर्णन करते रहे थे. बिन्नी बोली – ‘‘ चलिए बरामदे में…अब लगता है वर्षा शुरु होगी.‘‘

‘‘हूँऊँऊँ….!‘‘ एक अह्लाद भरी हुँकारी भरते हुए वे उठे. बिन्नी के साथ बरामदे में पहुँचे. उनको आता देख बादलों ने बरामदा ख़ाली कर दिया था. वे बरामदे में रखी बेंत की कुर्सी पर बैठ गए. बिन्नी ने बरामदे की बत्ती का स्विच ऑन किया. हल्की रोशनी वाला बल्ब दीप्त हुआ……..बहुत कुछ ऐसा था उनके पास, जिससे वे मुक्त हो सकते थे. बहुत सारी स्मृतिया, ………बहुत सारे सुख-दुःख, जिनका बोझ वे अपनी आत्मा पर लादे ढो रहे थे और बहुत-सी आदतें, जिन्हें वह सहलाते हुए पाले-पोसे हुए थे ……और बहुत सारी घ्वनियाँ और दृश्य, जिन्हें वह अपनी आँखों में भरकर जी रहे थे, उनसे मुक्ति सम्भव थी. पर वे मुक्त नहीं होना चाहते थे. एक दुर्दम हठ. वे सहज घट जाने वाले पल को अघट बनाने की पर ज़िद पर तुले हुए थे. वे दुर्निवार पलों के सामने अपनी छाती तानकर खड़े थे. वे अमुक्त जीना चाहते थे, यह जानते हुए भी कि अमुक्त नहीं जी सकते. बिना मुक्त हुए, सब धू-धू कर जल उठेगा इन लहराती हुई अग्निपताकाओं की लपटों की आँच में. भस्म हो जायेगा सब कुछ. ये जो, …….कुछ बहुमुँहे घाव, ……कुछ बंद मुँहवाले और कुछ खुले मुँहवाले घाव टीस रहे हैं, इनकी टीस और बढ़ जाएगी. हर पल सजग और सचेत रहते हुए, ……गरदन की नसों पर अतीत, वर्तमान और भविष्य के अँगूठों का दाब सहते हुए जीने का हठयोग कर रहे थे वे.

रात थी. देर से आनेवाले मेघ जमे हुए थे और झमाझम बरस रहे थे. हवा भी थी. झोंकों-झपेड़ों के साथ जंगल में वर्तुलाकार भाँवर काटती हवा. धरती और आकाश के बीच लम्बवत् वलय बनाती हुई हवा. घाटी की तलहटी से ऊपर उठकर पहाड़ों के शिखर को छूती और शिखर छू कर नीचे तलहटी तक उतरती…..नाचती…..जलबूँदों से खेलती हवा…….. यह हवा उनको उड़ाए लिये जा रही थी. सामने बिन्नी थी. हल्के नीले रंग की कुर्ती और पेशावरी पाजामा पहने बिस्तर पर लेटी हुई.

……बिन्नी उन्हें फेसबुक पर मिली थी. उसने ही फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजा था. फिर लगभग तीन-चार दिनों की चैटिंग के बाद उसने मिलने की इच्छा प्रकट की थी. पहली बार उससे मिलने जाते हुए वे असहज थे. उनके भीतर डर की एक लकीर लहरा उठी थी. वे दोनों एक कॉफी शॉप में मिले थे. पहली मुलाक़ात में बिन्नी ने उनसे बहुत कुछ पूछ लिया था. मसलन, ….उनके घर-परिवार के बारे में, ……कुछ अतीत और कुछ वर्तमान के बारे में.  बिन्नी उन्हें सहज और समझदार लगी थी. गम्भीर भी. और सुन्दर तो वह थी ही. गोरी-चिट्टी, …..तीखे नाक-नक्ष और साँचे में ढली देह वाली. इसके बाद उनकी बिन्नी से ऐसी ही चार-पाँच मुलाक़ातें हुईं. कभी किसी रेस्तराँ में, …….तो कभी किसी कॉफी शॉप में. एक बार उन्होंने साथ-साथ श्रीराम सेन्टर में नाटक भी देखा. अक्सर सुनसान रहने वाली उस अर्द्धचन्द्राकार नीम-अँधेरी सड़क पर पैदल चलते हुए वे बिन्नी के साथ मंडी हाउस मेट्रो स्टेशन तक आए थे. साथ-साथ पैदल चलते हुए बिन्नी उनसे सट कर चल रही थी. उन्हें पता तक नहीं चला कि कब वह उनके काँधे पर झुक आई, ……..कब उसने अपना सिर टिका दिया, ……..और कब उसकी बाँहें उनकी कमर से लिपट गईं. जब सिकन्दरा रोड का किनारा आया, बिन्नी ने अलग होते हुए कहा था – ‘‘यह सड़क मुझे बहुत प्रिय है. जाड़ों में इस सुनसान सड़क पर मैं अक्सरहाँ अपने सुख-दुःख को उधेड़ती-बुनती हुई कई फेरे लगाती हूँ‘‘

अगले सप्ताह वे बिन्नी के घर थे. बिन्नी ने उन्हें खाने पर बुलाया था. मदनगीर में चौबीस नम्बर की सँकरी-सी गली के एक मकान के तीसरे तल्ले पर दो कमरों के चारों तरफ़ से बन्द दमघोंटू फ्लैट में पहुँच कर जिस सच से उनका सामना हुआ, वह अकल्पनीय तो नहीं, पर विस्मित करने वाला ज़रूर था. बिन्नी के किचन से आ रही मसालों की ख़ुशबू में पूरा घर आप्लावित था. दो कमरे थे. एक में क़िताबों के कुछ बँधे, …….कुछ अधखुले बंडल, दो बड़े बैग, …..और भी कुछ सामान जैसे-तैसे ठुँसे हुए थे. दूसरे में एक गद्दा ज़मीन पर बिछा था. गद्दे पर सफ़ेद चादर थी हल्के बैंगनी रंग के छोटे-छोटे आर्किड के फूलों की छाप वाली. बिन्नी का खुला हुआ लैपटाप, …….कुछ क़िताबें, जिनमें खुले हुए पन्नों वाली एक अँग्रेज़ी की क़िताब, …..एक नेलकटर, …..एक मॉइस्चराइज़र ट्युब, …….एस्प्रिन टैबलेट्स का एक रैपर, ….सब बिस्तर पर ही पड़ा था. एक स्टील का आलमीरा भी कमरे में था, जिसके एक पल्ले में शीशा लगा हुआ था. बिन्नी ने सकुचाते पूछा था – ‘‘ आपको नीचे बैठने में दिक्क़त तो नहीं होगी?‘‘

उन्होंने तेजी के साथ अपने भीतर उभरते कुछ पुराने दृश्यों को नियंत्रित किया था. चेहरे पर किसी कुशल अभिनेता की तरह इत्मिनान का भाव लाते हुए मुस्कुरा कर बिन्नी की ओर देखा था……वे दीवार से पीठ टिकाए गद्दे पर बैठे थे और सामने खड़ी बिन्नी बोल रही थी – ‘‘ अभी हफ्ता भर पहले ही इस घर में शिफ्ट हुई हूँ. सब इधर-उधर बिखरा पड़ा है. बस किचन को किसी तरह ठीक-ठाक कर सकी हूँ कि खाना बन जाए. वैसे भी कुर्सियाँ हैं भी नहीं. सोच रही हूँ चार प्लास्टिक की कुर्सियाँ, एक टेबल…और एक फोल्डिंग कॉट ले लूँ …… आप बस पाँच मिनट दीजिए, …..चिकेन तैयार है, ……गरम-गरम रोटियाँ सेंक लूँ, …फिर …… आप रोटियाँ लेंगे या चावल बना दूँ? ……या पराठें?’’

‘‘नहीं-नहीं, ……..रोटियाँ ही ठीक रहेंगी. चिकेन के मसालों की ख़ुशबू से भूख इतनी तेज़ हो गई है कि पानी आ रहा है मुँह में. जल्दी करो…’’ उन्होंने हँसते हुए कहा था.

‘‘ नवाबों के शहर लखनऊ की हूँ. लखनऊ के लोग नानवेज के स्पेशलिस्ट होते हैं…हर फैमिली की अपनी रेसिपी होती है…बस दो मिनट.‘‘ बिन्नी किचन की ओर भागी थी.

उन्होंने ख़ूब सराह-सराह कर खाना खाया था और वहीं उस नीचे बिछे हुए गद्दे पर लेटे हुए आराम कर रहे थे. बिन्नी उनकी बगल में दीवार से पीठ टिकाए बैठी थी, उनकी एक हथेली को अपने बाएँ हाथ की हथेली में लेकर दाएँ हाथ से सहला रही थी. कभी तलहथी, तो कभी अँगुलियों को सहलाती हुई बोल रही थी बिन्नी – ‘‘………पिछले दो-तीन महीनों से तनाव में थी. जीवन नर्क हो गया था, पर मैं नर्क का दरवाज़ा तोड़कर भाग निकली…..हम दोनों तीन साल से लिव-इन रिलेशन में रह रहे थे. मैं नहीं गई थी उसके पास रहने. तुहिन ही आया था मेरे पास. हालाँकि उस समय इस बात से क्या फ़र्क़ पड़ता था कि कौन किसके पास रहने गया! ……..या अब भी, अश्लील होकर अतीत बन चुके इस सम्बन्ध की कथा में इस बात का कोई अर्थ नहीं कि मैं उसके पास रहने गई या वह मेरे पास आया. मैं उन दिनों अच्छी नौकरी कर रही थी. चालीस हज़ार तनख़्वाह थी मेरी. मैं जी.के. के पम्पोश में रहती थी. कुछ ही महीनों बाद जब उसकी नौकरी लगी, उसकी सलाह पर मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी और घर से ही अनुवाद का काम करने लगी. तुहिन के प्यार में बौरा गई थी मैं. एक लाख से ऊपर तनख़्वाह थी उसकी. लगभग छोड़ी हुई नौकरी के वेतन के करीब-करीब मैं भी अनुवाद से कमा लेती. जीतोड़ मेहनत करती और उसकी देखरेख भी. मेरी कमाई से घर चलता और उसकी तनख़्वाह से नई ख़रीदी गई कार के लोन की किश्त का भुगतान होता और बाक़ी जल्दी ही फ्लैट ख़रीदने के लिए जमा हो रहा था. वह रूठता और मैं उसे मनाती. मैं रूठती और फिर अपने रूठने से, अपने ही परेशान हो जाती. मुझे लगता, मैं रूठकर उसे तनाव दे रही हूँ, सो ख़ुद ही मान जाती और अपराधबोध से भर कर उससे वायदा करती कि अब नहीं होगा ऐसा……अब सोचती हूँ अपनी मूर्खताओं पर तो हँसी आती है मुझे……कुछ महीनों पहले मेरा माथा तब ठनका, जब वह अकारण मुझसे खीझने और ऊबने लगा था. जिन बातों और अदाओं पर वह फिदा रहता था, वे बातें और वे ही अदाएँ उसे चिढ़ाने लगी थीं. मेरी नंगी देह काँपती रह जाती और वह……! कल तक जो दीवानों की तरह मेरे पीछे-पीछे डोल रहा था, …….जो रात-रात भर जागता और आटे की लोई की तरह मेरी देह को गूँधता, वह मुँह चुराए फिर रहा था …….और एक दिन उसने रहस्य खोला कि ………उसे अपने ऑफिस की एक लड़की से प्यार हो गया है. वह उसके साथ काम करती है……कि वह उससे शादी करना चाहता है……पर वह मुझे भी प्यार करता है और मेरे बिना जी नहीं सकता …..कि अगर मैंने उसे छोड़ दिया तो वह उस लड़की के साथ सामान्य जीवन नहीं जी पाएगा…….मैं सुनती रही पहले. फिर रोई ……..चीख़ी-चिल्लाई ………दो दिनों तक खाना नहीं खाया. पहली बार तुहिन ने दो दिनों बाद मुझे मनाया. मैं मान गई. आप सोच सकते हैं कि दो दिनों तक भूखी रह कर मैंने कितनी बड़ी मूर्खता की थी. यह मान जाना तुहिन को स्वीकारना नहीं बल्कि, अपनी मूर्खता से वापसी थी मेरी. इस बीच तुहिन हाथ-पाँव जोड़ता रहा. एक बार जाने किन कमज़ोर पलों में मैंने तुहिन को अपने पास आने दिया था और उसके बाद मुझे अपनी ही देह से घिन आने लगी थी. मुझे सेक्स बहुत प्रिय है, पर वह बलात्कार था. पर क्या करती मैं? ख़ुद ही तो बलात्कार के लिए तैयार हो गई थी. बहुत मुश्किलों से उबर सकी थी मैं. तुहिन मेरे निकट आने की हर सम्भव कोशिशें करता. पर मैंने उसे इसके बाद अपनी अँगुली तक नहीं छूने दी……मैं अब और सहने को तैयार नहीं थी……वह चाहता था, उस लड़की से शादी करना, जो उससे उम्र में कुछ छोटी थी और उसके बराबर कमा रही थी. ……..वह चाहता था कि मैं भी उसके जीवन में प्रेमिका की तरह उपस्थित रहूँ……वह चाहता था कि मैं उसे शादी के लिए अनुमति दे दूँ और उसकी रखैल बन कर रहूँ. जिस रात तुहिन ने यह प्रस्ताव दिया उसके दूसरे दिन मैं किराए का मकान लेने निकली. एक दोस्त ने मदद की और मकान उसी शाम मिल गया. दूसरे दिन अपनी क़िताबें सहेजती रही. और तीसरे दिन अपनी क़िताबों और कपड़ों के साथ यहाँ आ गई. अपना सारा सामान वहीं छोड़ आई मैं. मैं चाहती तो उसे कह सकती थी कि वह पम्पोश वाला फ्लैट छोड़कर चला जाए, पर…….पीछे-पीछे वह आया था भागते हुए. दूसरे दिन यह गद्दा ………गैस का चूल्हा ………कुछ बर्तन लेकर मेरी अनुपस्थिति में आया और नीचे मकान मालिक के पास रख गया. अब इसे कहाँ फेंकती ! मकान मालिक संदेह करता…..बहुत थक गई थी. लगातार बिना सोए …….अपने-आप से जूझते-लड़ते हुए भी तो थकान होती ही है. इस घर में जब से आई हूँ ख़ूब सो रही हूँ. जाने कैसे इतनी नींद लिये इतने दिनों से जी रही थी! सोचती हूँ लखनऊ हो आऊँ. अम्मा-पापा से मिले दो साल बीत गए. दोनों नाराज़ हैं. तुहिन के साथ मेरे लिव-इन रिलेशन को वे किसी क़ीमत पर स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए थे और उन लोगों ने मुझसे अपने रिश्ते तोड़ लिये. पापा से मिलने को जी छटपटा रहा है. वे बीमार चल रहे हैं. मेरी दोनों छोटी बहनों की इस बीच शादियाँ हो चुकी हैं. जल्दी ही जाऊँगी लखनऊ. यह मकान भी बदलूँगी. अगले दो-तीन महीनों में व्यवस्थित हो जायेगा सब. आज पहली बार मेरे किचन में खाना बना है. सोचा, आपके साथ अपनी नई गृहस्थी का पहला भोजन शेयर करूँ ……सो रात ही आपको कहा था मैंने कि आप मेरे साथ खाना खाएँगे……..आपको अजीब लग रहा है न यह सब सुन कर? ’’

अपने सवाल के जवाब का इंतज़ार किए बिना बिन्नी ने उनकी हथेली को अपने चेहरे से सटा लिया था. बिन्नी ने जब बोलना शुरु किया था, वे लेटे हुए थे और बिन्नी बैठी थी. पर जब उसने अपनी बात के अंत में सवाल किया वे बैठे हुए थे और उनकी गोद में सिर रखे बिन्नी लेटी हुई थी. उनकी मुद्राएँ कब बदल गईं, उन्हें भी पता नहीं चला.

वे ग़ौर से बिन्नी को निहार रहे थे. हौले-हौले उनकी आँखें बिन्नी के चेहरे पर टहल रही थीं. उदासियों के घने कोहरे में डूबा हुआ था बिन्नी का चेहरा.

‘‘उदासियों का भी अपना वसंत होता है‘‘ धीमे स्वर में कहा था उन्होंने और बिन्नी की उदास आँखों में उनकी आँखें बहुत गहरे तक उतर गई थीं. बिन्नी ने अपनी आँखें हौले से बंद कर ली थीं.

उनकी एक हथेली बिन्नी का सिर सहला रही थी. अँगुलियाँ उसके बालों में उलझ रही थीं. दूसरी हथेली बिन्नी के हाथ में थी. वह बोली -‘‘आपकी अँगुलियाँ बहुत लम्बी और नाज़ुक हैं‘‘

वे मुस्कुराते हुए उसे चुपचाप निहारते रहे थे. बिन्नी ने फिर कहा था -‘‘ आपको मालूम है…आपकी अँगुलियों में जादू है…?‘‘

बिन्नी की उदासियों का गझिन कोहरा कुछ झीना हुआ. उन्होंने कहा था -‘‘तुम्हारी प्रशंसा से मैं आत्ममुग्ध नहीं होनेवाला.‘‘

बिन्नी मुस्कुराई थी. कुछ देर तक उनकी अँगुलियाँ उसके रूखे हो चले बालों में घूमती रही थीं. वे समझ नहीं पा रहे थे कि वे बिन्नी को सींच रहे हैं या अपने भीतर पसरे बंजरपन को. फिर उन्होंने अपनी अँगुलियों से बिन्नी के होठों को छुआ था.

……….वे बिन्नी को निहार रहे थे. गरज-बरस कर थम चुके थे मेघ. कमरे में हल्की रोशनी थी. हल्के नीले रंग की कुर्ती और पेशावरी पाजामे में सोई बिन्नी के होठ नींद में लरज़ रहे थे. उन्होंने अपनी अँगुली से उसके होठों को छुआ. उनके छूते ही और ज़ोर से लरज़े उसके होठ. उन्होंने अँगुली से ही होठों को सहलाया. नींद में ही कुनमुनाई थी बिन्नी और उसकी आँखें खुल गई थीं.

करवट सोई बिन्नी पीठ के बल हो गई. उसने आँखें बन्द कर ली थीं. वे उसके चेहरे पर झुक रहे थे. उनकी उष्म साँसों की छुवन से बिन्नी के चेहरे की त्वचा का रंग बदलने लगा था. चेहरे की गोराई में ईंगुर की लालिमा घुलने लगी थी. उसकी त्वचा से छनकर उसके मन का अंतरंग झिलमिल कर रहा था…..बिन्नी के होठों की पंखुड़ियों पर चिराग़ जल उठा. उर्ध्व उठती, ……काँपती, ….लपलपाती लौ. बिन्नी की दोनों बाँहें ऊपर उठीं और वे उसके पाश में बँध गए थे………बिन्नी की निरावृत देह को जहाँ-जहाँ उनके होठों ने छुआ, ……असंख्य दीप-शिखाएँ झिलमिला उठीं. उसके मदिर रोमहास में वे सुधबुध खो रहे थे. उसके रुधिर का संगीत उसकी शिराओं में गूँज रहा था. बिन्नी की आत्मा के अतल में बतास फूट रहा था और वे ग्रे हार्न बिल की तरह अपने डैने फैलाए परवाज़ भर रहे थे……..कि अचानक चुनचुन करती एक थ्रश चिड़िया घुस आई उस कमरे में. पीले रंग की समीज़ और नीले रंग की सलवार पहने ‘‘पापा……पापा‘‘ पुकारती टुशी की छाया उनकी आँखों के सामने लरज़ी और लोप हो गई. पंख कटे ग्रे हार्न बिल की तरह गिरे वे………बिन्नी की मुँदी हुई आँखें, मुँदी रहीं ……बहुत देर तक. उसे दिन में देखी हुई ढलान वाली वह नदी याद आई……जिसकी जलधारा सूख गई थी.

रात असहज कटी, …..दोनों की. आकुलता थी, पर आर्त्तनाद नहीं था. न बिन्नी के अतल में और न उनके. सप्तम स्वर में बजते शंखध्वनि-सी शून्य में जाकर अँटकी हुई जिस चीख़ को साथ लिये वे जी रहे थे, वो चीख़ घुल गई थी, …….या नीचे कहीं गिर कर धूल-माटी में मिल गई थी, ……या फिर विवशताओं की किसी ऊँची भीत पर जाकर बैठ गई थी! दो अबोले आख्यान एक साथ गूँजते रहे सारी रात उस कमरे में. दुखते, टीसते, कराहते, छटपटाते हुए कई-कई आभाओं और गतियों वाले क्षण आते-जाते, ….कभी ठिठकते और कभी विराम करते रहे थे रात भर. अपनी आत्मा में अग्निपताकाओं का आरोहण उन्होंने स्वयं ही किया था और अब अपने ही हाथों अवरोहण कर रहे थे. इन अग्निपताकाओं में कुछ उभरे हुए, …….कुछ छिपे हुए आत्मा के घाव-सा जो बहुत कुछ लहरा रहा था वो सब अपनी टीस और मवाद के साथ दब गया था.

अगम था सब कुछ उनके लिए……और बिन्नी के लिए ? बिन्नी के लिए कुछ भी अगम नहीं था. वह उनकी तरह अँधियारे में नहीं भटक रही थी. अँधेरा था ज़रूर, पर बिन्नी उसे पहचान रही थी. वह राख-माटी के बगूलों के बीच अपने लिए राह बनाकर निकलना सीख गई थी इन कुछ ही महीनों में. उसे उस गंध की तलाश थी, जो उसकी प्राणवायु से निःसृत होती और उनकी प्राणवायु से टकरा कर नई गंध में ढलती, पर……..

वे कमरे से बाहर जाकर लिविंग रूम में बैठे थे. मौन. उनका चेहरा कुछ उबड़खाबड़ हो गया था. आँखों के नीचे हल्की स्याही छा गई थी. ठुड्डी और गाल की हड्डी कुछ उभर आई थी. अपने ही जीवन के रहस्यों के गुंजलक को काटकर बाहर निकलने की कोशिशों में वे लोप हो गए थे और वहाँ होते हुए भी नहीं थे. उनके चारों ओर पसरा था एक वीरान, …हू-हू करता उजाड़ बंजर.

बिन्नी उनके पास आई. उन्होंने उसकी ओर निमिश भर को देखा.  बिन्नी बहुत पास आकर खड़ी हुई, …..लगभग उनसे सट कर. वे बैठे रहे. बिन्नी बोली – ‘‘सर, आपने ही कहा था, …..उदासियों का भी अपना वसंत होता है ……क्या हम दोनों इस वसंत को नहीं जी सकते?’’

वे फफक उठे, …….जैसे कोई वाण महावेग से चलते हुए आकर पृथ्वी से टकराया हो और जल की अनगिन धाराएँ फूट पड़ी हों. धनुही की तरह उनपर झुक आई थी बिन्नी की देह और उन्होंने सहारे के लिए अपनी बाँहों से उसकी कमर को बाँध लिया था……..वे रो रहे थे. उनकी आँखें धरासार बरस रही थीं और बिन्नी उनका सिर सहला रही थी.

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हृषिकेश सुलभ चर्चित कहानीकार-नाटककार हैं.
उनसे hrishikesh.sulabh@gmail.com पर बात की जा सकती है.

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