कविताएँ: नूर हिन्दी
अनुवाद एवं प्रस्तुति: शाश्वत अमित

 फिलिस्तीन और नूर हिन्दी 

“एक भी स्कूल नहीं बचा
एक भी अस्पताल नहीं बचा
नहीं किसी मासूम की छत पर
रहम आई।”

मासूम। जितनी आसानी से इस शब्द को परिभाषित कर दिया जाता है उतनी ही आसानी से मासूमों को बंटवारे के कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। पलक झपकते मासूम “वो” और “हम” हो जाते हैं, सारे रिश्ते, सारे नाते, सब कुछ बंट जाता है उनके और हमारे बीच। दशकों पहले की नाइंसाफी का सबब बन कर गिरता बम भेदभाव नहीं करता। बम को बच्चों के पिता, अब्बू , और डैड में फर्क नहीं दिखता, वह सब को अनाथ बनाता है। आजकल ऐसी ही एक कुर्बानी भरनी पड़ रही फिलीस्तीन के मासूमों को जिनका इस लड़ाई से कोई लेना-देना नहीं। वो लोग भी हमारी और आपकी तरह अपने चाहने वालों को सीने से लगा कर सर पर हाथ फेरते हैं, ऐसे छोटे बच्चों के सर जो क्या मालूम किस भगवान के कहने पर धड़ से अलग कर दिये गये हैं। इसी जद्दोजहद के बीच कुछ आवाज़ें भरपूर आज़माइश कर रहीं फिलिस्तीनीयों के दशकों से चलते आ रहे संघर्ष को लोगों के दिलोदिमाग में जगह दिलाने को और लोगों को धार्मिक चश्मे के परे इंसानियत के नाते समझाने को। ऐसी ही एक आवाज़ है “नूर हिन्दी” की, फिलिस्तीन में जन्मीं और अमेरिका में अपनी तालीम हासिल की हुईं एक कवियित्री,  जिनके शब्द उनके पीढ़ीगत आघात को छुपाये हमारी और आपकी करूणा ढूंढते हैं।

भाड़ में जाएँ तुम्हारे कारीगरी के सबक, मेरे लोग मर रहे हैं 

शासक फूलों के बारे में लिखते हैं
मैं तुम्हें बताती हूँ
क्षण भर में खुद गुलबहार बनने वाले बच्चों के बारे में
जो इज़राईली टैंको पर पत्थर फेंकते हैं।
मैं भी होना चाहती हूँ उन कवियों की तरह जिन्हें चाँद की चिंता होती है
फ़िलिस्तीनियों को तहखानों और कैदखानों में चाँद नसीब नहीं।

कितना वसीम है वह, वह चाँद।
कितने हसीन हैं ये, ये फूल।

उदासी में अपने पिता के कब्र के लिये फूल खरीदती हूँ
वे पूरे दिन अल-जज़ीरा देखते रहते हैं।
काश जेसिका मुझे रमज़ान की मुबारकबाद देना बंद कर दे।

मुझे पता है मैं अमरीकी हूँ क्योंकि मैं जिस कमरे में घुसती हूँ, वहाँ कुछ मर जाता है।
मौत के रूपक उन कवियों के लिये हैं जिन्हें लगता है
कि भूतों को आवाज़ की परवाह है।
जब मरूँगी, पैमान है मेरा, अबद तक तुम्हें डराऊंगी।

एक दिन, मैं भी फूलों के बारे में ऐसे लिखूंगी जैसे वे हमारे हैं।

ताज़ा  खबर १ 

रविवार की सुबह जाग कर हम अखबार पढ़ेंगे।
एक दूसरे को पढ़ेंगे। बन जाएंगे
उपभोक्ता
एक दूसरे की कहानियों के, एक हताश कोशिश
स्नेह पाने की— शब्दों पर तैर रहे हम
इस दुनिया में। खुद ढो रहे
हम अपनी क़ब्रों को अपनी पीठ पर और
मैंने अपने हाथ में जकड़ रखा है एक जुगनू को
उसका प्रकाश बुझता हुआ मेरी मुट्ठी की गर्मी से
और दूसरे में, एक कलम,
उसकी मौत के बखान के लिए।

क्या ये भयावह नहीं?
मुट्ठी बांधते हुए एक बार फिर तुमसे पूछती हूँ।
साक्षात्कारों में, अपने पात्रों की कहानी को
एक चश्मे के ज़रिए सुपाच्य बनाती हूँ
उपभोक्ताओं की खातिर।
यंत्र बन जाती। खबरों के इस ओर से उस ओर जाने का यंत्र।

खबरें संवेदना की माँग बन जातीं हैं
संवेदना का ऐसा चरम जिसको हम कभी अम्ल में नहीं ला पायेंगे।
जो खो गया उसे मापा नहीं जा सकता।

इस गर्मी के अंत में, तरणताल
सारे खोद दिये जाएंगे।
और तैरना नामुमकिन होगा।

ताज़ा खबरें २

मैं अब कवि नहीं रही—
बहुत सारे नेताओं के साक्षात्कार कर लिये।
उन्हें सिर्फ भूतों की परवाह है।
ताज़ा खबरें, मैं टूटती मुर्झाती
जा रही अपनी मतिहीन शर्मिन्दगी से।
मैंने संभोग के लिये भी
तारीखें तय की हुईं हैं। यह मैं
9 से 5 के बीच करती हूँ। सुनो, सुनो।
मेरी निःशब्दता मेरे चेहरे पर नहीं झलकती।
सूट पहनी मर्द हूँ।
कृप्या वह नामुराद हुक्का बढ़ाइए।
कृपया न्यायाधीशों को बता दें-
मैं रिपोर्टिंग करते करते थक चुकी हूँ।
इस खिड़की को ठीक करने की मेरी चाह भ्रष्ट है।
तुम्हारा इस खिड़की से झांकने मात्र को
सामाजिक इंसाफ का प्रदर्शन कहना भी भ्रष्टाचार है।

विरोध प्रदर्शन में एक गोरी मुझे
फर्ज़ी बुलाती है।
मैंने भी पलट कर ठीक है बोल दिया। मुस्कुराती
नहीं अब। अपने काम में
बाज़ों से भी ऊंची ऊड़ान भरती हूं। पीछे कहीं
छोड़ देती हूँ उदासी को। अपनी परेशानियों
की दिमाग में चटनी बनाकर
तुम्हें परोसती हूं।

मेरी मां ने एक तितली को
आकाश की ओर उठा रखा है।
झलकते उजले पंखों वाली एक गड़बड़ी।
दरख्वास्त है, कोई एक फोटो निकाल लो।
मेरे जूते खून से तरबतर हैं।

मित्रता को समर्पित 

एजवाटर समुद्रतट, 2019।
यह रात इतनी दिल-नशीं मैं किसी के भी प्यार में पड़ जाऊँ,
खुद के भी। मेरे प्रियतमों। सिर्फ तुम्हारे
हवाले करूँगी अपनी मृदुता।
यह चांद इतना नीला। और हां, सोना
हमेशा सोना है। असली
हम हैं बावज़ूद
हमारे देश के, जो इतना शोकाकुल, इतना जाग्रत,  इतना मरा हुया।
हमारी निराशा बम के गोलों सी गूंज रही है।
सुनो। अब तो समंदर भी भीख मांग रहा।
रेत में अपने हांथ तो लगाओ, मेरे दोस्त।
खुद को दफ़नाने में ही भलाई है।
जो बोझ है। क्या बोझ है?
हल्का हो जाता है।

ख़ुद से पूछताछ

हवाईअड्डे पर एक औरत रो रही है।
रूको। रूको। रूको। मुझे—
मुझे ध्यान केंद्रित करने दो। कहीं और न कि—
प्रवसन की भीड़ पर। चीखती रौशनी पर।
दूर जाती समाचार-वाचक की आवाज़।
प्यारा खुदा। प्यारी हड्डियों। प्यारी मां।
मुझे माफ करो। मैं अब मरना चाहती हूं।
अभी पिछले हफ्ते, पीली पोशाक पहनी
एक बच्ची कविता पढ़ रही थी। कुछ पल के लिये,
हर चीज़ से हमारी निष्पक्षता खत्म हो गई।
घासों से, फीके पड़ते पीले से, विस्फोटकों से,
ऐंठे अंगों से। कैदखानों से। सब से—
हां। वहां टर्मिनल छः पर एक औरत रो रही है।
हां। मैंने अखबार के पीछे अपनी नज़र छुपा ली है।
हां। मुझे उस पीली पोशाक वाली बच्ची की याद आ रही,
चमकता नन्हा दिल जो उसने मेरी हथेली पर रखा था।
हां। थोड़ी देर बाद ही मैंने उसे कचरे में फेक दिया
पर मेरा वादा है। वादा है। वादा है, मैंने
ऐसा ज़िन्दा रहने को किया। सम्भवतः प्रेम से।

 


 शाश्वत अमित ने पटना विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर किया है। उनसे shashwatamit10@gmail.com पर बात हो सकती है।