कविता ::
अरुण श्री

सारे उत्सव स्थगित

मैं प्रेम में हूँ कि मछली है कोई नदी के बाहर और जिन्दा है।
तुम साथ हो मेरे कि मैं साथ के स्वप्न में हूँ।

बारिश की कोई बूँद नहीं टपकी हमारे होठों पर आधी-आधी।
किसी दूब ने हमारे पाँव नहीं चूमे साथ-साथ।
मेरी आँखों में पड़ी रेत कभी तो न किरकिराई आँखें तुम्हारी।
हम निकले ही नहीं घरों से अपने-अपने,
और लिखते रहे—
किसी साझा गंतव्य के लिए कितनी ही कविताएँ।
तुमने गुनगुनाया मेरा नाम अक्सर लेकिन पुकारा नहीं कभी।

प्रेम हमारा कहानी भर लेकिन कहानियों से अलग है कितना!

एक अकेला पहाड़ मैं नुकीले शिखर वाला, कितना अकथ!
कितनी कहानियाँ बाँचती तुम—
किसी आसमान से उतरी नदी जैसे!
जैसे पेड़ भर जीवन उग आया हो मेरी पथरीली कहानी में।

लेकिन—
मेरी छाती पर नहीं उग सकती थी तुम्हारे पाँव बंधी यात्रा-रेखा,
जहाँ अंकुराता है कोई पेड़, वहीँ ठूँठ हो जाता है एक दिन।
पैमाने अलग होते हैं सड़क की गति नापने के,
पहाड़ के विस्तार का अलग होता है मापदंड।
हम दोनों के लिए अलग तो होनी ही थी परिभाषा संबंधों की।

तुम्हारी परिभाषाओं पर एक आश्वस्ति सा प्रेमिल स्पर्श तुम्हारा,
कुछ और ऊँचा कर देता मेरे उन्नत माथे को।
मेरे ह्रदय के अँधेरे खोह को और गहरा कर देता वियोग।
तुम्हारे लौट आने की मौन प्रतीक्षा में—
मैंने कभी नहीं माना कि गाड़ी का पहिया होता है प्रेम,
कि फूल अपने माली के सूखे हुए दिन बिसरा दे—
अपनी खिली हुई रातों में मौसम संग अठखेलियाँ करते हुए।

मैंने बाग के आँचल में बहारों के किस्से सुने,
माटी में मिल चुके माली की कहानी अनकही ही रह गई…
पहिए की देह पर बीती कठिन यात्रा के निशान बचे हैं।
हरेपन का अभीष्ट पोसती नदियों के गर्भ में—
शेष तो बचे होंगे उनकी पहाड़ी यात्रा के रेतीले संस्मरण भी!

तुम एक नदी जो चीर गई छाती मेरी,
तुम्हारे माथे गोदा गया समुन्दर और हम दोनों ही चुप रहे।
तुम्हारी हर कराह पर मुरझाए तो होंगे रात बिस्तर बिछे फूल?
…और देखो कि मेरी नींद भी न उचटी।
तुम भी तो मुस्कुराती रही सारा दिन, छनकते रहे पाँव घायल।

रात अगर तोड़ दिए थे क्रूर अँगुलियों ने तने तार धनु-देह के,
तो सुबह कहाँ से उपजा था वह मादक संगीत मुस्कुराहटों का?
तुम नदी थी तो सूख क्यों नहीं गई?
मैं पहाड़ था तो क्यों न हो गया रेत-रेत?
यह प्रेम था तो कैसे होता गया वह सब कुछ जो तय था—
और हम सहमत नहीं थे?
यह प्रेम था तो कैसा प्रेम था कि विष हो गया मेरे लिए!
तुम्हारे लिए अपराध हो गया प्रेम।

प्रेम :
तुम्हारे उन आँसुओं सा—
जिन्हें मार दिया तुमने अपनी मुस्कुराहटों तले कुचलकर।
या फिर द्वार अगोरता कोई कुत्ता रहा होगा प्रेम,
जो हर आहट पर खत्म होती उम्मीद बटोर कुहुँकने लगता—
पट्टे के रंग पर इतराता हुआ।
सबसे बच गया जूठन प्रतिफल उसकी तपस्या का।
आते जाते दुलार देना राजदुलारी की नादानियाँ रही होंगी।
शयनकक्ष की रंगीनियों में नहीं रखा जा सकता था याद उसे।

प्रेम मुझे कभी क्षमा न करे मेरी इस कठोरता के लिए।
लेकिन सुने—
कि प्रेम के नाटक में नेपथ्य भर जिया गया मुझे,
कि अकेलेपन का अभिशाप जिया मैंने जीवन के रंगमंच पर।

मैं :
एक मछली जिसे जिन्दा रहना है पानी बिना,
वह पहाड़ जिसने पिघला दिए थे तुम्हारे लिए शिखर अपने,
एक सूख रहा पेड़ जो अब नदी के रास्ते में नहीं पड़ता।

तुम नदी थी,
तुम्हारे लिए रास्ता बदलने सा आसान होता होगा मृत्यु-शोक।

मुझे देखो कि विदा को शमशान की आग जितना जिया मैंने,
तुमने पर्यटक के वैराग्य जितना।
यह कितनी असंज्ञेय मूर्खता कि मैंने लौट आने के गीत रचे।
कितना कौशल-पूर्ण था वह आत्मसमर्पण तुम्हारा—
कि त्याग कहलाया,
कि तुमने गढ लिया एक नया सर्वनाम और उसकी संज्ञा हुई।

…अब लौट कर मत आना—
कि मुझे नहीं है प्रतीक्षा तुम्हारी,
आँसुओं में विसर्जित किया मैंने प्रेम का यह पवित्र अवशेष।
वस्तुतः—
जो बीत गया प्रतीक्षा की तरह, मृत्यु का उत्सव था।

तुम्हारी मृत्यु के विरोध में—
मैं अपनी मृत्यु तक स्थगित करता हूँ जीवन के सारे उत्सव।

•••

अरुण श्री कवि हैं। एक कविता संग्रह ‘मैं देव न हो सकूँगा’ वर्ष 2015 में प्रकाशित है। उनसे arunsri.adev@gmail.com पर बात हो सकती है।

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