कविता ::
अमन त्रिपाठी

तुम बहुत वर्षों की मेरी पृथ्वी

वह—
प्रकृति का सारा ‌अदृश्य
और सारा दृश्य—
प्रकृति-स्वरूपा!

उसकी ‌कोशिकाओं का‌ बनना-टूटना
फूलों का खिलना-मुरझाना
उससे ‌गुजरना
महाअरण्य से गुजरना

उसने
यानी प्रकृति ने
एक बार सोचा, कि
इस धरती ‌के एक करोड़ ‌मनुष्य
मर क्यों नहीं जाते
और हिसाब ‌लगाकर निराश हो गई
फिर भी बचे रह जाएँगे
इतने अरब और इतने करोड़

फिर वह निराश रहने लगी या उदास
या बीमार

अपनी निराशा में उसने बताया कि इतने लोग
चलाना चाहते हैं उससे चक्कर
मुझे ‌सुनाई दिए शनि के वलय

अगर‌ वह‌ स्थूल शरीर की है
तो‌ वह पृथ्वी जैसी‌ गुरु है
यदि ‌उसके बाल घुंघराले हैं
तो वे पहाड़ों ‌से‌‌ रास्ता बनाती नदियाँ हैं
अगर उसके पेट में गाँठें हैं
तो ‌वह विषाक्त नदियों ‌की‌‌ अम्लीय ‌खदबदाहट है
अगर‌‌ उसका माथा उन्नत है
तो‌‌ वह विशाल मैदान है
जिस‌ पर तपस्या कर रहे हैं ‌पर्वत‌रूपी
नर और नारायण
उसकी ‌आवाज़ अगर भीगी है
तो वह चार अरब साल पुरानी वह महावर्षा है
जिसने धरती ‌का‌ सीना ठंडा ‌किया

एक महाद्वीप ‌पर‌‌ लगी ‌आग जब
सारे महाद्वीपों में फैल रही थी
तब वह किसी ‌अग्निकुंड‌ की भाँति
जाज्वल्यमान थी
(मानो अपनी ही आग में जलने को उद्धत
कोई ‌दुर्दम्य‌‌ प्रतिभा)

जंगलों की ‌आग बुझी और
एक विशाल धुँआ व्याप्त हो गया समूची पृथ्वी पर

फिर वह निराश रहने लगी या‌ उदास
या बीमार

अपनी उदासी में उसका हास्य-बोध
चिड़ियों की चहचहाहट-सा चमकता

अभी वह या तो घायल बीमार कुत्तों को
बचाने निकली है
या किसी हाथी की मृत्यु पर शोक-संतप्त
किसी तरह अपना ध्यान बँटा रही है
या अपने ‌प्रकृति-स्वरूप से अनभिज्ञ
प्रकृति ‌की ही तरह‌ खीझ‌ रही है
मनुष्यों पर

यदि ‌वह‌ क्रोध में है तो मातृवत् है
यदि वह करुणा में है तो मातृवत् है
निजतम क्षणों में मातृवत् है
यदि वह मातृवत् है तो प्राकृतिक है

अमूमन वह निराश रहने लगी है या उदास
या बीमार—

प्राकृतिकों! उसके स्वास्थ्य को प्रार्थना करो
पेड़ लगाकर
वृक्ष! उसे ठंडी हवा दें!
नदी! उसे साफ पानी दे!
बादल! उसे सुवर्षा दें!
धरती! उसे धैर्य दे!
प्रकृति! उसकी रक्षा करें!
प्रकृति! अपनी रक्षा करें!
ईश्वर ‌तुम हो या नहीं
प्रकृति! तुम तो हो हमारी ‌भाषा में ‌प्रकृति,
उसकी ‌रक्षा करो
वह, जो है प्रकृति ‌का‌ सारा अदृश्य
और‌ सारा दृश्य
प्रकृति-स्वरूपा.

•••
अमन हिंदी के सुपरिचित कवि हैं. उनसे laughingaman.0@gmail.com पर बात हो सकती है. इस कविता का शीर्षक रविंद्रनाथ ठाकुर की कविता ‘वसुंधरा’ की एक पंक्ति से लिया गया है.

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