कविताएँ ::
अमर दलपुरा

रास्ते में मिल गया था

हमने नहीं कहा था अलविदा
हम अलग हो चुके थे एक-दूसरे के जीवन से
हम खो चुके थे धूल कणों की तरह
हम नहीं बता पाए
समाज और पिताओं को
एक-दूसरे के साथ रहने का एक भी कारण

कितने रास्ते अलग किए हमने
कितनी बार सोचा कि हम नहीं मिलेंगे

एक दिन मिल गए जीवन में
तुमने कहा कि ये घर है
खाट पर बैठाया
खाना खिलाया
और उसे भी बताया
कि मेरे गाँव का लड़का है
रास्ते में मिल गया था।

पता न होगा

पता नहीं
किस दुःख के लिए हम रोएंगे
किस दुःख में
हो जाएंगे उदास

पता नहीं
कौन सी खुशी में
आँखें छलक जायेंगी
कब आत्मा का दुःख
शरीर पर दिख जायेगा।

हरे दिनों की याद
अब याद नहीं होगी
हम पीड़ाओं में
एक- दूसरे की असमानताओं को ढूँढेंगे
दुखों को अलग-अलग कर देंगे

अन्तिम बार हँसने की बेबस कोशिश भी
हमें रुला देगी
कब खुद के हाथों से आँसू पोंछकर
चुप हो लेंगे

हम चले जायेंगे
तर्कों की उस दुनिया में
जहाँ सवाल होंगे
जवाब नहीं।

लौट आया

जीत के लिए
टीम को एक रन चाहिए था
मैं शून्य पर आउट हो गया
लौट आया पैवेलियन की तरफ
धीमे- धीमे क़दमों से

जब परीक्षा में कुछ अंकों से फ़ेल हो गया
उस दिन नहीं लौट पाया घर
जान गया
सफलता अंकों का खेल है

एक और दिन शराब के नशे में
पुलिस ने पकड़ लिया
जघन्य अपराधियों की तरह
थाने की कोठरी में ठूँस दिया
क्या कहता उनसे
मैं किताबें पढ़ता हूँ
कोई अपराध नही किया मैंने
दूसरे दिन
मेरी नहीं, पिता की
एक और बदनामी को लेकर
घर लौटा।

जून की दोपहर में
पेड़ हिल रहे थे
मेरी तरह
जीवन से बाहर हो चुके
बेजान पत्ते धरती पर गिर रहे थे
मैं सड़क के किनारे
अनगिनत असफलताओं और गलतियों को गिन रहा था
कि प्रेमिका पतझड़ में जीवन की तरह आयी
देखे हुए चेहरे को देर तक देखती रही
एक बार और क्या कहती
क्या समझाती कायर प्रेमी को
वह अपनी राह चली गयी
एक बार और न लौटने की इच्छा में भी
घर लौट आया।

•••

अमर दलपुरा हिंदी की सबसे युवा पीढ़ी से आते हैं। अमर की कुछ कविताओं के मराठी अनुवाद भी हुए हैं। अमर से amardalpura@gmail.com पर बात हो सकती है।

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