कविताएँ ::
देवेश पथ सारिया

विद्रोही तगड़ा कवि था
(रमाशंकर यादव विद्रोही के लिए)

ओ आदिवासी, मेरे वनवासी
ओ नर-वानर
जेएनयू के बीहड़ में घूमते
पेड़ों के नीचे सोते
खांसते, बलगम थूकते
थकती रही देह तुम्हारी

तुम्हारे दम तोड़ने के बाद
घुलमिल गए निस्सीम के साथ
तुम्हारी कमीज़ की जेब में बैठे दोनों बाघ
बीड़ी के धुएं का छल्ला बनाते हुए

तुम्हारे प्रस्थान के बाद गुजरे वर्षों में
बुलंद हुई है औरतों की आवाज़
वे मांगने लगी हैं कल्पों का हिसाब
लगी हैं बिछाने अपनी अदालतों की मेज़
पसीने में लथपथ वे मुस्कुराती हैं
आसमान में तैरते बादल को देख

क्रुद्ध हैं अब भी तुम पर
पुरोहित, राजा और सिपाही
वे नहीं रखना जानते
मृतक विद्रोही के सम्मान की भी मर्यादा
धरती में गहरे जमा हुआ भगवान
देखता है तमाशा तमाम

तुम्हारे मरण पर मसीहा
ईश्वर के स्तुति गीत गाते हैं
नहीं जानते वे
कि मरा हुआ विद्रोही
मसीहाओं से और ऊँचा हुआ जाता है

आती है तुम्हारे लिए पुकार
मोहनजोदड़ो के तालाब की अंतिम सीढ़ी से
मिस्त्र के पिरामिड और चीन की दीवार बनाने में
मर-खप गए मजदूरों की हड्डियां
तुम्हारे अस्थि कलश से
कुछ कण राख मांगती हैं

उनकी ध्वनि की आवृत्ति नहीं है
अंध भक्तों की श्रव्य परास में
उनकी चीख़ कभी नहीं सुनाई दी
आकाओं की जमात को
और उनकी पिछलग्गू पाँत को

आकाशीय घटक तत्व तुम्हारा
बूँद बन गिरा है एक नदी में
नदी जो  भले न रही हो
तुम्हारी नानी की आंख
जा मिली है उसी सागर में

कोई नहीं मरा तुमसे पहले
न किसी का भाग्य विधाता
न कोई बूढ़ा काका
तुम्हारी चिता जले अब सालों हुए
फिर भी है गूंजता यह स्वर-
“विद्रोही बहुत तगड़ा कवि था”.

नापसंद-पसंद

बीते दिनों मैं उकताया हुआ था
कुछ औसत क्षणिकाएं पढ़कर
तो मैंने पुकारा
अपनी पसंद की क्षणिकाओं को
‘अच्छी छोटी कविताएं’ कहकर

मैं आजिज़ आ गया था
अंधेरे के बार-बार ‘घटाटोप’ होने से
तो मेरा अंधेरा रहा घनघोर या घुप्प‌ ही

विकल्पों का उपयोग कर
व्यक्त करता रहा मैं अस्वीकृति

फिर थी‌
एक और बात भी

डेढ़ महीने बाद
दांतो के डॉक्टर के पास लौटा था मैं
भावी प्रक्रिया से घबराया हुआ
पर नर्स को मुस्कुराता देख
उन्हीं दांतो के बीच से ज़ुबान बोली-
“बहुत दिन हुए, तुम्हें देखे हुए”

मैंने इंटरनेट पर देखा
केसर के खेत में काम करती‌ स्त्रियों को
उनके वस्त्रों पर खिले फूलों को
और मैं भूल गया
कि उस खेत की मिट्टी से प्रेम करना
मेरे परिवेश द्वारा निर्धारित
कूटनीतिक समीकरणों की अवहेलना है.

ऑलिव ऑयल

वह पूछती है-
“कैसे हो सकता है
कोई तेल ‘एक्स्ट्रा वर्जिन’?”

और हॅंस पड़ती है
तेल के नामकरण तक में प्रविष्ट
पुरुष कामना पर.

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देवेश पथ सारिया चर्चित युवा कवि हैं. ‘नूह की नाव’ उनका प्रथम कविता संग्रह है जो साहित्य अकादमी से इसी साल प्रकाशित हुआ है.  वरिष्ठ ताईवानी कवि ली मिन-युंग के कविता संग्रह का हिंदी अनुवाद ‘हक़ीक़त के बीच दरार’ (2021) के नाम से प्रकाशित है. ताइवान प्रवास के अनुभवों पर आधारित गद्य की पुस्तक शीघ्र आने वाली है. उनसे deveshpath@gmail.com पर बात हो सकती है.

 

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