कविताएँ ::
राकेश कुमार मिश्र
सरकारी यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर
मैं उतना ही पढ़ता और सोचता हूँ जितना ज़रूरत हो
इस ज़रूरत को पूरा करने के लिए
मैं कम से कम पढ़ता और सोचता हूँ
कम से कम पढ़ते और सोचते हुए मैं भूल जाता हूँ कि
मैं पढ़ने और पढ़ाने का काम करता हूँ।
ज्ञान सिर्फ माया नहीं है
बल्कि बोझ भी है
सोलह साल के उम्र में ही हो गया था ये इल्हाम मुझे
कम उम्र में ही जान लिया था मैंने
सफलता का सूत्र और स्रोत
जीवन अगर रास्ता है तो,
ज्ञान है उस रास्ते में अवरोध
ना मुझे ज्ञान चाहिए
और ना ज्ञान से जुड़ी दुविधा
मुझे भौतिकता का अमरफल खाकर अमर होना है।
अजीब अज़ाब है ज़िंदगी
शराब में धुत्त होने के बाद अगर कोई उनका अपमान करता
तो वो अचानक से सतर्क हो जाते
वो बेहोशी के क़ब्र से धीरे-धीरे निकलने की कोशिश करते
“आदत से मजबूर हूँ”
वो अक्सर कहते
वो बार-बार कंफेस करते
उनके दिल में हो गया है छेद
कोई दुःख है जो पीछा नहीं छोड़ रहा उनका
तीस के उम्र में हताशा ने पहली बार
उनके जीवन में प्रवेश किया
उसके बाद से वो अकेले पड़ते गए लगातार
वो किसी राजा का मन लेकर पैदा हुए
पर उन्हें मिला दुनिया का सबसे दरिद्र परिवार
जो धन के मामले में नहीं बल्कि कंगाल था संवेदना के स्तर पर
वो जीवन भर “अपनों में नहीं रह पाने का गीत” गाते रहे
पीड़ित रहे अपने आत्मा पर लगे घाव से
और कोसते रहे ख़ुद को और अपने जीवन को।
नौकरियों का संक्षिप्त इतिहास
नौकरियां तमाम परिभाषाओं को नष्ट करने के बाद
जलाती हैं हमारे पंखों को बेरहमी से
नौकरियों का इतिहास मजबूरियों का इतिहास है
इसने लोगों का सिर्फ वजन ही नहीं बढ़ाया बल्कि
सुख भोगी मनुष्य जाति की आत्मा में छेद भी किया
इसने मनुष्यों से उनकी मनुष्यता छीनी
उनके बेहद कोमल भावनाओं को सबसे बड़े इश्तिहार में बदला
ये नौकरियां ही थीं जिन्होंने मनुष्यों को अपने जवान होते
बच्चों से दूर किया
लोग भूल गए किसी के ख़त का जवाब लिखना
प्रेम के इज़हार के लिए हम भूल गए
किसी शब्द की प्रतीक्षा का सुख
जिनके पास कुछ नहीं था
उन्होंने आसमान को अपना छत माना
जिनके पेट थे थोड़े भरे हुए
वो नौकरी के रास्ते पर निकले
इस रास्ते पर है सिर्फ थकान
मनुष्य जन अपने स्मृतियों की पोटली रखें सम्भालकर
यात्रा खत्म होने के बाद बचा रहे वो आदिम मनुष्य
बचा रहे प्रार्थना और जीवन।
लोरी
भाषा में घटित भाषा का सबसे प्राचीन संगीत है ये
किसी माँ की आत्मा की पुकार है
अपनी संतान के लिए
स्मृतियों का उपहार है
एक पीढ़ी का दूसरी पीढ़ी को
जिन बच्चों के जीवन में था सिर्फ अंधकार
उन्हें सिर्फ लोरियों ने ही सुलाया
बच्चों के मन के आँगन में लगाये गए कुछ फूल हैं
जिन्हें कोई माँ सींचती है अपनी आवाज़ से
हर भाषा से परे यह ममत्व की भाषा है
नींद के आगोश में जा रहे किसी बच्चे के लिए
सबसे सुरक्षित जगह है।
दासप्रथा विरोधी लेखक फ्रेडरिक डगलस की आत्मकथा पढ़ते हुए
ये सारंगी पर सुनना है सबसे उदास राग को
अमानवीयता के सबसे विभस्त रूप को दर्ज़ करना है कैनवास पर
गाढ़े काले रंग से
दीमक के हवाले कर दिए गए कागजों के मार्जिन पर
अपना नाम लिखने का रियाज़ करना है
एक बड़ी सुविधा है अपनी जन्म-तिथि का पता होना
क्या जीवनभर खुश रहने के लिए काफी नहीं
कि हम पढ़ सकते हैं किसी भाषा के कुछ शब्द?
रात के घोर अंधकार में अपनी माँ का चेहरा पहचानने की विवशता को
कैसे दर्ज़ किया जाये किसी भाषा में ?
चाबुक के मार से छल्ली शरीर को घसीटते हुए
कैसी होती है किसी स्पर्श की स्मृति ?
सबकुछ खत्म हो जाने के बाद भी
किसी नई शुरुआत के बारे में सोचना
कभी भी आसान नहीं रहा होगा
तमाम हताशा और यातना के बाद भी
गति और उड़ान को जीवन में बचा लेना
जीना है प्रार्थना को
यह प्राचीन स्वपन है आज़ादी का
जिसे कोई लिख रहा है रात के एकांत में ज़मीन पर।
औरतों की बनावट
विपत्ति में वो याद आती हैं हमेशा
लाश उठने के ठीक पहले उन्हें देखा गया है कोरस में रोते हुए
बेटी के विदाई के बाद शुरू होती है उनकी शांत मृत्यु
जानवरों के थकान को पढ़ना आता है उन्हें
घर में अचानक से आया कोई मिठाई या प्रसाद को
बराबर बांटना उन्हें खूब आता है
रंग, मौसम, हवा और पानी
इन सबके जादू को वो जानती हैं बखूबी
अभाव को ओढ़ते और बिछाते हुए उन्हें शर्म नहीं आती
सस्ते कपड़ों को सलीके से पहनना आता है उन्हें
और हर उत्सव के लिए उन्होंने खोजे हैं गीत।
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राकेश कुमार मिश्र कविताएँ लिखते हैं और उनकी कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। उनसे rakeshansh90@gmail.com पर बात हो सकती है।
बहुत ही सुन्दर भाव हैं कविता के डायरेक्ट दिल से :).
संजय जी, आपका बेहद शुक्रिया 🙂