कविताएँ ::
प्रदीप्त प्रीत
आमंत्रण
पाँच गुना चार की खिड़की से
एक भरा-पूरा आकाश खुला है
औंधे मुँह पड़ी है
एक कूरा मिट्टी अवसन्न
भभकती हुई
दुःख और संत्रास में
ताप से छिटकती हुई इस मिट्टी को
इंतजार है तुम्हारी काया का
तुम आओ समेटते हुए
एक आकार दो
अपने शरीर की रिक्तताओं में
हर चाँद के नीचे नग्न लेटे हुए
होता रहूँगा दिन-ब-दिन
श्याम और सलोना
तुम्हारे हाथों से अठखेलियाँ करते हुए
खेलना चाहता हूँ बचपन का एक खेल
जिसमें तुमसे लिपटे रहने की चाह
दूर रहने की सावधानी का द्वंद छिपा हुआ है
मैं जानता हूँ तुम्हारे पास अनेकों फूल हैं
मैं उन फूलों को चूमना चाहता हूँ
जिन्होंने एक उम्र गँवा दी है
जो वर्षों से एक छुअन को बेताब हैं
तुम गोया एक आसमान की सी हो
रहस्यमयी
रोमांचकारी
हजारों तारों से सजी हुई तुम
मेरे सपनों के तारों को देखने आओगी?
सारे तारे फूल हैं
जो इस उम्मीद में टकटकी लगाए
देखते रहते हैं कि
एक दिन तुम आओगे
और चूम लोगे।
चुम्बन के ठीक बीच में
एक दिन जब उसने
मेरा माथा चूमा
ख़ुमार में डूबा रहा सारा दिन
उसी चुम्बन की ताजपोशी लिये
मैं मासूमियत का सत्ताधीश बना घूमता रहा
उसे चूमने के क्रम में
सोचता रहा कि –
कितनी जगहें हैं चूमने की
और तो और
होठों पर
छाती पर
कमर पर चूमते हुए
बिताए जा सकते हैं
वनवास
अज्ञातवास
कई-कई बरसों के।
होठों को चूमने में
बेवजह चिढ़ाने लगती है कंधे की हड्डी
वहीं के ढाल में फंसा कर
कमर में खोंस लेती है पल्लू।
इसी तरह
बदस्तूर
बेपरवाही से
उसकी नाज़ुकी को चूमते हुए
करधनी में उलझते ही
खटकने लगती है कमर की हड्डी।
पैर की अंगुलियों को चूमा
फूल के मानिंद
टखने से उतर रहा स्लाइडर
ऊपर तक सरक आने के लिए
खींच लेता है
उसके पैरों का सम्मोहन कुछ ऐसा ही है
जब-जब उसका माथा चूमा
उलझ गए रुकसार
चूमा उसके कान को
खटक गई कनबाली
चूमते-चूमते सांसे भी समा नहीं रही
तब पर भी होश बटोर कर
बिल्कुल कहा जा सकता है उससे
जो मैंने कहा भी
तुम श्रृंगार के बिना और सुन्दर दिखती हो।
तुम्हारे बगैर तुम्हारा होने की चाह में
कहीं एक देह है
तुम्हारी भिन्न-भिन्न खुशबुओं में लिपटी हुई
तुम्हारे होने का पुख़्ता सुबूत है वहाँ
ज़रा कम
ज़रा ज्यादा
सपने में जब तुम्हारी आकृति बनती है
तो कुछ ऐसी ही दिखती हो तुम
बहुत अंधेरे में थोड़ा उजाला लिए
बहुत ठंड में थोड़ी गर्मी लिए
आती हो तुम
तब लगता है कि तुम पर्याय हो
उजाले और गर्मी की
तुम्हारे स्पर्श से अलसाया हुआ मैं
तुम्हारे होठों के भाप से तरबतर हो जाता हूँ
मेरे कानों में तुम्हारी सांसें रेंगती हैं
मैं उत्तेजना और गुदगुदाहट के समिश्रण में सिहर जाता हूँ
तुम्हारी कनखियों में छिप जाता है भोलापन
दाँतों से दबे होठों में एक बांध बना रखा है तुमने
मेरी देह पर उछलती तुम्हारी चंचल ज़िद
मेरे पुरुषत्व को बौना साबित करके थमती है
तुम्हारे साथ होते हुए जब स्खलित होता हूँ
हजारों सूखे पत्ते गिरते हैं एक साथ
हजारों फूल खिलते हैं क्षण भर में।
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प्रदीप्त प्रीत कवि हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ प्रकाशित हैं। उनसे pradeepty07@gmail.com पर बात हो सकती है।