कविताएँ ::
मोहन कुमार झा

मोहन कुमार झा

सही-गलत

अगर मैं गलत होता,
तो अब तक जरुर
ख़त्म हो गया होता.
परन्तु मैं जीवित हूँ – ‘दूब-सा’
मिट्टी के किसी कण में
अपनी जड़ टिकाए.
मैं कायम हूँ –
किसी पवित्र  मंत्र-सा
सदियों से अब तक
जनता के बुदबुदाते होंठो पर
और मुझे यकीन है
कि मैं अमिट रहूँगा –
प्रेम-पत्र की पंक्तियों सा
किसी के हृदय में,
हमेशा
एक-सा
अक्षर.

विवशता

एक घटना में मौजूद होती हैं कई घटनाएं
कोई भी चीज कभी अकेली नहीं होती
मसलन
हर सुबह जब मैं सो कर उठता हूँ
और अपने खेतों की ओर जाता हूँ
तो मैं अकेला नहीं होता.
परन्तु वापस घर लौटते-लौटते
मैं पूरा भी नहीं रहता.
मेरी कई उम्मीदें
कच्चे फसलों के साथ पक कर वापस आने के लिए
खेतों में ही ठहर जातीं हैं.
मसलन
इस्तरी करते हुए
जब मेरी कमीज़ जल जाती है
तो उसके साथ ही जल जाता है मेरा एक अरमान !
हर बार चुनाव में जब मैं मतदान करता हूँ
तो अपने बेहतर भविष्य की जिम्मेदारी
डाल आता हूँ किसी और के कंधों पर.

मसलन
दिल्ली से ‘मन की बात’ के साथ-साथ
‘जरुरत की बात’ क्यों नहीं की जाती ?

कि रेडियों से आवाज़ों के साथ-साथ
रोटियाँ क्यों नहीं निकला करतीं ?

कि मेरे गाँव में
हल-बैल मिलना
या किसी नौजवान का दिखना
‘गधे के सिर पर सींग उगना’
या
‘कौवों के बीच बगुले सा चमकना’
क्यों हो गया है ?

इतना सबकुछ एक-साथ हो रहा है
और मैं
दाल-रोटी के जुगाड़ में इस कदर व्यस्त हूँ
कि सबकुछ देखकर भी
चुपचाप जीने के लिए विवश हूँ.

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मोहन कुमार झा युवा हैं. बीएचयू, वाराणसी में  रहते हैं और कविताएँ  लिखते हैं. इनसे mohanjha363636@gmail.com पर बातचीत की जा सकती है.

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