प्रतिप्रश्न::

नवल जी की पाठशाला : संजय कुंदन

नन्द किशोर नवल, फ़ोटो साभार : सत्याग्रह स्क्रॉल

नवल जी मतलब हिंदी के प्रख्यात आलोचक डॉ. नंदकिशोर  नवल. 1987-88 में वे पटना के रानीघाट के सुमति पथ में रहते थे. उनका वह मकान मैं कभी नहीं भूल सकता क्योंकि वह मेरे लिए कविता की पाठशाला था. यहीं इस मकान में  मैंने नवल जी से हिंदी कविता के बारे में बहुत कुछ जाना. कविता लिखने की शुरुआत तो मैंने बचपन में ही कर दी थी, पर हिंदी की समकालीन कविता से मेरा परिचय बेहद कम  था. मेरे घर में साहित्यिक माहौल जरूर था, पर वह कविता  का नहीं, गद्य का था. मेरे पिताजी कहानियों और उपन्यासों  के पाठक थे. अपने कार्यालय की लाइब्रेरी से वे कहानी संग्रह  और उपन्यास लाकर पढ़ते थे. पत्रिकाओं में ‘सारिका’ जरूर  मेरे घर नियमित आती थी, लेकिन वह भी कहानी की ही पत्रिका थी. तो मैं समकालीन कथा साहित्य से परिचित था, पर कविता से नहीं. कविता का संसार मेरे लिए लगभग वही था, जो इधर-उधर से या सिलेबस के जरिए मुझ तक पहुंचा था. यानी हिंदी कविता से परिचय था लेकिन उसे एप्रीशिएट  करना नहीं आता था. कविता को समझने के टूल्स मेरे पास नहीं थे. इस समय मुझे एक आलोचक या कविता के एक  अच्छे शिक्षक की जरूरत थी. और संयोग से मुझे डॉ. नंदकिशोर नवल मिल गए. नवल जी उन दिनों प्रगतिशील  लेखक संघ में सक्रिय थे. वे संगठन के कोई पदाधिकारी थे  या नहीं, मझे याद नहीं.

पटना कॉलेज उन दिनों प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा की गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था. कॉलेज के ठीक सामने स्थित पीपल्स बुक्स हाउस इन दोनों सगंठनों के अलावा  एआईएसएफ (ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन) के लोगों का भी अड्डा था, जहां अक्सर इन संगठनों के लोग मिल जाते थे. यहीं आलोचक अपूर्वानंद, रंगकर्मी जावेद अख्तर खां और  श्रीकांत किशोर से मुलाकात हुई और बातचीत में नवल जी के  बारे में जानकारी मिली. लेकिन उसके कुछ ही दिनों बाद यह  पता चला कि डॉ. नवल मेरे ही साथ पढ़ने वाली पूर्वा  भारद्वाज के पिता हैं. खैर जब मैं प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ा तो अपूर्वानंद और अन्य लोगों से नियमित मिलना- जुलना शुरू हो गया. एक दिन अपूर्वानंद जी ने कहा कि नवल जी के यहां जा रहा हूं. चलना चाहो तो चल सकते हो. उस  वक्त मैं साइकिल से था. अपूर्वानंद जी ने कहा कि मैं ऑटो  से चलता हूं तुम साइकिल से सुमति पथ के पास पहुंचो. खैर  मैं उनसे पहले ही सुमति पथ पहुंच गया. उनके आने के बाद  हम दोनों साथ उनके घर गए.  नवल जी का घर काफी बड़ा पर थोड़ा बेडौल था. जैसे मुख्य  दरवाजा काफी छोटा था. उससे घुसते ही एक सीढ़ी मिलती  थी और उसके ठीक बाद एक बड़ा आंगन था. आंगन के एक  सिरे पर एक छोटा सा कमरा था, जो ड्राइंग रूम था लेकिन आंगन के दूसरी ओर दो मंजिलों पर कुछ बड़े कमरे थे. हम  छोटे से ड्राइंग रूम में आ गए. और यहीं पहली बार मैंने  नवल जी को देखा. वह नीली लुंगी और पूरी बांह वाली  बनियान पहने हुए थे. लुंगी और बनियान एकदम धुली हुई  चमक रही थी. नवल जी के चेहरे पर भी एक चमक थी.  उस वक्त मुझे नहीं पता था कि उनका वह छोटा सा ड्राइंग  रूम मेरे लिए कविता का क्लासरूम बनने वाला है. उस दिन के बाद से नवल जी के यहां मेरा आना-जाना लगा रहा. उन  दिनों शाम में कई लोग नवल जी की बैठक में जुटते. इनमें अपूर्वानंद, प्रो. तरुण कुमार, जावेद अख्तर खां, विजय कुमार  तिवारी, सच्चिदानंद प्रभाकर आदि नियमित आने वालों में थे. मेरे मित्र युवा आलोचक संजीव कुमार और आशुतोष कुमार भी  कभी-कभार आया करते थे.

संजय कुंदन

नवल जी के यहां उस समय की साहित्यिक हलचलों पर बात   होती रहती थी. सबसे ज्यादा चर्चा नामवर सिंह की होती थी.  सच कहा जाए तो मैंने नवल जी के जरिए ही नामवर सिंह के  महत्व को समझा. नामवर जी ने किस तरह हिंदी कविता के  मूल्यांकन की एक नई दृष्टि दी, यह मुझे वहीं पता चला. साहित्य के कई विवादों और लेखकों के निजी जीवन के कई  अध्याय भी खुले. मैं कुछ बोलने की बजाय चुप रहकर बस  सुनता रहता था. उन्हीं दिनों मैं समझ पाया कि इस समय  अरुण कमल, राजेश जोशी, मनमोहन, उदय प्रकाश, मंगलेश डबराल, इबार रब्बी, असद जैदी, विष्णु खरे, विष्णु नागर, ऋतुराज आदि लिख रहे हैं. रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह,  शमशेर और नागार्जुन उस वक्त वरिष्ठ कवियों के रूप में स्थापित हो चुके थे. कुल मिलाकर प्रगतिशील हिंदी कविता  की एक मुकम्मल तस्वीर मेरे सामने खिंचती चली गई। यहां मैं जिस कवि का नाम सुनता, उसका संग्रह खरीदकर पढ़ता  था. एक दिन नवल जी ने कोई कविता संग्रह मेरे हाथ में देखा तो कहा अगर किसी कवि को पढ़ रहे हो तो उसे पूरा पढ़ो. फिर मैं एक कवि को चुनकर उसकी सारी किताबें  जुटाकर पढ़ने लगा.

समय के साथ जब नवल जी से नजदीकी बढ़ी तो मैं अपनी  जिज्ञासाएं रखने लगा जो शायद वहां बैठे लोगों को किशोर  सुलभ लगती होंगी. पर नवल जी मेरे सवालों से कभी परेशान  नहीं होते थे, वे उनका काफी गंभीरता से जवाब देते थे.

एक बार मैं उनके घर पहुंचा, तो वे ड्राइंगरूम में नहीं थे लेकिन वहां और लोग बैठे हुए थे. साहित्य में विचारधारा पर  बहस चल रही थी. मैंने कोई सवाल कर दिया. तभी सामने से नवल जी निकले. उनके साथ चाची (उनकी पत्नी) भी थीं. वे  लोग तैयार होकर कहीं जा रहे थे. मेरा सवाल सुनकर नवल जी रुक गए. उन्होंने उस सवाल का जवाब देना शुरू किया. चाचीजी परेशान हो रही थीं. वह बार-बार घड़ी की ओर इशारा  कर रही थीं. लेकिन नवल जी पूरा जवाब दिए बगैर नहीं गए.  फिर अंत मे उन्होंने कहा, ‘ये नए लोग हैं। इन्हें समझाना  जरूरी है.’

नवल जी के समझाने का ढंग बहुत अच्छा था. वे विस्तार से  और विषय पर टिके रहकर बात करते थे और उनमें भाषा का  पाखंड या विद्वता के प्रदर्शन की मंशा कभी नहीं  दिखी.  शायद इसलिए उनकी कक्षाएं रोचक होती थीं और  विद्यार्थी उनसे बेहद प्रसन्न रहते थे. वे अपनी बात रखने के  लिए रोचक प्रसंगों का इस्तेमाल करते थे. वे जब संस्मरण सुनाते तो संबद्ध व्यक्ति को एकदम सामने ला खड़े करते थे. जैसे नागार्जुन के बारे में उन्होंने कई बातें बताईं, जिससे  एक महान कवि के मानस को समझने में मदद मिली.

राजकमल चौधरी के बारे में तो मैं जो भी जानता हूं, उन्हीं के  जरिए जानता हूं. लेखन के शुरुआती दिनों में मैं कई बार  निराश हो जाता तो वो मेरा हौसला बढ़ाते. उन्होंने बताया कि  लेखन किस तरह जीवन पर असर डालता है. और यह भी कि  लेखन अपने आप में एक मूल्य का सृजन है. उन्होंने  राजकमल चौधरी का उदाहरण देते हुए कहा कि समाज की  सोच और रुचियों पर असर डालने के लिए लगातार और काफी ज्यादा लिखने की जरूरत है. एक बार पटना के ही एक  कवि ने मेरी कविता पर टिप्पणी करते हुए कहा कि मेरी  कविता की भाषा ठीक नहीं है. मैंने उसी दिन नवल जी से  पूछा, ‘कविता की भाषा कैसे ठीक होती है?’ उन्होंने कहा, ‘भाषा की चिंता न करने से.’ मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र को  समझने में भी मुझे उन्हीं से मदद मिली. उनकी कई बातों से  मैं सहमत नहीं हो पाता था, फिर भी मैं कोई प्रतिवाद नहीं  करता था. मैं सोचता था कि खुद अध्ययन करके उसका हल ढूंढूगा.

नवल जी से मैंने जाना कि सृजनात्मकता श्रम और अनुशासन के साथ मिलकर ही पू्र्णता प्राप्त करती है. वह योजना बनाकर लिखते और एक-एक किताब पर खूब मेहनत करते. बाद में नवल जी वहां से थोड़ी दूर गुल्बी घाट के एक मकान में चले गए. वहां भी मैं उनसे मिलने जाता था, लेकिन वहां सुमति पथ वाले मकान जैसी बैठकी फिर नहीं लग पाई. या लगती भी होगी तो मैं उसका हिस्सा नहीं रहा क्योंकि मैं दिल्ली चला आया.

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संजय कुन्दन  प्रतिष्ठित कवि-कथाकार हैं.
इनसे sanjaykundan2@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

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