प्रतिसंसार ::

आदित्य शुक्ल

आदित्य शुक्ल

[प्रिय प्रिय प्रियम्बदा.]
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मिलान कुंदेरा अपने उपन्यास ‘अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ़ बीइंग’ की शुरुआत नीत्शे के शाश्वत वापसी सिद्धांत पर विमर्श करते हुआ करता है.

हल्कापन और भार.

नीत्शे के शाश्वत भार के मिथ को अगर नकारात्मक तरीके से देखें तो पाएंगे कि एक जीवन जो सदैव के लिए नष्ट हो जाता है, जो वापस नहीं आता उसका सौंदर्य, उसकी उत्कृष्टता, उसका आतंक कुछ भी मायने नहीं रखता. हमें उस नष्ट हो चुके जीवन के बारे में सोचने की कोई जरूरत नहीं, ठीक वैसे ही जैसे चौदहवीं शताब्दी में अफ्रीकन गृह युद्ध के बारे में, जिसने मनुष्यता के इतिहास में कुछ बदला तो नहीं भले ही उस युद्ध में लाखों नीग्रो लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.

ये कुंदेरा का विवेचन है इस उपन्यास के प्रारम्भ में. मैंने इस उपन्यास को कई बार शुरू करने की कोशिश की पर नहीं पढ़ सका. पहला ही पैराग्राफ मेरा ध्यान भंग कर देता. ये शाश्वत वापसी क्या है? अब जबकि मैं इस उपन्यास को पढ़ चुका हूं, बारम्बार इन पंक्तियों को पढ़ता हूं और रो पड़ता हूं. इसका ये भी तात्पर्य नहीं कि मैं इन्हें ठीक-ठीक समझता हूं. लेकिन हां इन्हें पढ़कर रो पड़ता हूँ.

एक जीवन जो नष्ट हो चुका है. एक नष्ट हो चुका जीवन है.

और मैं ऑफिस के गेट पर खड़ा हूं. मेरे पीठ पीछे तुम जा रही हो. तुम शीशे में दिख रही हो. नारंगी सूट में. तुम मुझे देखकर मुस्कुरा रही हो. वह एक खुशनुमा दिन था लेकिन न जाने क्यों मैं शीशे के पास बहुत देर तक ठिठका रहा और तुम्हें जाते देखता रहा.

तुम जाती रही. मैं देखता रहा. एक जीवन जो अभी नष्ट नहीं हुआ था. एक जीवन जो नष्ट होने को था. मुझे कुंदेरा याद आया. मुझे नीत्शे याद आया. मेरा मन पूरा द्रवित हो चुका था. ऐसा लगता था ऑफिस के गेट पर ही रो दूंगा. वह एक खुशनुमा दिन था. हमने लंच के बाद बहुत देर तक यूकेलिप्टस के पेड़ों की छाया में वाक किया था और न जाने कितनी बेफिक्र बातें की. तुम मुझे अपनी कोहनी से पेड़ के नीचे जमा हो चुके पानी के छोटे से पूल में धकेलती और मैं गिर जाने का नाटक करता. वह एक खुशनुमा दिन था लेकिन शीशे में तुम्हें जाते देख मैं बहुत करूण हो गया था. न जाने क्यों. तब मैं ‘अनबियरेबल’ पढ़ रहा था. हमारी प्रेम कहानी में हम दोनों ही तेरेज़ा* थे. शीशे में से गुजरती हुई तुम नारंगी सूट में. मैंने तुम्हें जब पहली बार देखा था तब भी तुमने वही सूट पहन रखा था.

मुझे पता है अगर मैं तुमसे कहता मेरा मन उदास है तो तुम कहती तुम्हारा मन क्यों उदास है जबकि हम इतना अच्छा समय साथ में व्यतीत कर रहे हैं.

तुम इस शीशे में चलकर कहाँ जाओगी प्रियम्बदा?

शाश्वत वापसी. निरर्थक. बीता हुआ सब कुछ निरर्थक. क्या हम अपने जीवन में एक प्रयोग कर रहे हैं?

मुझे नीत्शे समझ नहीं आता. वो आवश्यकता से अधिक आशावादी है. कुंदेरा ने अपने इस उपन्यास में हल्केपन और भारीपन के तमाम विमर्श किये हैं और मैं हम दोनों को तेरेज़ा के निकट पाता हूं लेकिन फिर भी मुझे एक नया वाक्य सूझता रहा है.

होने का असह्य भारीपन.

होना जैसे एक भार हो और हम पर लाद दिया गया हो. हम इसे कब तक ढो सकेंगे प्रिय?

यूकेलिप्टस के पेड़ अपने उज्ज्वल गौरव में मेरी आँखों के सामने लहरा रहे हैं. मैं अपने सीट के पास की खिड़की से बाहर देखता हूं. लगभग उसी दिन जैसा मौसम है.

अब मुझे कुछ बोलने का मन नहीं करता. किसी से बात करने का मन नहीं करता. कहीं जाने का मन नहीं करता. न कुछ खाने का मन करता है. यह थोड़ा फ़िल्मी जरूर है लेकिन अक्सर मेरे मन में नीत्शे की वही बात गूंजती रहती है : मदर, आई एम् स्टुपिड.

तुम होती तो कहती मुझे कि मैं मूर्ख नहीं हूँ.

डेस्क पर कुंदेरा की एक नयी किताब सफ़ेद कवर में रखी है. इस किताब के टाइटल का मैं सटीक अनुवाद कर सकता हूँ.

लाइफ इज एल्सवेयर.

जीवन कहीं और है.

जीवन खो गया है. जीवन कहीं और है. यूकेलिप्टस के पेड़ अपनी उज्जवल गरिमा में लहरा रहे हैं और एक घोड़े की गर्दन में बांहे डालकर नीत्शे कह रहा है : मदर, आई एम् स्टुपिड.

और जीवन कहीं और है.

अहस्ताक्षरित.

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आदित्य शुक्ल कवि-गद्यकार हैं. अपने कॉलम प्रतिसंसार में वे पाँच हफ़्ते तक एक-एक चिट्ठी लिखेंगे. ये चिट्ठियाँ प्रेयसियों को और अपने वजूद को सम्बोधित हैं – आप चाहें तो ऐसा मान सकते हैं. आदित्य से shuklaaditya48@gmail.comपर बात हो सकती है. फीचर्ड तस्वीर एड्वर्ड मंच की 1896 में बनाई हुई पेंटिंग है और इसका शीर्षक है “सेपरेशन“. 

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