कविताएँ ::
देवेश पथ सारिया
इसलिए देखते हैं वो किताब
अनुपम बनर्जी
अकेले ऐसे हैं, उन सबमें
जो बिना अटके, बिना भूले गा सकते हैं
हिंदी-बंगाली के लम्बे-लम्बे गीत
गूगल पर लिरिक्स नहीं देखते वो
इस पंडाल के
कामचलाऊ पुरोहित भी हैं अनुपम बनर्जी
पुष्पांजलि अर्पित कराते समय
वे पढ़ते हैं प्रत्येक बार
मंत्रों को किताब से देखकर
कोई देर से भी आया
तो फ़िर से कराते पुष्पांजलि समर्पण
फ़िर देखकर मंत्र पढ़ते
मानों बिना पुष्पांजलि के उपस्थिति अपूर्ण
देश-वतन की पूजा से वह जुड़ाव अपूर्ण
और पूर्णता में न हो, ग़लती की गुंजाइश
इसलिए हर बार किताब देखते अनुपम बनर्जी
जिन मंत्रों को मैं अब तक
बचपन से सीखे हुए लहज़े में बोलता आया
आज उन्हीं को शब्द-दर-शब्द
बंगाली साथियों की तरह दोहरा रहा
“शोर्बो मोंगोल माङ्गोल्ये…..”
समवेत स्वर से विचलन
तिरस्कार होगा
अनुपम बनर्जी की मंत्र निष्ठा का
सजल नयन स्थापक
बताते हैं तपन प्रधान
कि आठ साल पहले उन्होंने शुरू की थी
शिन चू शहर में दुर्गा पूजा
पहले देवी की छवि पोस्टर पर प्रिंट करते थे
फिर दो-तीन साल पहले
कुछ लोगों ने मिलकर बनाई थी मूर्तियाँ
और बंगाल से ले आए थे
सांचे में ढालकर बनाये गए मूर्तियों के चेहरे
राजधानी ताइपे में होने वाले कार्यक्रम
इससे ज़्यादा चर्चा पाते हैं
इस अवहेलना से वे थोड़े से मुरझाते हैं
पर अगले ही पल खिल जाते हैं
पंडाल में मुदितमन भक्तों को देख
तपन प्रधान अब चले जाएंगे भारत वापस
उन्हें एक स्थाई नौकरी मिली है
विदेश की अनिश्चितता से मुक्ति दी है माँ दुर्गा ने
विसर्जन की यहां अनुमति नहीं है
अब दुर्गा की मूर्ति
किसी और को सुपुर्द की जाएगी
जहां से अगले साल वापस न आ पाएगी
अपने विदाई भाषण में वे कहते हैं
अगले साल भी दुर्गा पूजा मनाना ज़रूर
भले ही फिर मूर्ति न बन पाए
प्रिंटेड पोस्टर में भी दैदीप्यमान होगी देवी
आने वाले वर्षों में तपन प्रधान
बंगाल के बड़े-बड़े पंडालों में मनाएंगे दुर्गा पूजा
फिर भी इस छोटे से पंडाल को छोड़ते
जो उनका ही लगाया है
उनके नयन सजल हो चले हैं
सिन्दूर खेला
बुरी यादों से मैं जल्दी विचलित होने लगा हूँ
डॉक्टर कहते हैं, एंग्जायटी इशू हैं मुझे
सिन्दूर खेला की प्रथा के बारे में जानकर
मैं चिंतित होने लगता हूँ
क्योंकि होली की मेरी यादें
डराती हैं मुझे रंग से
दुर्गा माँ जा रही हैं
माता की मूर्ति भी जा रही है
(विदेश में ये दो अलग बातें हैं)
लगा दिया गया है
विदाई के समय बजने वाला संगीत
विदा होती माँ, बेटी-सी लगने लगती हैं
तभी एक भक्तिन आकर मेरे टीका कर देती हैं
मैं हाथ जोड़े अविचल खड़ा हूँ
बिना किसी हो-हल्ले के
भक्तिनें रंग लगाती जाती हैं
मेरे माथे, गालों और ठोड़ी पर
मुझे कोई एंग्जायटी नहीं होती
मैं बिना रंग पोंछे
कमरे पर वापस लौटता हूँ
उस रात बिना रंग धोये सोता हूँ.
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देवेश पथ सारिया हिन्दी के नए स्वरों में से हैं। उनकी कविताएँ तमाम प्रसिद्द जगहों से प्रकाशित हैं। उनसे deveshpath@gmail.com पर बात हो सकती है।
अपनी धार्मिक परंपरा और संस्कृति को वैश्विक आधार प्रदान करने में , उसे मान्य बनाने में बहुत छोटे तबके के लोगों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता । तब , अनुपम बनर्जी की तल्लीनता और लय का एक कलाकार के लिए मुरीद हो जाना स्वभाविक हो जाता है कि वह सबकी मंगल कामना का आकांक्षा लिए सर्व मंगल मांगल्ये के उच्चारण से पूरे वातावरण को एक लय व सूत्र से बांध दे रहा हो ! एक कलाकार के अथक परिश्रम के बूते ताईवान में मनाया जाने वाला दुर्गा पूजा विश्व बिरादरी में हमारी शख्शियत और अस्मिता के संघीय संघर्ष का बयान है । जहां बंगालियों के सिंदूर खेला , सजल नयन स्थापक तपन प्रधान की जिद भरी आश्वस्ति से ही यह संभव होता रहा है और होता रहेगा भी । खैर
भावबोध से सम्पन्न बहुत अच्छी कविताएँ। देवेश को शुभकामनाएं।