लेख: प्रभात रंजन प्रणीत
आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई।
कल रात टीवी ऑन कर सोफे पर बैठते हुए आदतन न्यूज देखने के लिये चैनल बदलने लगा, एक के बाद एक कर सारे हिंदी चैनल का भ्रमण कर लिया पर कहीं कोई ब्रेकिंग न्यूज नहीं मिला। मैं कभी आश्चर्यचकित होकर टीवी को निहारता तो कभी आशंकित होकर रिमोट को, हो न हो रिमोट में ही कुछ गड़बड़ हो जो न्यूज चैनल तो दिखा रहा है पर उसमें ब्रेकिंग न्यूज नहीं आ रहा है। आधुनिक जीवन का अभिन्न अंग बन चुके ‘न्यूज चैनल संस्कृति’ का प्रभाव ऐसा है कि यदि एक मिनट के अंदर ब्रेकिंग न्यूज नहीं दिखा तो फिर न्यूज बोर करने लगता है। कई बार सारे हिंदी, अंग्रेजी चैनल बदलने के बाद भी जब कोई ब्रेकिंग न्यूज नहीं मिलता है तो लगता है जैसे कहीं कुछ गड़बड़ है, जैसे सबकुछ ठहर सा गया हो। पहले न्यूज चैनल हमें टीवी से बाँध कर रखने के लिये ब्रेकिंग न्यूज परोसते थे पर अब इस आदत ने हमें ऐसा आदि बना दिया है कि अब हम खुद ही ब्रेकिंग न्यूज ढूंढते हैं। यह न मिले तो न खाना हलक से नीचे ठीक से जायेगा और न ही नींद ही सही से आएगी। जो आकस्मिक था अब वह आदत है, जरूरत है। पहले ब्रेकिंग न्यूज देख कर हम चौंकते थे, आशंकित होते थे पर अब ब्रेकिंग न्यूज न हो तो चौंकते हैं, आशंकित होते हैं। अब जब ब्रेकिंग न्यूज फ़्लैश होता है तो मन में आदतन उत्सुकता से ज्यादा निश्चिंतता का भाव होता है, “पता नहीं क्या हुआ होगा” से ज्यादा आमिर खान का कहा “आल इज वेल” ही दिमाग में गूंजता रहता है। न्यूज चैनल वाले भी अब हमारे इस निश्चिंतता को भांप गये हैं। उन्हें भी अहसास हो गया है कि उनका ब्रहमास्त्र अब रास्ते में ही भटक जा रहा है, इसीलिए उन्होंने भी इसका एक नया उपाय ढूंढा है। अब वे बिग ब्रेकिंग लिख कर हमें डराने की कोशिश करते हैं, हम कुछ डरेंगे, सहमेंगे, तभी तो रुकेंगे, और हम रुकेंगे तभी तो वे दौड़ेंगे। और बिग ब्रेकिंग देखकर हम थोड़ा जरुर ठिठक जाते हैं, सहम जाते हैं, आमिर खान का “आल इज वेल” वाला आवाज कुछ मद्धिम होने लगता है। किसी ने चाहे जिस सन्दर्भ में कहा हो कि डर के आगे जीत है, यहाँ तो डर में ही जीत है, हमारा डर ही टीवी चैनलों का विजय गीत है। मैं सोचता हूँ कि कुछ समय पश्चात जब बिग ब्रेकिंग दिखने के पश्चात भी आमिर खान का “आल इज वेल” जोर से सुनाई पड़ते रहेगा, तब न्यूज चैनल वाले क्या करेंगे। हो सकता है तब वे बिग बिग ब्रेकिंग न्यूज लिखने लगे और तब जा कर हम कुछ डरे और रुकें। पर बिग बिग लिखने के क्रम में तो भविष्य में कभी पूरा स्क्रीन ही बिग बिग से भर जायेगा, तब?
रिमोट ने न्यूज चैनलों के काम को और कठिन बना दिया है। एंकर पलक झपकें उससे पहले हम अपनी अंगुली रिमोट बटन पर दबाकर चैनल बदल चुके होते हैं। रिमोट न होता तो जब तक हम टीवी तक पहुंचते और चैनल बदलते तब तक तो एंकर चार-पांच बार अपना पलक झपका चुके होते और हम उनकी टीआरपी में अपना बहुमूल्य योगदान दे चुके होते। पर रिमोट के होते यह सम्भव नहीं इसीलिए तो वे कई बार इतने जोर से चिल्लाते हैं कि हम भले न डरे पर रिमोट पर पड़ी अंगुली जरुर डर कर, काँप कर रुक जाये। लोग बड़ी जल्दी एंकर की आलोचना कर देते हैं, पर उनकी मजबूरी पर किसी का ध्यान जाता ही नहीं, वे अपने घर में थोड़े न ऐसे चिल्लाते होंगे, पर यहाँ उनकी रोजी रोटी तो हमें बाँध कर रखने पर टिकी हुई है और हम हैं कि हर वक्त आमिर खान के “आल इज वेल” को ही सुन कर चैनल बदलते रहते हैं।
मैं सोचता हूँ कि जब बिग ब्रेकिंग और एंकर का चिल्लाना भी हमें बाँध नहीं पायेगा तब बेचारे एंकरों की नौकरी कैसे बचेगी। हो सकता है इस व्यवसाय से जुड़े लोग इस पर गहन मंथन कर रहे होंगे। अरबों का व्यवसाय, इतना बड़ा बाजार निरंतर अपने लिए नये युक्ति, साधन ढूंढते ही रहेगा, नित नये साधनों से हमें रोकते ही रहेगा, पर इस रोकने, बाँधने, पकड़ कर रखने में न्यूज की चर्चा तो मैंने की ही नहीं, क्यों नहीं की? उस न्यूज की चर्चा जिसके लिए कभी सुबह आठ बजने और रात नौ बजने के एक घंटा पहले से हम लोग रेडियो से चिपके रहते थे। उस न्यूज के सटीक विश्लेषण के लिये बीबीसी के सात-साढ़े सात के प्रोग्राम के लिये पूरा दिन तड़पते रहते थे और टेलिविज़न पर समाचार देखने के लिये पुरे गाँव के लोग सामूहिक उत्सव की तरह बिजली उपलब्ध होने पर ब्लैक एंड व्हाइट टेलीविजन के सामने इकट्ठे हो जाते थे। उस न्यूज की चर्चा मैंने नहीं की क्योंकि अब मैं उस न्यूज के लिये तो टीवी देखता ही नहीं हूँ, बस अपने भीतर की उत्तेजना की तृप्ति का साधन टीवी में ढूंढता हूँ जिसे टीवी से प्राप्त प्रायोजित उत्तेजना से तृप्त करता हूँ, इस परस्पर लेन देन में भला न्यूज की आवश्यकता ही कहाँ है।
न्यूज अब न्यूज नहीं है, उत्तेजना है, साधन है, मनोरंजन है, दूकान है, बाजार है, सत्ता है, सीढी है, शिखर है, खाद है, आग है, सब कुछ है पर न्यूज नहीं है, खबर अब खबर नहीं है, अतः न्यूज चैनल भी सबकुछ है पर न्यूज चैनल नहीं है। यह सुविधा है, स्वार्थ है, मज़बूरी है, जरूरी है, तड़प है, धमक है, सबक है, चाहे जो भी है पर न्यूज चैनल नहीं है। और हम क्या हैं, साध्य हैं या साधन हैं, बाजार हैं या दूकान हैं, जमीन हैं या पेट्रोल हैं, माचिस हैं या तीली हैं, सबल हैं या निर्बल हैं, प्रायोजक हैं या प्रायोजित हैं, चाहे जो भी हैं पर दर्शक नहीं हैं। यह कब हुआ, किसने किया, कैसे किया, कैसे हुआ, इसमें न मेरी दिलचस्पी है न किसी की भी दिलचस्पी है। यह है, यह हो चुका है, यह क्रमिक हुआ है या त्वरित हुआ है, क्या फर्क पड़ता है, यह हो चूका है, और अब यह हमारी पसंद हो या मजबूरी पर यही हमारी नियति है।
सच कहूँ तो पता ही नहीं चला कि कब किसान की आत्महत्या से ज्यादा उत्तेजना मुझे सचिन के छक्के से मिलने लगी। पता ही नहीं चला कि कब टमाटर की बढती कीमत से ज्यादा सलमान का ब्रेक अप चिंतित करने लगा। पता ही नहीं चला कि कब किसी की भूख से हुई मौत से ज्यादा बालिका वधु की आंसू रुलाने लगी। पता ही नहीं चला कि कब मंगलयान की सफलता से ज्यादा बिग बॉस में किसी की जीत ख़ुशी देने लगी। पता ही नहीं चला कि कब शांति वार्ता की खबर से ज्यादा रिटायर्ड ब्रिगेडियर की हुंकार भरती आवाज पसंद आने लगी। सच में मुझे पता नहीं चला, यह कब हुआ, कैसे हुआ नहीं पता, पर यह हुआ, सहज, सरल तरीके से और अब मैं इसका हिस्सा हूँ, इसी में खुश हूँ, ऐसे ही संतुष्ट हूँ।
सोशल मीडिया ने तो मेरी और सहायता ही की, यह जो उपर मेरी बातों से थोड़ी बहुत कुंठा, अपराधबोध आदि की झलक मिल रही होगी उस विवेचना, समझ, चेतना को फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप्प के वीर योद्धाओं ने काफी तीव्रता से, कुशलता से नष्ट कर दिया। न्यूज चैनल की एक सीमा है, उसमें व्यक्तिगत वार्तालाप नहीं हो पाता, सोशल मीडिया में यह सहज ही हो जाता है। न्यूज चैनल के एंकर से ज्यादा सोशल मीडिया के विशेषज्ञ डॉक्टर व्यक्तिगत सूक्ष्म सर्जरी करने में दक्ष हैं, और मैंने इनकी सेवा लेने में कतई कोई कोताही नहीं की है। चाहे किसी भी काम में समझौता कर लिया पर सस्ता-मंहगा डाटा पैकेज समय पर रिचार्ज करवाता रहा और दिल खोलकर सेवा लेता रहा, और इस निःशुल्क सेवा लेने के बदले उनसे और मित्रों से असंख्य लाइक रूपी बधाई भी पाते रहा। सोशल मीडिया की निरंतर “विशेषज्ञ व्यक्तिगत चिकित्सा व्यवस्था” की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस सेवा को सफलता पूर्वक लेने के पश्चात आप स्वयं न सिर्फ स्वस्थ्य, देशभक्त नागरिक बनकर निखरते हैं अपितु आप खुद भी एक स्पेशलिस्ट डॉक्टर के रूप में दक्ष हो जाते हैं। चूँकि यह चिकित्सा सेवा निःशुल्क मिलती है इसीलिए अब यह हमारा धर्म और फर्ज बनता है कि हम अपने जैसे और भी पूर्व भ्रमित व्यक्तियों, दोस्तों की निःशुल्क चिकित्सा पूरी सजगता और निष्ठा से करें। इसी तरह तो यह महान यज्ञ निरंतर जारी रहेगा और सिर्फ तभी तो इस समाज की तमाम कुरीतियाँ, कमजोरियां, विकार आमूल नष्ट होंगे। सिर्फ तभी तो हम एक स्वस्थ्य समाज का निर्माण कर पायेंगे। सिर्फ तभी तो हम इस देश के नागरिकों को इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में अंकित कुछ महान राष्ट्रों या वर्तमान के हमारे लिये आदर्श व प्रेरणा के रूप में स्थापित पड़ोसी या अन्य महान राष्टों के नागरिकों की तरह सबल, स्वस्थ्य, सजग बनाकर एक सक्षम समाज व राष्ट्र का निर्माण कर पायेंगे। हमारी आजादी तो अब तक अधूरी है, तभी तो हम न सिर्फ पूर्ण आजादी, वास्तविक आजादी प्राप्त करेंगे, बल्कि अपने देश की खोई हुई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त करने में सफल हो पायेंगे। यह हमारा धर्म है, यह हमारा कर्तव्य है। इस राष्ट्र को पुनः महान बनाना, इस राष्ट्र को पुनः विश्व गुरु के रूप में पुरे विश्व से सम्मान दिलवाना ही हमारा ध्येय है। प्रिंट मीडिया , इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या सोशल मीडिया सभी अपने इसी धर्म का निर्वहन काफी सजगता व कुशलता से कर रहे हैं। और इस महापर्व का हिस्सा बनने में मैं खुद को न सिर्फ सौभाग्यशाली समझ रहा हूँ बल्कि खुद को गौरवान्वित भी महसूस कर रहा हूँ। आइये हम सब इस महायज्ञ का हिस्सा बनें और आवश्यकता पड़ने पर स्वयं की आहुति दे कर भी अपने जीवन की सार्थकता को सिद्ध करें आइये हम सब मिलकर इस स्वतंत्रता दिवस पर इस महान राष्ट्र की खोई हुई प्रतिष्ठा को उपरोक्त माध्यमों के द्वारा पुनर्स्थापित करने का संकल्प करें।
जय हिन्द।
[ प्रभात रंजन लेखक हैं . उनसे prabhatranjan7877@gmail.com पर बात की जा सकती है.]
बहुत बढ़िया लेख, समाज को आईना दिखाता है यह लेख