कविताएँ ::
निज़ार क़ब्बानी
अनुवाद और प्रस्तुति : विष्णु पाठक
निज़ार क़ब्बानी का जन्म सीरिया की राजधानी डमस्कस में मिश्रित तुर्की और अरब मूल के एक मध्यम वर्ग के व्यापारी परिवार में हुआ था। जब क़ब्बानी 15 वर्ष के थे, उस समय उनकी बहन, जो उस समय 25 वर्ष की थी, ने आत्महत्या कर ली क्योंकि उसने किसी ऐसे व्यक्ति से शादी करने से इंकार कर दिया जिसे उसने प्यार नहीं किया था। अपनी बहन के अंतिम संस्कार के दौरान उन्होंने सामाजिक परिस्थितियों से लड़ने का फैसला किया, जिसे उन्होंने बहन के मृत्यु के कारण के रूप में देखा।
यह पूछे जाने पर कि क्या वह एक क्रांतिकारी थे, कवि ने जवाब दिया— “अरब दुनिया में प्यार एक कैदी की तरह है, और मैं इसे मुक्त करना चाहता हूँ। मैं अपनी कविता के साथ अरब आत्मा, भाव और शरीर को मुक्त करना चाहता हूँ। हमारे समाज में पुरुषों और महिलाओं के बीच संबंध स्वस्थ नहीं हैं।”
कॉलेज में एक छात्र रहते हुए उन्होंने अपनी पहली कविताओं का संग्रह ‘द ब्रॉटल टोल्ड मी’ लिखा। यह रोमांटिक छंदों का एक संग्रह था जिसने एक महिला के शरीर को कई चौंकाने वाले संदर्भ दिए, दमिश्क में पूरे रूढ़िवादी समाज में इस संग्रह ने सदमे की लहरें भेज दीं। उन्हें अपने समय के सबसे नारीवादी और प्रगतिशील बुद्धिजीवियों में से जाना जाता है।
— विष्णु पाठक
1.
एक लम्बे इंतज़ार के
अंत में
हर बार तुम्हें चूमते हुए
महसूस होता है
मैं जल्दबाजी भरा पत्र डाल रहा हूँ
एक लाल लेटर बॉक्स में।
2.
कपड़े उतार दो
सदियों से
नहीं हुआ कोई चमत्कार।
कपड़े उतार दो,
मैं चुप हूँ,
और तुम्हारे बदन को आती है सभी भाषाएँ।
3.
मैं चाहता हूँ कि तुम चुनो
अतः चुनो
तुम्हारा श्मशान
मेरी छाती और
कविताओं के मध्य।
4.
दोस्तों
पुराने शब्द मर चुके हैं
पुरानी किताबें मर चुकी हैं
फटे पुराने जूतों जैसे हमारे खोखले भाषण मर चुके हैं
मर चुका है वह दिमाग जिसने हमें हार का सामना कराया।
5.
दर्दनाक है
सुबह की खबर
सुबह में
शाम में
कुत्तों का भौंकना
दर्दनाक है।
6.
मुझसे पूछती है मेरी प्रिय—
“क्या भेद, मुझ में और नभ में?”
भेद प्रिय, यह
तुम हंसती हो,
नभ खो जाता है।
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प्रस्तुत अनुवाद और कवि-परिचय यहाँ विष्णु पाठक के सौजन्य से प्राप्त हुए हैं। विष्णु पाठक हिंदी कवि-लेखक-अनुवादक हैं और इनदिनों बेंगलुरु में रहते हैं। उनसे vishnupathak87@gmail.com पर बात हो सकती है। इंद्रधनुष पर उनके पूर्व प्रकाशित कार्य के लिए यहाँ देखें : बरसात के इंतजार में खड़ी नावों पर…पाश का चाँद चढ़ता रहा।