संस्मरण ::
कवि रमाकान्त रथ से मिलना : सतीश नूतन
हम श्रद्धा से जब कोई कार्य ठान लेते हैं तो प्रतिफल निश्चित ही अच्छा होता है। उड़ीसा जाना-आना लगा रहता है और साहित्यजीवी होने के कारण स्वतः ही एक नाता बनता जाता है। मैं उड़ीसा के कई साहित्यकारों को जानता तो था पर मिला नहीं था। एक-एक कर सभी विद्वान सहित्यजीवियों से शब्द-संगति की इच्छा बलवती हुई। इसी क्रम में उड़ीसा के कई मित्रो से पूछा- यार, तेरे पास रमाकांत रथ जी का मोबाइल नम्बर है ? कई ‘ना’ के बीच एक ‘हाँ’ सुनते ही बाँछें खिल गईं। तत्क्षण मेरे मैसेंजर में उनका नम्बर टपक आया।
उन्हें फोन लगाया— “सर! मैं हिन्दी का एक अदना-सा कवि हूँ। अगले महीने भुवनेश्वर आना तय है। आप से मिलकर प्रसन्नता होगी।”
—”ठीक है! जब आप भुवनेश्वर पहुँच जाइएगा तो एक बार और फोन कर लिजीएगा।”
जबसे मिलने की अनुमति मिल गई तबसे रथ जी के कवि-कर्म की तलाश में गूगल पर बार-बार उंगलियाँ घिसते रहा। आज भी अपने डब्बे की सबसे उपरी शायिका (बर्थ) पर चित्त, उंगली घिसाई की उसी प्रक्रिया में व्यस्त था कि एकाएक आँखे ‘लालटेन’ पर ठहर गयीं—
“किरासन, कुछ धुआँ, बाती और कुछ कीट
ये सभी एकाकार हैं इस धात्विक परिधि में
इस कलई छूटे टीन की पेंदी में
आग का समुद्र हिचकोले लेता जल रहा है
भयंकर काली रात में।”
उधेड़-बुन इस बात को लेकर थी कि जिस उम्र में आदमी चाँद और चाँदनी रात की कल्पना करता है, उस उम्र में ओड़िशा का एक छात्र आखिर किन स्थितियों-परिस्थितियों से रू-ब-रू हो अपनी कविता में ‘भयंकर काली रात’ दर्ज करता है? उछाह मारती समुद्र की लहरों में आग की लपटें क्यों देखता है? ऊहापोह बनी ही हुई थी कि नीचे से मित्र अभय की आवाज आयी- “नीचे उतर, कटक आ गया!”
मैं ऊपरी शायिका से उतर कर खिड़की से सट कर बैठ गया। हजार साल से भी ज्यादा का इतिहास समेटे रौप्य नगर कटक की गलियों, इमारतों और गुजरते लोगों को इस कल्पना के साथ निहारने लगा कि इन्हीं गलियों के किसी घर का रहवासी बन ‘तैयार रहो मेरी आत्मा’ की कविताओं को हृदयस्थ किया होगा रथ जी ने।
कुछ ही मिनटों में कटक हमारी आँखों से ओझल हो गया।
अपनी यात्रा के अंतिम पड़ाव पर पहुँचते ही दक्षिण की काशी कहे जाने वाले नगर भुवनेश्वर को झुककर प्रणाम किया। रात भर होटल में आराम किया और सुबह उठते ही रथ जी को फोन पर भुवनेश्वर पहुँच जाने की इत्तिला दे दी।
पहले, यह तय था कि ओड़िया की युवा कवयित्री इप्सिता षड़ंगी भी मेरे साथ चलेंगी रथ जी के घर। परंतु, कॉलेज की व्यस्तता के कारण वो मेरे साथ न जा सकीं। रथ जी का पता-ठिकाना एक कागज पर दर्ज कर इप्सिता ने इतना जरूर कहा-“भाइना! (भाई)रथ जी, बहुत मिलनसार व्यक्ति हैं। जिस अस्पताल में अदिति ( इप्सिता की बेटी) का जन्म हुआ उस अस्पताल में जच्चा-बच्चा का हाल जानने वह स्वयं पहुँच गए।”
एक नर्स ने आकर कहा- “एक बुजुर्ग आदमी आपको खोज रै (रहे) हैं। कौन हैं, कहाँ से आए हैं, यह तो मैं नहीं जानती; लेकिन उनको अक्सर टी. भी. पर देखती हूंँ।”
“यह जो अदिति बैठी है आपकी गोद में उसका नामकरण भी उन्होंने ही किया है। 10 से 11 के बीच अवश्य पहुँच जाइएगा उनके घर; उनसे हमारी बात हो गई है।”
इप्सिता द्वारा दी गई पर्ची को अपनी डायरी में दबाए ऑटो से उस राम मंदिर के पास उतरा, जहाँ से रथ जी के घर की ओर जाने वाली सड़क विलगती है। प्राणनाथ मार्ग पर पैदल मार्च के क्रम में एक पान पुरिया टाइप की दूकान पर तीन-चार जन गप्पे मार रहे थे। मैं सही मार्ग पर हूंँ ना…? आश्वस्त होने के लिए इप्सिता वाली पर्ची को उन सबके समक्ष बाँचा। उन सब में से एक ने दाएँ-बाएँ का जो-जो संकेत दिया उसी का अनुसरण करते हुए सीधे खारवेल नगर के उस परिसर में घुस आया हूँ, जिसकी कोठरियों में ही ‘केते दिनार’, ‘अनेक कोठरी’, ‘सप्तम ऋतु’, ‘श्री राधा’, ‘श्री रणछोड़’ जैसे संग्रहों के पन्नों पर अंकित एक-एक शब्द अपना रूप ग्रहण किए हैं। जिसकी दीवारों पर सरस्वती , पद्म भूषण,साहित्य अकादमी, सरला, विषुव जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों के तगमे करीने से टँगे हैं।
अपनी उंगलियों में गाड़ी की चाबी का रिंग डाले जो व्यक्ति बाहर बैठा था उसी के मार्फत मैंने अपने आने की सूचना अंदर भिजवाई। जब तक, मैं कुर्सी संभालता रथ जी हाथ जोड़े मेरे सामने प्रकट दिखे। मन ने सवाल किया उड़ीसा के मुख्य सचिव के पद को सुशोभित करने वाला यह व्यक्ति अगर कवि न होता तो मेरे जैसे तृतीय श्रेणी के कर्मचारी का अभिवादन कैसे करता?
“बैठिए, कहां से हैं आप?”
– “जी, हाजीपुर बिहार से।”
– “आछा”(अच्छा)।
-“जब जगन्नाथ मिश्र बिहार के मुख्यमंत्री थे तो मैं गया था बिहार! स्वर्णरेखा नदी को लेकर बिहार, बंगाल और उड़ीसा के बीच गहरा विवाद था। मेरे मुख्यमंत्री नंदिनी सतपति जो स्वयं एक लेखिका थीं; ने इस विवाद को सुलझाने का मन बना लिया था। आपके और मेरे मुख्यमंत्री के बीच की सहमति से मामला सुलझ गया। बतौर, मुख्यमंत्री के सचिव इस विवाद को सुलझाने में एक छोटी भूमिका मेरी भी रही।”
इस दरस-परस के बाद ओड़िया की आदि-कविता, पंच-सखा परंपरा, आस्तिकता और नास्तिकता का द्वंद्व, बहुपठित कविता संग्रह ‘श्री राधा’, और ‘बाघ शिकार’ से लेकर आज की युवा ओड़िया कविता पर उनसे कई कच्चे-पक्के सवाल कर बैठा। रथ जी, मेरे सवालों को चुपचाप सुनते रहे; इसी बीच एक व्यक्ति प्लेट में गुलाब जामुन की आकृति की (लेकिन गुलाब जामुन नहीं) दो मिठाईयाँ एवं एक गिलास नींबू-पानी टेबल पर रख दिया। -“खाइए, घर का बना हुआ है”, ऐसा कहते रथ जी घर के अंदर चले गए। मैं थोड़ा सहम गया; सोचने लगा सवालों में; कुछ अन्यथा तो नहीं; रथ जी, बुरा तो नहीं मान गए! हल्की बातें तो नहीं की मैंने; लेकिन, तुरंत दो-तीन किताबें, डायरी और कलम लिए वो आ धमके। मैं भी तबतक प्लेट चट कर नींबू-पानी गटक गया था।
आते ही पूछा-” आप तो कवि हैं, कविता के माध्यम से जो कुछ भी कहना चाहते हैं उसके लिए आपको शब्द मिल जाते हैं, मुझे तो नहीं मिलता? कविता जबतक स्वयं चलकर आपके पास नहीं आएगी तब तक आप उसे कागज़ पर नहीं उतार सकते। ‘बाघ शिकार’ के सृजन के पीछे की एक घटना बताता हूँ। तब, मैं कालाहांडी में पदस्थापित था। एक आधिकारिक दौरे के दरम्यान अचानक मुझे एक ऐसी गाड़ी की आवश्यकता आ पड़ी, जो पूर्णतः बंद रहे ताकि, जंगल के खूंखार जानवरों से बचा जा सके। लेकिन, शाम तक ऐसी गाड़ी का बंदोबस्त न होने के कारण मैंने पहाड़ और जंगल से दूर एक जीप में ही रात बिताई। इसी रात ‘बाघ शिकार’ की सारी कविताएँ अपने पैरों से चलकर मेरे पास आयी। है न! यह प्रसंग रोचक?
– “रेल की लंबी यात्रा और प्राणनाथ मार्ग पर पैदल मार्च करते इस परिसर में आप जिस ‘श्री राधा’ की खोज-खबर लेने आए हैं उसके असली रचनाकार का नाम जानते हैं?”
“यह तो जग जाहिर है कि ‘श्री राधा’ रमाकांत…”
“नहीं-नहीं, असली रचनाकार स्वयं श्री राधा हैं भाई! रमाकांत ने तो सिर्फ स्टेनोग्राफी की है। अद्भुत अनुभव रहा। पूरी रचना प्रक्रिया में ऐसा महसूस होता रहा कि राधा पूरा प्रसंग खुद बोल रही हैं और मैं एक कुशल आशुलिपिक की तरह उनके बोल को कलमबद्ध कर रहा हूँ।”
“आपने ओड़िया साहित्य के आदिकवि, और उसके बाद की पीढ़ी के कवियों में अपनी दिलचस्पी दिखाई है। सारला दास ओड़िया के आदि कवि हैं। एक आम धारणा यह है कि सारला दास ने महाभारत का ओड़िया में अनुवाद किया है। परंतु वेद व्यास के महाभारत से सारला दास का महाभारत बिल्कुल भिन्न है। सारला दास के महाभारत का नायक भीम है जबकि वेद व्यास ने अपने महाभारत में अर्जुन को नायक का दर्जा दिया है। अगर आप ओड़िया जानते तो सारला के चरित्र-चित्रण के तरीकों पर खूब मुग्ध होते।”
(कुछ रुककर)
“ओडिशा की धरती पर एक और बड़े कवि की पैदाइश हुई। देश उन्हें भीमाभोई के नाम से जानता है। ओड़िया साहित्य में रुचि रखने के कारण आप भी इस नाम से अवश्य परिचित होंगे।कहा जाता है कि वे जन्मांध थे। ( हालांकि इसका कोई प्रमाण नहीं है) कभी भी वो मंदिर नहीं गए। सदा अपने फिलिंग में मंदिर का द्वार खोला। सांसारिक जीवन को उन्होंने सिरे से नकार दिया था। कहते थे- ईश्वर से मिलने जाऊँगा तो मनुष्य से अलग हो जाऊँगा। आप उस संत कवि को क्या कहेंगे, आस्तिक या नास्तिक?”
(विराम के बाद)
“दुनिया की सब भाषाओं में परम्परा से हटकर कुछ नया करने की होड़ है। परन्तु, आज के युवा अपनी रचनाधर्मिता में इतने वैयक्तिक(Individual) हो जाते हैं कि उनकी बात वहाँ तक नहीं पहुँच पाती जहाँ तक पहुँचनी चाहिए। यह सब सिर्फ ओड़िया में ही नहीं बल्कि तमाम भारतीय भाषाओं में हैं। मेरे इस कथन से आप सहमत न भी हो सकते हैं।”
इस हकीकत से असहमत होना मुश्किल था। मैंने हामी में सिर हिलाया। तमाम अनौपचारिक बातों के बीच उनके ये शब्द हमेशा के लिए एक गाँठ की तरह बंधे साथ चले आए.
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रमाकांत रथ ( जन्म : 13 दिसम्बर 1934) समादृत ओड़िया कवि हैं। वे ओड़िया भाषा के सबसे प्रसिद्ध आधुनिकतावादी कवियों में से एक हैं। सतीश नूतन हिंदी के सुपरिचित कवि हैं और हाजीपुर में रहते हैं। सतीश नूतन से nutansatish@gmail.com पर बात हो सकती है। यह संस्मरण-लेख ‘कृति बहुमत’ में पूर्व प्रकाशित है।
इंद्रधनुष पर अपना रँग देखने का सुख भोग रहा हूँ. संपादक मंडल का आभार