उद्धरण ::
कमलेश्वर
चयन और प्रस्तुति : बालमुकुन्द

कमलेश्वर

आदमी को सिर्फ़ औरत की जरूरत होती है… पर औरत को हर आदमी की नहीं, उस आदमी की ज़रूरत होती है, जिसे वह मन से समझ सके।

औरत और आदमी में सही प्यार हो तो आदमी घर का रास्ता कभी नहीं भूलता…।

ज़िंदगी का मैथेमेटिक्स बिल्कुल अलग होता है। इसमें एक और एक मिलकर एक होना चाहते हैं, पर ज़्यादातर एक और एक मिलकर दो हो जाते हैं, या ग्यारह बनकर रह जाते हैं… ज़िंदगी में जहाँ दो या ग्यारह हुए, वहाँ मैथेमेटिक्स तो सही साबित हो जाता है, पर ज़िंदगी ग़लत हो जाती है।

अधूरे आदमी को औरत पूरा करती है, अधूरी औरत को आदमी पूरा करता है।

औरत जब तक औरत रहती है, अकेली नहीं छूटती…पत्नी होते ही अकेली होने की राह खुल जाती है।

आदमी को आदमी नहीं, आदमी को औरत ज़्यादा पहचान सकती है।

आदमी को आदत होती है न, उसे जो मिल जाता है वही निरर्थक लगने लगता है…बाकी सब कुछ सार्थक है…है न ?

औरत बहुत छोटी-छोटी बातों, छोटे-छोटे सुखों के लिए आदमी के साथ जीती है।

मुश्किल यही है कि कोई पति पूरा पति नहीं बन पाता…या तो तुम दक़ियानूस बन जाते और हड्डी-पसली तोड़कर रख देते…या बराबरी का दर्जा देकर एक-दूसरे को हम पूरा कर सकते। हाथ उठाते हो, तो अधूरा…और चाहते हो कि पत्नी पूरी हो जाए!

ज्यादा बोलनेवाले लोग दूसरों की ज्यादा परवाह नहीं करते। आत्मकेंद्रित होते हैं। शायद स्वार्थी भी।

जिसे कोई बतानेवाला नहीं होता, वह सब काम खुद ही सीख लेता है…सीखना पड़ता है।

असफ़ल आदमी की ज़रूरत किसी को नहीं होती।

शादी एकतरफ़ा खेल नहीं है… औरत किसी की ज़रखऱीद गुलाम नहीं है।

…जब तक तुम अपने अतीत से निकलने की कोशिश नहीं करोगी, तब तक कुछ नहीं होगा…।

जगह और लोग बदल जाने से ज़िंदगी नहीं बदल जाती।

पता नहीं क्यों, लोग और सब देखते हैं, ज़िंदगी नहीं देखते! ज़िंदगी इस पैसे, धरती और आसमान से ज़्यादा क़ीमती है, साहब!

जो लोग दुनिया से लड़ते हैं, उन्हें अपनी एक और दुनिया बनानी पड़ती है।

…मौके ज़िंदगी में बार-बार नहीं आते…आगे बढ़ना हो तो हर मौके को दोनों हाथों से पकड़ लेना चाहिए।

…इस घर में ऐसा क्या है, जो हमारा और तुम्हारा हो ? सिवा इस बिस्तर के।

आदमी औरत बदल ले, तो ठीक! औरत आदमी बदल ले तो ग़लत! वाह!…वाह…! क्या मैथेमेटिक्स है।…आदमी एक में से एक घटाए, तो बचे एक, औरत एक में से एक घटाए तो बचे सिफ़र, वाह…!

अगर शादी पवित्र है, तो तलाक भी उतना ही पवित्र है…शादी के गलत हो जाने पर भी तलाक न लेना शायद पाप होता…।

औरत क्या होती है, यह औरत को खोकर ही मालूम होता है।

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कमलेश्वर ( 6 जनवरी 1932 – 27 जनवरी 2007) हिंदी के लब्धप्रतिष्ठ लेखकों में से हैं। उनके लेखन में कई रंग देखने को मिलते हैं। कथा, उपन्यास, फ़िल्म पटकथा, पत्रकारिता, स्तम्भ लेखन जैसी अनेक विधाओं में उन्होंने अपनी सशक्त लेखनी का लोहा मनवाया है। वे हिंदी कथा-साहित्य में ‘नयी कहानी आंदोलन’ के सूत्रधारों में से थे। उन्होंने 300 से अधिक कहानियाँ, 12 उपन्यास, कुछ नाटक और सैकड़ों फिल्मों के संवाद, कहानी और पटकथा लिखे। उनके उपन्यासों पर फ़िल्म भी बने। कितने पाकिस्तान, एक सड़क सत्तावन गलियाँ, तीसरा आदमी, डाकबंगला, समुद्र में खोया हुआ आदमी, काली आँधी, रेगिस्तान, लौटे हुए मुसाफ़िर, वही बात आदि उनके प्रमुख उपन्यास हैं। उद्धृत पंक्तियाँ कमलेश्वर के उपन्यास ‘वही बात’ से चुने गए हैं और यहाँ साभार प्रस्तुत हैं।

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