थॉमस हार्डी की कविताएँ :
अनुवाद एवं प्रस्तुति : उपांशु

ग्रेजुएशन के वक़्त गाँधी मैदान में वेसेक्स टेल्स की एक पुरानी प्रति मेरे हाथ लगी थी। उस वक़्त उद्योग भवन और रीजेंट सिनेमा हॉल के आसपास साहित्य और दर्शन की कुछ किताबें मिल जाया करतीं थीं। वो अलग बात है कि वो बाज़ार उस वक़्त भी इंजीनियरिंग, मेडिकल, और प्रशासनिक सेवाओं की तैयारी की किताबों से भरा रहता था। पिछले दस सालों में हार्डी के कई उपन्यास सेकंड हैंड किताबों की दुकानों पर मिले, लेकिन कविताओं का समग्र नहीं मिला। डेढ़ दो महीने पहले मोहतरमा ने पुरानी किताबों के सेल के बारे बताया, कहा साथ चलना। मेरे पास न किताब रखने की जगह थी न लोकप्रिय अमरीकी उपन्यासों का ढेर खंगालने का धैर्य। लेकिन आमतौर पर ऐसे कूड़े के बीच कुछ न कुछ आप खोज लेते हैं, कभी एक तो कभी दस। हार्डी को पढ़ना, एक उदास शाम को याद करना है। मई के उमस में पसीने से तर-बतर वो शाम उदास नहीं थी, और अगली कुछ शामों की कहानी भी कुछ और ही थी। मैंने किताब को पढ़ने के ध्येय से उठाया था, अनुवाद करना मेरा लक्ष्य कभी नहीं था। वो सारी चीज़ें जो छात्र जीवन में यूँ ही समझ आ जाती थीं नौकरी के बाद नहीं आती। और जब मुझे अपनी शक्तियों के क्षीण होने का अवसाद होने लगा, मैंने अनुवाद का रास्ता अपनाया।

हार्डी की उन कविताओं का चयन किया जो किसी न किसी तरह मेरे बहु-आयामी अवसाद को कुरेदते हैं, मुझे दिलासा देते हैं कि जब ५८ की उम्र में चौदह उपन्यास लिख लेने के बाद भी इस कवि, लेखक, रचनाकार के पास कुछ नया कहने की जिजीविषा है, तब मेरी क्या बिसात थकने की।मैं उम्मीद करता हूँ, इस अनुवाद में, कविता को लेकर हार्डी के प्रेम को व्यक्त कर पाया हूँ। मैंने उस लाइन की कविता चुनी है जिसकी छाया आगे चलकर एलियट, औडेन, और डिलन थॉमस पर पड़ती है।         

 

  1. कोई नहीं आता

पेड़ के पत्ते ऊपर और नीचे श्रम करते हैं
और उनसे झाँकती धुंधलाती रौशनी
रात की चाल में समा जाती है।
बाहर करियाती धरती से नगर तक की सड़क पर
टेलीग्राफ के तार दैवी वीणा की तरह
राहगीरों के लिए
एक अदृश्य हाथ से बजते हैं।

एक कार आती है, जिसकी तेज़ बत्ती
एक पेड़ से टकराती है;
उसको मुझसे कोई मतलब नहीं
अपनी ही दुनिया में विस्फोट करती
पीछे काली हवा छोड़ जाती है;
और दरवाज़े पर मूक मैं फिर अकेला खड़ा रहता हूँ
और कोई वहाँ नहीं रुकता।

 2. क्यों मैं?

क्यों मैं वही सब करता जाता हूँ?
क्यों नहीं रुकता?
क्या ऐसा है कि अब तक इस उलझन
और बेचैनी के संसार में फँसे हो तुम,
और एक जैसी यंत्रणाएं दोहराना पसंद आता है?

कब मैं ऐसी चीज़े करना छोड़ दूंगा? –
जब मैं सुनूंगा
तुमने अपना धूल भरा लबादा छोड़ दिया है और अपने तिलिस्मी पर
किसी और गोले पर ले गए हो,
जहाँ कोई पीड़ा नहीं है; तब ही मैं यह कोलाहल भी बंद करूंगा।

3. जब थक कर हम दूर हट जाते हैं

जब थक कर हम दूर हट जाते हैं
प्रयासरत अपने साथियों से,
और वहाँ पीछे छूट जाते हैं, जहाँ हमसे
बेहतर योजना किसी से न बनी
अचानक हमसे मिलने पर
उनकी चिंता का भी एहसास मिला,
दुःख ये कि वो सभी मग्न हैं
बिना कभी ये सोचे कि हमारे बिना मग्न हैं।

जब दिया हुआ अनुराग वापस न मिलने के थकन से
सभी मित्र हम एक ही श्रेणी में रख देते हैं,
जैसे गर्मियों के अंत में प्रवासी पंछी
हमें अकेला छोड़ जाते हैं;

न हम उनकी खोज-खबर लेते हैं, न वो
कभी हमारे बारे में पूछते या सुनते हैं,
मुश्किल सजा है देखना
वो हमारे बिना इतनी शाइस्ता मोहब्बत करते हैं।

ऐसा नहीं है कि हमारे अभाव में वे प्रेम करते हैं
सबसे ज़्यादा ये रग इस बात से दुखती है
कि अभाव किसका है देखे बिना
इतनी संतुष्टि से प्रेम कर लेते हैं;

वो ये भी नहीं सोचते कि उनमें अभाव
हमारे बारे में उनकी पुरानी सोच का भी है;
ज़रा भी गौर करते, तो ध्यान जाता
वे किस तरह हमारे बिना प्रेम किये जा रहे हैं।

4. सार्वजनिक पुरुषों पर एक निजी आदमी  

जब मेरे समकालीन अथक परिश्रम कर
अपनी गाड़ी को जीवन की राह पर भगा रहे थे
अपने लिए पूँजी का ढेर जमा कर रहे थे
अदालतों, सभाओं में
कुशलता से बहस की, या रात-रात भर तपस्या तब तक की
जब तक अफवाहों से उनकी कीर्ति सम्पूर्ण विश्व में न फैल गई,

किसी शांत, अज्ञात, संरक्षित जगह पर
मेरा जीवन
किसी काठी किसी कंकड़ पर
सोचते हुए बीता
किसी दुर्लभ पुस्तक या पंछी की जानकारी लेकर
तत्पश्चात खरीद कर, देख कर, या उसके बारे में सुनकर बीता
क्षितिज पर बढ़ती भीड़ को देखने की मेरी इच्छा कभी नहीं हुई

एक लम्बे अरसे तक सीमित सुख का स्वाद
छिटपुट कुछ उदास दिनों के साथ पक जाने पर मिला
बाहरी दुनिया के शोर से दूर जब कभी
उस कोलाहल की ज़रा भी भनक मिली
वहाँ रहने वालों से बिलकुल ईर्ष्या नहीं हुई
कम सम्पन्न होने के बाद भी,
अधिक की चाह नहीं हुई।

5. हम अंत की ओर बढ़ रहे हैं

इस ब्रह्मांड में
असंभव की कल्पना के अंत तक पहुँच रहे हैं
जैसे बुरे वक़्त का बेहतर के बाद आना
और तार्किकता से ही मानव जाति का सुधार हो जाना

हम जानते हैं
पिंजरों में पंछी मृत्यु तक सीखचों की गुलामी करते हुए
मुक्ति के बारे में बिना सोचे गाते हैं,
हम फिर भी अपने सुख के लिए बेतरतीब उनसे काम लेते हैं

और देश जब अपने पड़ोसियों की विरासत
घोड़ों और पैरों तले कुचलते हैं
उनकी लहलहाती फसलें नष्ट कर सड़ाते हैं
वो दोबारा ऐसा कर सकते हैं–
सावधानी या रूचि से नहीं
बल्कि किसी दानवी शक्ति के उन्माद में–
हाँ। हम सपनों के अंत तक पहुँच रहे हैं।


उपांशु हिन्दी के सुपरिचित कवि हैं। उनसे और परिचय, संपर्क और इंद्रधनुष पर उनके पूर्व-प्रकाशित कार्य के लिए यहाँ देखें : सुबह किसी स्वप्न को पूरा होने नहीं देती