मतभेद की कला

प्रतिसंसार ::

मतभेद की कला : आदित्य शुक्ल 

पिछले दिनों अंग्रेजी के दो शब्द मीडिया में छाए रहे – डिसेंट (dissent) और अर्बन नक्सल (urban naxal). अर्बन नक्सल को फिलहाल अपने विमर्श के दायरे से बाहर रखते हुए मतभेद और उसके कुछ पहलुओं पर कुछ बात करते हैं.

मैं एक लंबे समय तक ऐसे लोगों के सम्पर्क में रहा जो ‘चुप रहने की कला’ सिखाते रहे. चुप रहने और बोलने, इन दोनों ही पक्षों का सरलीकरण किए बगैर यह समझना जरूरी है कि चुप रहना या बोलना, इन दोनों ही कृत्यों का किसी पूर्वस्थित परिस्थिति में क्या महत्त्व है. फ़िलहाल तो व्यावहारिक अनुभव यह कहता है कि ‘चुप रहने वाले’ लोग बहुत ही कूटनीतिक तरीके से चुनिन्दा चुप्पी ओढ़े हुए थे और ‘बोलने वाले लोग’ बहुत ही असभ्यता से बोलने की सारी हदे लांघ चुके थे और बोलने के नाम पर बिना सोचे समझे कुछ भी बोले जा रहे थे. लोगों के व्यवहारों का अध्ययन करने पर यह पाया गया
कि ‘चुप रहने वाले’ लोग बाद में दक्षिणपंथी विचारधारा के कॉन्फॉर्मिस्ट साबित हुए. ‘बोलने वाले लोग’ वामपंथी विचारधारा के कॉन्फॉर्मिस्ट साबित हुए. अनुसारक (कॉन्फॉर्मिस्ट) एक ऐसे तबके के लोग हैं जो सत्ता के  विपक्ष की राजनैतिक विचारधारा का इस्तेमाल सिर्फ और सिर्फ अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए करते हैं. ऐसे लोग अपने विश्राम गृह से बाहर निकलकर ना कुछ देखना चाहते हैं और ही कुछ कहना. चुनिन्दा चुप्पी ओढ़े हुए वाले लोग लगातार “पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है” जैसे सवाल से घबराते हैं और अपनी पोलिटिक्स पर कुछ बोलने के बजाए इस सवाल को ही कटघरे में खड़ा करने लगे हैं. हलांकि आज ये सवाल और यहां तक कि आर्ट ऑफ डिसेंट भी एक क्लीशे भर में तब्दील हो चुका
है. वामपंथी विचारधारा की खाल ओढ़कर लोग हर बात के सरलीकरण पर उतारू हैं और अभिव्यक्ति के नाम पर
बहुत ही छिछली बातों का लगातार प्रसार कर रहे हैं.

रिचर्ड लिंकलेटर की फ़िल्म ‘वेकिंग लाइफ’ में एक चरित्र कहता है कि सत्ता और मीडिया आपको एक पपेट बनाकर रखना चाहती है – तो आप अपना चुनाव करिए और बनिए या तो ‘लेफ्ट का पपेट’ या ‘राइट का पपेट’. बिल्कुल उसी तर्ज पर आज के समय डिसेंट की बातें करने वाले अधिकतर लोग सत्ता के पपेट बने घिस रहे हैं और इसी आधार पर अपनी राजनैतिक गुटबाजी का रहे हैं. सत्ता पक्ष के पास सबसे अधिक शक्ति होती है लेकिन विपक्ष भी एक तरह की सत्ता ही है इसलिए  सत्ता और विपक्ष में एक घर्षण बना रहता है. सत्ता के विरोधी फिलहाल सिर्फ सत्ता का पलड़ा अपनी तरफ झुक जाने जैसी परिस्थितियों का निर्माण करने में लगे हैं. इन सबमें यह ध्यान रखना बहुत जरूरी है कि जैसे ही सत्ता आज के
विपक्ष के हाथ में होगी, वे भी अपने विरोधियों की आवाज़ कुचलने के लिए इन्हीं तौर तरीकों का इस्तेमाल करेंगे.
हमारे देश में हलांकि सत्ताओं का चरित्र बहुत डायनामिक नहीं रहा है. इसलिए जो पहले सत्ता में थे वे भी उन्हीं मूल्यों का अनुगमन करते रहे हैं जो आज की मुखर दक्षिणपंथी विचारधारा कर रही है. हमें शुरू से ही यही मूल्य दिए गए कि राष्ट्र से ऊपर कोई नहीं है. हमारा राष्ट्र-प्रधान ही सर्वश्रेष्ठ है. हमारे धर्म, हमारी जाति, और हमारी सामाजिक और आर्थिक स्थितियों से ही हमारी आइडेंटिटी तय होती है. हमें पहले भी यही सिखाया गया अपने धर्मग्रन्थों का सम्मान करना चाहिए, हमें अपने देवताओं को पूजना चाहिए इत्यादि. सोशल मीडिया पर एक वीडियो देखते हुए यह समझ में आया कि क्यों हमें अपने इतिहास के बहुत सारे चैप्टर रिमूव करके शिक्षा दी गयी? हमारे राजनेता और प्रकारांतर से हमारे पूर्वज हमें किस तरह से कंडीशन करना चाहते थे और ये लोग उसमें कितना सफल हुए?

हमने बड़े होते हुए क्या मूल्य हासिल किए? मैं एक ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ – आप आसानी से अंदाजा लगा सकते हैं कि मुझे क्या मूल्य हस्तांतरित हुए. लेकिन जो मूल्य मुझे हस्तांतरित हुए, जो मूल्य मैंने अपने परिवार के दायरों के बाहर हासिल किए और देशकाल, बाजार, साहित्य और राजनीति ने मुझे जो मूल्य हस्तांतरित किए उन सबके बीच में मेरी क्या स्थिति है? मैं एक व्यक्ति के रूप में कहां ठहरता हूँ?

मैं व्यक्ति के स्तर पर इन सब चकरघिन्नीयों में पिसता जा रहा हूँ. मैं अपनी रोजी-रोटी के लिए कभी लेफ्ट तो कभी राइट का अनुसारक बना फिर रहा हूँ. मैं एक तरह से भिखमंगा हूँ. जहां से भीख मिल जाती है, वहीं खा लेता हूँ और डकार मार लेता हूँ. यकीन मानिए उपस्थित तंत्र ने जानबूझकर मुझे सिर्फ इसी लायक बनाया. अगर मुझमें इससे अधिक क्षमता हो जाए तो मैं सत्ता (विपक्ष) के किसी काम का नहीं . अभी मैं सत्ता के काम का आदमी हूँ – इस बात पर ध्यान दीजिए – फिलहाल तो मैं दोनों ही सत्ता के काम  का  हूँ ,  लेफ़्ट और  राइट, सत्ता और विपक्ष.

ऐसे में मतभेद की कला और अधिकार जैसे सवालों का क्या?

अगर आप एक वामपंथी हैं और अपने वामपंथी संगठन की कुटिल नीतियों का विरोध करते हैं तो तुरंत ही हाशिए पर डाल दिए जाते हैं. दक्षिणपंथी समुदायों में भी यही हाल है.

मुझे अपनी इस स्थिति की पहचान करनी होगी यह भी निर्धारित करना होगा कि क्या मैं अपनी इस वर्तमान स्थिति से संतुष्ट हूँ या मुझे इसमें सुधार चाहिए, मैं एक व्यक्ति के रूप में क्या होना चाहता हूँ और क्या जो भी होना चाहता हूँ मुझे वैसा होने में आने वाली दिक्कतों से लड़ सकता हूँ? लड़ सकता हूँ तो कितना लड़ सकता हूँ अपना वजूद न्योछावर किए बगैर. ऐसे समय में यह जानना बहुत जरूरी है कि आर्ट ऑफ डिसेंट क्या है – मुझे अपनी रोजी रोटी के लिए कितना पपेट बने रहना है और कितना विद्रोही. यह भी याद रखिए कि विद्रोह वैयक्तिक ही होते हैं – आप चाहे किसी क्रांति का हिस्सा बनकर कितने भी रोंगटे खड़े कर लेने वाले गीत गा लें, अपनी वर्तमान स्थिति को पहचाने बगैर और उनपर उसी हिसाब से अमल किये बगैर कोई ‘एक्ट ऑफ़ डिसेंट’नहीं होता.

मेरी व्यक्तिगत स्थिति यही है कि  मैं हर समय अपने व्यवहार, राजनीति और स्थिति को ही प्रश्न के दायरे में रखता हूँ. मैं जो भी कह रहा हूँ उसका असल उद्देश्य क्या है? अगर वे पूछें कि “पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है” तो उत्तर यह हो कि मुझे सत्ता या विपक्ष किसी का भी ‘पपेट’ नहीं बनना है. यकीन मानिए ऐसे उत्तर दोनों ही पक्ष नहीं सुनना चाहते. मुझे चुप नहीं रहना है. मेरी पॉलिटिक्स भी स्पष्ट है. मैं तुम्हारा पपेट नहीं बने रहना चाहता और यही मेरा डिसेंट है. मुझे मतभेद का अधिकार है, जरूरत है और यही मेरी जीवन कला है. अल्बेयर कामू ने लिखा है कि इस तरह से जियो कि ‘तुम्हारा अस्तित्व ही एक विद्रोही कृत्य बन जाए.’

[आदित्य शुक्ला कवि-गद्यकार हैं. हिन्दी-अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लिखते हैं और दिल्ली में रहते हैं. इनसे shuklaaditya48@gmail.com  पर  संपर्क किया जा सकता है.फीचर्ड तस्वीर सोमेश शुक्ल के सौजन्य से. तस्वीर का शीर्षक है ‘रतजगा’.]

About the author

इन्द्रधनुष

जब समय और समाज इस तरह होते जाएँ, जैसे अभी हैं तो साहित्य ज़रूरी दवा है. इंद्रधनुष इस विस्तृत मरुस्थल में थोड़ी जगह हरी कर पाए, बचा पाए, नई बना पाए, इतनी ही आकांक्षा है.

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