कविताएँ ::
विष्णु पाठक

विष्णु पाठक

जाड़े की रात

दिन भर का थका किसान
कंधे से बंदूक हटा
लेट गया है
खलिहान में
और सुलगा रहा है सिगरेट.

तीली की ‘चिस्सस’ …
एक लंबी सांस
और अंधेरे में
खिल उठी
लाल रोशनी.

उसके माथे की टिकुली
जो सुलगा रही है
उसके बदन को
लालटेन दिखाने के बहाने
सामने वाली छत पर खड़ी
इंतेज़ार में .

वह जानता है,
लाल झंडे और होंठों के बीच
उसे करना है चुनाव
जाड़े की रात के हासिल का
सिगरेट के आखिरी कश से पहले.

सोन नदी से 

तुम सुखाती रही
अपने किनारों पर सफेद साड़ियाँ
सवर्ण और हरिजन से पहले विधवा कही जाने वाली औरतों की.

रात भर सन्नाटों से लड़ती रही –
और रोते हुए सियार

तुम्हारे  दोनों किनारों पर
भूखे पेट खेलते रहे
मल्लाहों के बच्चे

बरसात के इंतजार में खड़ी नावों पर
तुम्हारे दियारों के उपर
पाश का चाँद चढ़ता रहा
हर हत्या कांड के बाद

लाल टमाटर और सलाम
दोनों विषाक्त हो गए

बिन पानी और बेईमानी से
खाली हो गये गाँव खलिहान

आत्महत्या करते रहे किसान
और खोखली होती रही सरकारें

दिन प्रतिदिन
सरकंडे का जंगल बढ़ता रहा तुम्हारी छाती के ऊपर
और तुम रोई नहीं ?

चाँद के ढलने से थोड़ा पहले 

शाम के धुंधलके में
नहीं लिए गए रास्ते पर
किसी रोज चली आना.

अपनी उदासी ओढ़े
मेरी उदासी तक.

संभव है
हम जुटा लें
दरकार भर नमी
प्रेम के प्रस्फुटन हेतु
सुर्ख़ आँखों के बियाबान में
चाँद के ढलने से थोड़ा पहले …

गोलकोण्डा

अँधियारा, नमी और एकांत –
गुमशुदा सुरंगे
मेहराब ही मेहराब, चौहद्दी तक फैले –
तनहा गलियारे
मौन में गूंजती, नकाश्शीदार-
कई ध्वनिक गुम्बज़
देखती चारमीनार की, जनाकीर्ण शाम-

दो अप्रसिद्ध मीनारें
सूखा कुआँ, गुलाब और मंज़र
ढही हुई सीढ़ियां, छत और
ढहा हुआ चाँद,

गोलकोण्डा.

मोहनजोदड़ो

तुम्हारी असभ्यता की पराकाष्ठा ये है कि
जिस टीले पर खड़े हो
तुम तलाश रहे हो
उसकी परिधि में फैली
सभ्यता की आत्मा को

तुमने उसी टीले का नाम
“मृत आत्माओं का टीला” रखा है.

एक नदी
सूख गयी है

और एक नदी ने
दूर कर लिया अपना किनारा

“लेकिन क्यूँ ?”
नहीं खोज पा रहे हो तुम

तुमने खोज लिया है
बृहत्स्नानागार से
जल के निकासी का मार्ग

लेकिन, जल के प्रवेश का मार्ग
नही खोज पा रहे हो तुम.

किसी भी सभ्यता के जड़ में
प्रेम के होने की संभावना को नकारना,
तुम्हारी सबसे बड़ी जड़ता है.

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विष्णु पाठक कवि हैं और बेंगलुरु में रहते हैं. शिक्षा से इंजिनियर होने की वजह से साहित्य की कुरीतियों और जड़ताओं से दूर भी हैं. इनमें संभावनाएं हैं. यह कह देना इसीलिए भी खतरे से भरा नहीं है क्योंकि कम पढ़े लिखे जा रहे समय में वे पूरी नम्रता से पढ़ने और कविताओं को खोजने में लगे हैं. कवि परिभाषाओं से बचे, यही आकांक्षा है. उनसे vishnupathak87@gmail.com पर बात हो सकती है.

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