कविताएँ::
शैरिल शर्मा

1. धुंध के उस पार

वह मुस्करायी थी…
जैसे किसी पुरानी दोपहर में
धूप की एक सलवट
धीरे से सरक आई हो—
चुपचाप।

उसकी आँखों में
कोई मौसम बीत रहा था-
एक अधूरी धूप,
एक आधे रंग की रात,
जैसे रोशनी ने
कहीं पहुँच कर
थोड़ी देर के लिए
ठहरना सीख लिया हो।

मैं देखता रहा—
तुम्हारी पलकें
ठंडी ज़मीन पर
गिरी हुई
पहली फुहार की गंध थी—

कुछ नम,
कुछ थकी हुई,
जैसे कोई दुआ
अपने उच्चारण से पहले
पलकों में सो गयी हो।

तुम्हारे चश्मे के काँच से परे
एक और दृश्य था—

जिसे मैं देखता नहीं था,
सुनता था—

तुम्हारी आँखों की
धीमी भाषा में।

वहाँ—
मेरा नाम
किसी भूले हुए अक्षर की तरह
फिर से लिखा जा रहा था,
जैसे कोई स्पर्श
जो कभी कहा नहीं गया।

एक बार
बहुत पास से पूछा मैंने —
“बिना चश्मे के भी
क्या मैं ठीक दिखाई पड़ता हूं तुम्हें?”
वह हँसी नहीं —
सिर्फ एक झपकन थी —
हल्की, अनकही,
जैसे कोई कविता
अपने सबसे पारदर्शी शब्द में
ख़ामोश हो जाती है।

फिर बोली —
“धुंध में भी
तुम वैसे ही हो —
जैसे सपना जागते हुए दिखे —
हल्का, लेकिन पूरा।”

उस क्षण,
तुम्हारी पलकों की झील में
एक झलक डाली —
तो पाया,
मैं नहीं था वहाँ,
बल्कि मेरी अनकही बातें,ऽ
धीरे-धीरे तैर रही थीं —
जैसे किसी पुराने चित्र की
धूल में ढकी हुई रौशनी —
जिसे बस महसूस किया जा सकता है,
देखा नहीं।

2. अब मेरी डायरी

केवल मेरे एकांत की गवाही नहीं
वह एक साझा प्रार्थना है,
जिसके हर पन्ने पर
किसी अनकहे नाम की छाया
धीरे से उतरती है,
जैसे धूप खिड़की से फिसलकर
किसी अधूरी कविता पर ठहर जाए।

पहले वहाँ केवल मैं थी
तारीखों की ठंडी स्याही,
कुछ रूखे प्रश्न,
कुछ अपूर्ण स्वप्न
जो सिरहाने करवट बदलते थे।

अब…
वहाँ कुछ साँझें हैं जो एक-दूसरे की भाषा जानते हैं,
कुछ मौन हैं जो साथ के स्पर्श से बोलने लगे हैं,
और कुछ पंक्तियाँ—
जिन्हें मैंने नहीं, शायद हमने लिखा है।

कलम अब
सिर्फ मेरी उँगलियों के भार से नहीं चलती—
जहाँ पहले सिर्फ
तारीखें होती थीं—
अब कुछ नाम हैं,
कुछ जगहें,
कुछ ऐसे संज्ञाहीन क्षण
जो सिर्फ हम जानते हैं।

वहाँ कुछ स्पर्श हैं
जो पन्नों पर नहीं, पंक्तियों के बीच बसते हैं,
कुछ उत्तर हैं
जो कभी पूछे नहीं गए—
और फिर भी किसी आहट ने
अपनी उपस्थिति से दे दिए।

अब जब हम टूटते हैं—
या बस हाथ थमते हैं—
डायरी में दर्ज  पंक्तियाँ
किसी अपरिचित करुणा से ठहर जाती है—
जैसे वह कह रही हो
हर बार जब तुम पीड़ा उकेरती हो,
तो एक अनदेखा स्पर्श
उस पन्ने को सहला जाता है—
जैसे वह कह रहा हो,
“हाँ, मैं भी यहीं हूँ,

अब मेरी डायरी
केवल मेरी नहीं रही
उसमें एक और हिस्सा साँस लेता है
सजग, मौन, छिपा हुआ,
लेकिन इतना निकट
जैसे आत्मा का कोई अनकहा पक्ष।

3. तुम मेरे आंगन की चिड़िया हो

तुम मेरे आंगन की चिड़िया हो—
न ज़्यादा बड़ी,
न बहुत रंगीन
पर तुम्हारे परों में एक ऐसा मौन है
जो मेरे दिनों को बोलना सिखाता है।

तुम्हारी चहचहाहट
मेरे घर की सबसे पुरानी दीवार पर
उगी हुई काई की तरह है,
हरी भी है, चुप भी है,
और हर मौसम में वहीं रहती है।

मैंने कई बार
खुली खिड़की से देखा है तुम्हें
जैसे कोई सपना
हथेली पर उतर आता हो
बिना मांगे।

तुम जब उड़ती हो
तो मैं नहीं देख पाती
किधर गई,
पर जब लौटती हो,
तो आंगन की धूप
थोड़ी गर्म,
थोड़ी मीठी लगने लगती है।

तुम्हारे लौटने में
कोई संवाद नहीं होता,
बस हिलती है
मनीप्लांट की एक लतर,
और मैं समझ जाती हूँ
कि तुम आ गई हो।

तुम्हारे बिना
यह घर भी कुछ भूल जाता है,
दरवाज़े देर से खुलते हैं,
घड़ी टँकी रहती है
पर समय बीतता नहीं।

तुम प्रेम में हो
उस उड़ान की तरह
जो लौटने का वादा नहीं करती
पर लौटती ज़रूर है
हर बार।

मैं हर शाम
आँगन की सबसे कोमल धूप को
तुम्हारे नाम रख देती हूँ।

4. वॉइसनोट

वो वॉइसनोट भेजता है
जब मैं कुछ नहीं कहती
चाय की सीटी,
बर्तनों की टकराहट,
उबलती अदरक का भभकना,
और थकान की आह।

ये सब आवाज़ें
शब्द नहीं होतीं,
फिर भी
कितनी बातें कह जाती हैं।

मैं सुनती हूँ
और चुप रहती हूँ,
जैसे पुराने रेडियो में
कोई ट्यूनिंग ठीक से न मिले
पर एक धुन छुपी हो कहीं।

कभी वह कोई गीत गुनगुनाता है
जिसके बोल अधूरे होते हैं,
जैसे सपना टूटा हो,
या नींद में कोई नाम पुकारा गया हो।

“सुना?” वो पूछता है—
और मैं
अपने कान नहीं,
दिल छूकर सुनती हूँ।
जहाँ उसकी थकी हुई साँसें
बिलकुल साफ़ सुनाई देती हैं।

जब मैं मौन होती हूँ,
वह कुछ नहीं कहता।
सिर्फ़ एक साँस भेज देता है—
जिसमें मैं अपने होने की जगह पा लेती हूँ।

कभी कहता है—
“कुछ भी कहो,
हाँ, हूँ, कुछ भी…”
उसे मेरी आवाज़ चाहिए
जैसे सूखी ज़मीन को पहली बारिश।

मैं कुछ कहती नहीं—
पर अपनी चुप्पी में
उसे भर देती हूँ
जैसे उबलती चाय में
पत्ती नहीं, प्रतीक्षा घुली हो।

एक दिन
वह कविता भेजता है—
“तुम धूप नहीं हो,
पर तुम्हारे बिना
सर्दियाँ पूरी नहीं होतीं।”

मैं उस पंक्ति को
बार-बार सुनती हूँ—
जैसे कोई बंद खिड़की
हर बार खुलने का सपना देखे।

शब्दों से ज़्यादा
उनके पीछे की ख़ामोशी सुनती हूँ—
जहाँ प्रेम नहीं,
एक झिझक पल रही होती है।

और तब समझ आता है—
कि कुछ रिश्ते
धूप नहीं माँगते,
बस एक धीमी आँच पर
जलते रहते हैं,
बिना किसी मौसम को जिए।

5. ‘तुम्हारी कविता’

मैं जो इन दिनों कहीं नहीं
होते हुए भी तुम्हारे मन के
किसी कोने में मिल ही
जाती होऊंगी!!!

मेरी कोई बात ठंडी हवा सी
छूकर गुज़रेगी और छा जाऊंगी
होंठों पर किसी मुस्कुराहट की तरह
चाय में अदरक की महक
सरीखी घुलती रहूंगी सांसों में

तुम्हारी समझ से परे होते हुए
भी इसी वृत्त के भीतर किसी
अमलतास के नीचे  बैठी मिलूंगी
गुनगुनाते हुए तुम्हारी कविता

एक रोज आत्मा के उजले रंग
तुम्हारी दुनिया के सूरज पर चढ़ा कर
रीत जाऊंगी रेत सी
पर दमकता रहेगा
तुम्हारा जीवन

चहकती रहेगी
हर सुबह!

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शैरिल शर्मा की कविताएँ, आलेख आदि विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। उनकी कविताओं में साझेपन और उसके खोने के बाद के अनुभवों की एक मासूम छुअन है जो कविता लिखने के सबसे आदिम कारणों की तरफ़ लेकर जाती है। उनसे sherilsharma97@gmail.com पर बात हो सकती है।