संपादकीय ::
बालमुकुन्द
गए कुछ वर्षों से कई साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से साक्षी बनता रहा हूँ। आम तौर पर ऐसे आयोजन भाषा, साहित्य, संस्कृति, इतिहास जैसे विभिन्न विषय केन्द्रित होते हैं लेकिन इन आयोजनों में गाहे-वगाहे एक प्रश्न, एक चिंता बार-बार सम्मुख आती रही है, और वह है लोगों में ‘पढ़ने की परम्परा’ दिनानुदिन कम होते जाने का प्रश्न। पुस्तकों की बिक्री निरन्तर कम होने की चिंता। पाठकों, श्रोताओं की संख्या में लगातार आ रही कमी की चिंता। ये ऐसे प्रश्न हैं, जो प्रायः हर आयोजन में सुनने को मिलता है। कभी-कभी आयोजकों के दावों और भाषा-साहित्य के लिए उनके द्वारा दी जा रही सेवाओं पर सोचता हूँ फिर खुद से यह प्रश्न करता हूँ कि ऐसा क्यों हो रहा है जबकि ये लोग लगातार प्रयास कर रहे हैं ? इसमें तो उत्तरोत्तर सुधार देखने को मिलनी चाहिए थी? आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन याद आ रहा है। द्विवेदीजी का एक लेख है— ‘मनुष्य ही साहित्य का अंतिम लक्ष्य है’, जिसमें वो भाषा में ‘सेवा’ शब्द को लेकर लिखते हैं— “हमलोग जब हिन्दी की ‘सेवा’ करने की बात सोचते हैं, तो प्राय: भूल जाते हैं कि यह लाक्षणिक प्रयोग है। हिन्दी की सेवा का अर्थ है उस मानव-समाज की सेवा जिसके विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम हिन्दी है। मनुष्य ही बड़ी चीज है, भाषा उसी की सेवा के लिये है।” अर्थात हिंदी के परिपेक्ष्य में ही बात करें तो हमें हिंदी भाषियों की सेवा के बारे में सोचना चाहिए। हम उनलोगों की सेवा करेंगे, हिंदी की सेवा भी स्वतः ही हो जाएगी।
भाषा संवाद के लिए सबसे सार्थक और सर्वश्रेष्ठ माध्यम है। जब हमारे मन में कोई विचार प्रकट होता है तो उसे अभिव्यक्त करने के लिए भाषा की आवश्यकता होती है। प्लेटो ने सोफिस्ट में विचार और भाषा के संबंध में लिखते हुए कहा है कि “विचार और भाषा में थोड़ा ही अंतर है। विचार आत्मा की मूक या अध्वन्यात्मक बातचीत है और वही शब्द जब ध्वन्यात्मक होकर होठों पर प्रकट होती है तो उसे भाषा की संज्ञा देते हैं।” हम भाषा में अपनी अभिव्यक्ति लोगों तक पहुँचाते है। बिना भाषा अपने मन की बात लोगों तक पहुंचाने के बारे में सोचना ही असंभव प्रतीत होता है। कभी-कभी सोचता हूँ जब भाषा नहीं रही होगी तब कैसे लोग संवाद करते होंगे ? एक फ़िल्म है, फिलहाल उसका नाम ध्यान में नहीं आ रहा। उसमें फ़िल्म के नायक और नायिका एक-दूसरे की भाषा नहीं समझते और इसके बावजूद दोनों में प्यार हो जाता है। यह फिल्म दोनों के बीच संवाद के लिए एक कॉमन भाषा नहीं होने से हुई कठिनाइयों, रिश्ते में आयी दूरियों के बारे में दिखलाती है। बावजूद इसके अंत में दोनों प्रेमी एक संग हो जाते हैं। यहीं भाषा की सार्थकता समझ में आती है। भाषा चीजों को परस्पर जोड़ती है, जीवन को सरल बनाती है, जीवन में प्यार घोलती है। यह अलग बात है कि हम मनुष्य इसका इस्तेमाल नफरत फैलाने से लेकर, दंगा भड़काने, गाली-गलौज और अन्यान्य अनावश्यक वस्तुओं के लिए भी करते रहते हैं। किन्तु भाषा फिर भी हमें स्वतंत्रता देती है। यह हमारे स्वविवेक पर निर्भर करता है कि हम उसका कैसा इस्तेमाल करते हैं। और एक हम मनुष्य प्रजाति हैं कि भाषा को जंजीरों में जकड़ना चाहते हैं, जबकि भाषा चाहती है पानी की तरह बहना, खुले आकाश में उड़ना पंक्षियों की तरह ।
भाषा के प्रश्न को हमेशा मैं इसी खुलेपन के साथ देखता रहा हूँ, इसे पेचीदा बनाकर प्रस्तुत करने के पीछे, मेरे हिसाब से निश्चित रूप से लोगों की खास तरह की मानसिकता काम करती है। जब पढ़ना शुरू किया, आरम्भ से ही हमें पढ़ाया/सिखाया जाता रहा कि हिंदी हमारी मातृभाषा है, हमारी राष्ट्रभाषा है। थोड़ी समझदारी आने पर यह समझते देर न हुई कि हमें गलत शिक्षा दी जा रही है। हिंदी न हमारी मातृभाषा है, न ही हमारी राष्ट्रभाषा। दरअसल परिभाषा ही गलत पढ़ाया जाता रहा।
यह देश एक विविधता सम्पन्न देश है। मात्र भाषाई दृष्टिकोण को केंद्र में रखकर बात करें तो दुनिया का कोई भी देश भारत की भाषाई विविधता की बराबरी नहीं कर सकता। हमारे देश में कुल 1652 भाषाएं/बोलियां हैं (1961 की जनगणना के अनुसार)। हालाँकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343, राजभाषा अधिनियम 1963 (यथा संसोधित 1967) के अनुसार आठवीं अनुसूची में कुल 22 भाषाएं हैं। संविधान स्वीकृत इन 22 भाषाओं को समान अधिकार प्राप्त हैं। हिंदी भी इनमें से ही एक है। हालाँकि भारत गणराज्य की केंद्र सरकार की आधिकारिक भाषा हिंदी है। इसके अतिरिक्त कई राज्य जैसे बिहार, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान की राज्य भाषा भी हिंदी है। कई लोग इसका भी अर्थ नहीं समझते। राज्यभाषा, राजभाषा और राष्ट्रभाषा तीनों अलग-अलग चीजें हैं। हमें इनके अंतर समझने होंगे। बहरहाल यह सर्वस्वीकृत है कि देश भर में संवाद के लिए सर्वश्रेष्ठ विकल्प के रूप में हिंदी ही उपलब्ध है। देश भर में सर्वाधिक बोली जानी वाली भाषा। आपको हिंदी आती है तो आप देश के किसी भी हिस्से में जा सकते हैं, घूम सकते हैं, रह सकते हैं— वहाँ हिंदी मात्र से आपका काम चल जाएगा।
जहाँ तक हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात है, तो यह लोगों के ऊपर जबर्दस्ती और थोपा गया निर्णय होगा। बीते वर्ष हिंदी दिवस की पूर्व संध्या पर एक अखबार समूह ने वार्ता के लिए बुलाया था जिसमें पटना के कई चर्चित साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी उपस्थित थे। वहाँ कुछ लोगों ने आनन-फानन में हिंदी को राष्ट्रभाषा बना देने की बात उठाई। चूकि अवसर हिंदी दिवस का था और बातें हिंदी को केंद्र में रखकर की जा रही थी इसलिए वहाँ मेरा इस बातपर हस्तक्षेप करना लोगों को थोड़ा अटपटा जरूर लगा बावजूद इसके मुझे चुप रहकर इस एकपक्षीय बात को सुन लेना उचित नहीं लगा था और मैंने इसपर अपनी असहमति जाहिर की थी। यह असहमति आज भी है। देश के कई हिस्सों में हिंदी नहीं बोली जाती। वहाँ की बड़ी या यों कहें तो अधिकांश आबादी हिंदी नहीं समझती। इस लिहाज से हिंदी कहीं से भी राष्ट्रभाषा के फ्रेम में सटीक नहीं बैठती। यह उनलोगों पर हिंदी थोपने जैसा होगा, ठीक वैसे ही जैसे हमारे ऊपर अंग्रेजी थोपी गयी। एक देश, एक भाषा का यह सरलीकरण ही सही नहीं है। कई देशों में तो एक देश, एक राजनैतिक पार्टी भी हैं और अन्य चीज़ें भी; क्या हम हर चीजों में अन्य देशों का अनुकरण करेंगे? क्या देश अनुकरण फॉर्मूले पर आगे बढ़ रहा है? भारत एक विविधताओं से सुसम्पन्न देश है। विविधताएं हमारी संस्कृति में हैं, भाषाओं में हैं, लोक-व्यवहार, खान-पान, पहनावों में हैं। हमारे देश की यही तो खासियत है। इसे हम क्यों नष्ट करना चाह रहे हैं? हिंदी जैसी भाषा का होना हमारे लिए गौरव की बात है। देश भर में बहुलांश में लोग हिंदी बोलते हैं। देश भर में हिंदी सम्पर्क की भाषा है। राजकीय कामकाजों की भाषा है। हमें इसे लोगों के ऊपर थोपने से अधिक उनतक हिंदी को पहुंचाने की आवश्यकता है। प्राचीन काल से चली आ रही हमारी गौरवशाली साहित्यिक कृतियों से उनका परिचय कराना है। हिंदी से उन्हें खुदबखुद प्रेम हो जाएगा। इससे इस भाषा की स्वीकार्यता भी बढ़ेगी और क्षेत्र विस्तार भी होगा।
वर्तमान समय, एक अर्थपरक समय है। यहाँ हर व्यक्ति अर्थ के लिए जी रहा है। हर वस्तु में वो अर्थोपार्जन के विकल्प ढूंढता है। देश में प्रयुक्त वर्तमान शिक्षा प्रणाली इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। शिक्षा ज्ञान के लिए नहीं, शिक्षित होने के लिए नहीं अपितु रोजगार के लिए होकर रह गया है। शिक्षा विभाग में मूलभूत सुधार अत्यंत जरूरी है। मनुष्य का मानसिक विकास उसके बचपन से होता है। हमें स्कूलों में बच्चों को रोजगार दिलाने के साथ एक शिक्षित मनुष्य बनाने की भी शिक्षा देनी चाहिए। भाषा को लेकर भी प्राथमिक स्तर से ही गम्भीरता से सोचने और बच्चों को सचेत करने की जरूरत है। उनसे हिंदी में अधिक से अधिक बात करनी चाहिए। सोशल मीडिया के इस युग में जब फेसबुक, व्हाट्सएप जैसी जगहों पर हाय-हेल्लो, गुड़ नाईट-गुड़ मॉर्निंग और अवसर विशेषों पर अंग्रेजी में ही संदेश प्रेषित किए जाते हैं, अंग्रेजी के औपनिवेशिक भार को छोड़कर हिंदी को प्रश्रय देने की आवश्यकता है। स्कूली किताबों के साथ-साथ बच्चों को मानवीय शिक्षा की हिंदी किताबें, हिंदी पत्रिकाएं पढ़ने के प्रति प्रेरित करना होगा, उनकी रुचि जगानी होगी। जहाँ तक रोजगार की बात है, कवि मित्र अंचित कहते हैं— “भाषा से रोजगार की अपेक्षा गलत है। बचपन से ही बच्चों को हिंदी किताबें पढ़ाएं। कोई भी भाषा रोजगार नहीं देती। भाषा को रोजगार की दृष्टि मात्र से देखना ही गलत होगा। पहले घरों में चंपक, बालहंस, नंदन जैसी पत्रकाएँ आती थी, बच्चे पढ़ते थे, यह दौर अब भी आना जरूरी है।” इस समय जो शिक्षा दी जा रही उसमें ‘ज्ञान’ के लिए बेहद कम और रोजगार के लिए अधिक चीजें दी जा रही है। शिक्षा को, और भाषा को भी मात्र रोजगार से जोड़कर नहीं देखनी चाहिए। आज हमारे समक्ष जो तमाम तरह की समस्याएं हैं, उसके मूल में भी कहीं न कहीं ये चीजें विद्यमान हैं।
हम जिस समय में जी रहे हैं वह सूचना, तकनीकी का युग है। डिजिटल युग। जहाँ दुनिया कुछ क्लिक्स मात्र में आपके सामने होती है। चीजों के डिजिटलाजेशन से चीजें सरल हुई है। उसमें भी खासकर भाषा और हिंदी के लिए तो डिजिटलाइजेशन काफी फायदेमंद साबित हुआ है। इससे हिंदी का क्षेत्र अधिक व्यापक हुआ है। फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग्स, वेबसाइट्स, ई-पोर्टल्स लगातार अपने-अपने स्तर से भाषा-साहित्य को प्रचारित-प्रसारित करने में लगे हुए हैं। इन ई-पोर्टलों के माध्यम से हिंदी के क्षेत्र में बहुत विस्तार हुआ है। बहुत सारे लोग किताब नहीं होने की स्थिति में बहुत कुछ नहीं पढ़ पाया करते थे। सभी किताबें खरीदनी भी सम्भव नहीं। ऐसे में इन पोर्टलों, वेबसाइटों के माध्यम से लोगों तक चीजें आसानी से उपलब्ध हो जाया करती हैं और वो अपनी रुचि के अनुसार अपने लिए आवश्यक कंटेंट सुविधापूर्वक जुटा पाते हैं। क्लासिक्स से लेकर वर्तमान समय में लिखी जा रही रचनाएं इन माध्यमों से क्लिक मात्र में हमारे कम्प्यूटर या मोबाइल स्क्रीन पर उपलब्ध हो जाया करती हैं। कई न्यूज़ पोर्टल्स भी हैं जहाँ देश-दुनिया की खबरें देखी, पढ़ी जा सकती है। इन माध्यमों के सम्भव होने से हिंदी की पहुंच निश्चित तौर पर लोगों के बीच बढ़ी है। और यह उम्मीद की जा रही है कि इससे हिंदी का प्रचार-प्रसार दिनानुदिन और बढ़ेगा।
अंत में, तमाम हिंदी भाषा-भाषियों से यह अनुरोध करना चाहूँगा कि राजकाज की भाषा घोषित होने के बाद भी हिंदी सरकारी दफ्तरों में प्रयोग में नहीं है। हम अपने-अपने स्तर से जहाँ कहीं भी हों इसे प्रयोग में लाएं। शिक्षा के लिए या फिर रोजगार के लिए या दैनन्दिनी के अन्य कार्यों में भले ही हमें अंग्रेजी में लिखना, बोलना, काम करना पड़ता हो लेकिन इन सबके बावजूद हम अपनी भाषाओं को न भूलें। घर में हमेशा अपनी मातृभाषा में बात करें। ऐसी स्थितियों में घर से बाहर लोगों से हिंदी में बात करें। हिंदी साहित्य को पढ़ें। कहते हैं भाषा संस्कृति की संवाहक होती हैं, भाषाएं बचेंगी तभी संस्कृतियाँ बचेंगी। संस्कृतियाँ बचेंगी तभी इस देश की विशेषता कायम रह सकेगी। बाजारू या पॉपुलर के पीछे न जाकर क्लासिक्स को चुनें। क्लासिक्स पढ़े। हिंदी में भी एक से एक विश्व स्तरीय कंटेंट मौजूद हैं। हिंदी पट्टी के लोगों को अंग्रेजी को देखते हुए ‘हीन भावना’ का शिकार होने की कोई जरूरत नहीं है, न ही उन्हें अन्य क्षेत्रीय भाषा में लिख रहे लोगों को उपेक्षा के भाव से देखने की आवश्यकता है। आज ये क्षेत्रीय भाषाएँ हैं तभी हिंदी इतनी सुसम्पन्न नज़र आती है। इसकी सम्पन्नता बनाये रखना हमारा दायित्य ही नहीं, नैतिक जिम्मेवारी भी है।
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बालमुकुन्द मूलतः कवि हैं और हिंदी एवं मैथिली दोनों में समान रुचि और गति से लिखते हैं। उनसे mukund787@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।