कविताएँ ::
कोंस्टेंटीन पी. कवाफ़ी
अनुवाद और प्रस्तुति : अंचित

कवाफ़ी बीसवीं शताब्दी के एक महत्वपूर्ण नाम हैं। अपने निजी जीवन में बेहद छुपे रहने वाले कवाफ़ी ने अपनी कविताओं में अपनी लालसाओं और अपने प्रेमों को लेकर खूब खुले ढंग से लिखा है। उनकी कविताओं का रास्ता बार बार क्लासिकल ग्रीस की ओर मुड़ता है जहाँ उनको अपना आदर्श समाज दिखाई देता है। ग्रीस से पूरे जीवन निर्वासित रहने वाले कवाफ़ी की कविताओं में खूब सारे बिम्ब यूनानी मिथकों से गढ़े हुए हैं। समलैंगिकता को सामाजिक अस्वीकृति होने की वजह से उन्होंने एक बहुत छुपा हुआ जीवन जिया। उन्होंने कुल 155 कविताएँ लिखीं और दर्जनों अधूरी पड़ी रहीं। प्रस्तुत कविताएँ पिछले पाँच बरसों में मित्रों के आग्रहों पर अनुवाद की गयी हैं।

दोपहर का सूरज 

यह कमरा—
इसे कितनी अच्छी तरह जानता हूँ।

अब वे इसे किसी और को किराए पर दे रहे हैं,
और इसके बग़ल वाला कमरा एक दफ़्तर बनेगा।
पूरे मकान में अब कई दफ़्तर होंगे— एजेंट, व्यापारी और कम्पनियाँ यहीं रहेंगी।

यह कमरा, यह कितना जाना पहचाना है।
यहीं दरवाज़े के पास एक दीवान था, उसके सामने एक तुर्की का क़ालीन।
पास उसके, एक अलमारी, दो पीले गुलदान उसपर धरे हुए।
दाहिने— नहीं, ठीक सामने— एक अलमारी, उस पर एक आईना।

बीच में एक टेबल जहाँ वह लिखा करता था
और तीन बड़ी बेंत की कुर्सियाँ।
खिड़की के बग़ल में एक बिस्तर
जहाँ हमने ना जाने कितनी बार प्रेम किया।

यहीं कहीं होंगी वे, वे पुरानी चीज़ें।
खिड़की के पास वह बिस्तर;
दोपहर का सूरज उसे आधा छूता था.

…एक दोपहर चार बजे हम अलग हुए
सिर्फ़ एक हफ़्ते के लिए ….और फिर
वह एक हफ़्ता बदल गया अनंत में।

शहर

मैं दूसरे देश जाऊँगा
दूसरे समंदर की ओर

तुमने कहा
कोई दूसरा शहर मिलेगा
शायद इससे कुछ बेहतर

मेरी हर कोशिश का गलत होना बदा है
और मेरा दिल गड़ा हुआ है
जैसे वो कोई मुर्दा चीज हो

आखिर कब तक मेरा दिमाग
इस रेगिस्तान में भटकेगा

जब भी मैं देखता हूँ
जहाँ भी देखता हूँ
मुझे अपनी ज़िंदगी के काले खंडहर दिखते हैं
जहाँ इतने साल खर्च किए मैंने, जाया किए,
उन्हें पूरी तरह से बर्बाद कर दिया

तुम्हें नहीं मिलेगी कोई नयी जमीन
कोई नया देश न कोई नया समंदर

यह शहर तुम्हारा पीछा करेगा
तुम भटकोगे इन्हीं गलियों में
इन्हीं मोहल्लों में बूढ़े होगे
और इन्हीं घरों में जर्जर, झुर्रीदार

हमेशा
आखिरकार तुम इसी शहर में पहुँचोगे
किसी और की उम्मीद मत करो

कोई जहाज नहीं
कोई रास्ता नहीं

जैसे तुमने अपनी ज़िंदगी यहाँ खोई है
यहाँ इस छोटे कोने में
तुमने इसे खो दिया है
पूरी दुनिया में।

देह, याद रखना 

देह याद रखना
सिर्फ़ यह नहीं कि तुम्हें कितनी मोहब्बत मिली
सिर्फ़ वे बिस्तर नहीं जहाँ तुमने आसरा पाया
पर वे सारी ख्वाहिशें जो आँखों में चमकती थीं,
जो आवाज़ में कांपती थीं – मौक़े – बेमौके रुकावटों ने
उन्हें ज़ाया कर दिया।

अब जबकि सब कुछ बीत चुके समय की बात है,
ऐसा लगता है मानो तुम भी उन ख़्वाहिशों के आगे झुक चुकी थी।
याद है, वे ख्वाहिशें कैसे चमकती थीं, जब वे आँखें तुम्हें देखती थीं,
वह आवाज़ कैसे कांपती थी तुम्हारी चाह में।
देह, याद रखना।

………….

अंचित कवि हैं। उनसे anchitthepoet@gmail.com पर बात हो सकती है।  कवाफ़ी की अन्य कविताओं के लिए देखें : बर्बरों का इंतज़ार