कविताएँ ::
पीयूष तिवारी

ब्लैकबोर्ड

उसकी स्मृतियों में अमिट पंक्तियाँ थीं
लिखी जा चुकी पंक्तियों पर
लिखी जा रही पंक्तियों का दुहराव था

पुरातत्वविदों ने पहचानी थी
उसपर उग आई काई की वज़ह से
उसकी प्राचीनतम इच्छा
काई, प्राचीनतम नहीं थी
मगर उनका उगना एक प्राचीनतम घटना थी

अमूमन उसे पानी होना था
लोटे से छलके तो ज़मीन पी ले
उसे तो सिर्फ़ बुझानी थी सबकी प्यास

यह स्पष्ट भी कितना अस्पष्ट था
कि जो ख़ुद घिरा था अंधकार से
वह फ़ैला रहा था ज्ञान की रौशनी

इस दुनिया के समानांतर उसकी चेतना में
चल रही थी एक और दुनिया
कोई था जो अमरूद के फांक की तरह
उन्हें बांट रहा था दो भागों में

उसकी ज़मीं पर केंचुओं के
चलने की बे-आवाज़ सरसराहट थी
“यात्री कृपया ध्यान दें” के संबोधन को
“बढ़ते रहें” का आदेश मान कर
वे बढ़ रहे थे नमक के ढेलों की ओर
और नाटकीय रूप से
घट रही थी जनसंख्या उनकी

गिलहरियाँ छींट रही थीं
अनाज के छिलके की गंध हर तरफ़
बोगनवेलिया की डाल झुक-झुक कर
झड़े फूलों पर जता रही थी मालिकाना हक़

आदमी अब आदमी नहीं
भेड़िया में तब्दील हो चुका था
मगर उसके भीतर अब भी कहीं मौजूद था मेमना
चौंकिए मत, मेमने का बचे रहना
आदमीपन के बचे रहने का सबूत है
भेड़िया बाह्य से भीतर बढ़ते हुए गड़ा रहा था दांत
और मेमना ख़ुद अंदर बैठा कहीं चीख रहा था

उसकी दुनिया में
सुख, दुःख था
और दुःख, सुख
पुण्य, पाप था
और पाप?
पाप, पुण्य कहाँ हो पाता है!

सबसे ज्यादा परेशान तो वह पेड़ था
जिसे अब बनना था कागज़
उस पर लिखी जाने वाली थी
अब तक की सबसे रहस्यमय-गुमनाम पंक्ति
और इस दुनिया का चेहरा सियाह हुआ पड़ा था

उस पर लिखा जा रहा था
सृष्टि का नवीनतम अध्याय
और यह दुनिया चाॅक की तरह
घिस कर ज़मीन पर गिर रही थी।

असमय दिवंगत कवि

तेज़–तेज़ लू में पताकाएँ पूरे वेग से लहरा रही हैं
सागौन के इतने बड़े पत्तों में भी
समा नहीं पा रही उद्विग्नता

कट गई है गांव को शहर से जोड़ती नदी
धूल का बवंडर उठा है गांव में
और आक्रांत: थरथरा रहा है पूरा शहर

यह दुनिया अपना चश्मा
कहीं रख कर भूल गई है
सारे दृश्य-परिदृश्य धुंधले नज़र आ रहे हैं

कुछ तो घटने वाला है इन गर्मियों में
वरना दस गर्मी देखे हुए भी दस वर्ष हो गए हैं
फिर भी कोयल को कभी
आम का पेड़ छोड़कर
नींबू की डाल पर बैठते नहीं देखा

विश्वास के पीठ का ओट लेकर
छुपी बैठी हैं आशंकाएँ
यह किसी कवि के
असमय दिवंगत होने का संकेत तो नहीं?

तर्पण

उकेरते बनेगा न मिटाते
जीवन से शिरोरेखा
एक उच्छवास के साथ जब से
पश्चिमी छोर में डूब गया जीवन

अब कि वह मन से कर चुकी है
दूध और तिल पीकर तर्पण मेरा

ठगा सा स्तब्ध खड़ा आँखें जमीन में गाड़े
मैं भीतर ही भीतर छितरा गया हूँ

आधा जीवन कटा है
अनिश्चिताओं को काटते
अपराधबोध में ही कटेगा आधा जीवन।

माँ को समर्पित

सुनियोजित हैं निष्ठुर प्रक्रियाएँ जीवन की
अपितु उनके चले जाने की
क्रिया ने जल विहीन कर दिए
आँसुओं के महासागर

सानिध्य में बिताए उनके
अनगिनत पलों को खंगालते हुए
धंसता चला गया
अविस्मरणीय स्मृतियों के दलदल में
गहरा और गहरा और गहरा

वात्सल्य को पहली बार
विरह में परिवर्तित होते देखा मैंने

अंतस्तल के निर्वात में दुर्दर दुःख
बच्चों जैसा दहाड़ मार
रोया ज़ार-ज़ार
अभागा मैं चीख भी नहीं पाया

अपने कहे को कर न पाया लिपिबद्ध
भाषा की निराशा में
दिशाहीन कोरे पन्नों पर
दौड़ भी पाता
तो दूर कितनी नंगे पैर?

कितना अद्भुत
कितना ओजपूर्ण
कितना विराट व्यक्तित्व
शब्दों में लयबद्ध कहाँ कर पाता उन्हें

वह चली गईं हमारी करुण विलाप में
अपनी स्मिति छोड़ कर
यदा-कदा स्वप्न में आते हुए देखा उन्हें
यद्यपि स्वप्न को शाश्वत होता
कहाँ देख पाए हम!

यह कैसी विकलता ईश्वर!
छीन ली जिसने पथिक से पेड़ की छांह,
प्यासे से कुँआ
बेटे से माँ का ममत्व
यह कैसी मुक्ति
जिसमें शेष नहीं जीवन?

दुविधा

हम साहस से भरे लोग
अगर निकल भी आएं बहादुरी से
समुद्री तूफानों को चीरकर
तो भी तुम्हारे प्यार के बंदरगाह पर
बर्बरता से मारे जायेंगे।

•••
इंद्रधनुष ने पिछले दिनों में हिंदी कविता के कुछ सबसे सम्भावनाशील युवा स्वरों को प्रकाशित किया है। उसी क्रम में आज पीयूष तिवारी की कविताएँ प्रकाशित हैं। पीयूष अभी बारहवीं में हैं और तिवारी मरहटिया गाँव, गढ़वा, झारखण्ड में रहते हैं। उनसे piyushtiwarii620@gmail.com पर बात हो सकती है।

Categorized in:

Tagged in: