लेख ::
अंत का दृश्य और अदृश्य : अंचित

नींद के तंग आकाशों की जमी हुई
गर्द से भारी हो उठी है यह छाती.
नमक-जैसे मैले संगमरमर का बादल मेरी
आँखों में कब तक गड़ता-घुलता जाएगा?

— शमशेर 

…दृश्य में क्या है?  अपने आसपास क्या है, कैसे है और इन संदर्भों में किन निष्कर्षों तक पहुँचा जा सकता है, इसकी विवेचना, उस लघु की विवेचना है जो वृहत की तरफ़ इंगित कर सकती है. कला और संस्कृति से जुड़े, उनके मानकीकरण से जुड़े, उनके होने से जुड़े जितने भी प्रश्न हैं सब पुराने हैं, हाँ, पर परिदृश्य बदलते हैं, बदले हैं, बदलते दिखते हैं. दो भारी शब्द हैं, कला और संस्कृति और दोनों के बीच के सम्बन्ध, उनकी प्रतिबद्धता, उनका राजनीतिक मत क्या है और जो है क्यों है, ये प्रश्न भी अप्रासंगिक बना दिए जा रहे हैं शायद. (Deliberately लिख देता हूँ यहाँ).

इस विषय पर लिखने में दो चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. कम से कम. एक तो यह कि क्या बिना व्यक्तिगत हुए लिखा जा सकता है? दूसरा, रीऐक्शनेरी हो जाने से मूल के आँकलन से भटक जाने का ख़तरा होता है. इनकी चर्चा भी शुरू में इसीलिए क्योंकि इस परिदृश्य में इन संदर्भों में लिखते हुए लेखक इसी दिशा में जाते हैं और फिर यही सबसे आम आरोप भी हैं जो इस तरह के लेखन पर लगाए जा सकते हैं. लेखक का उद्देश्य पहला तो क़तई नहीं है और आरोपों के बारे में यह सांत्वना भी है कि जिसकी विवेचना करनी है, वहाँ तत्काल के अलावा कोई समय नहीं होता.

पिछले लेख से आगे बढ़ते हुए, उसकी आख़िरी पंक्ति यहाँ लगाता हुआ आगे बढ़ता हूँ – “क्या अंत का जो दृश्य नुमायाँ है, उसका अदृश्य यही है, अनंत है और समय का भक्षण कर चुका है?” ज़ाहिर है एक बहुत पुरानी बात को मैं उत्तरआधुनिकतावाद के संदर्भ में इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहा हूँ.  फूकोयामा ने एक किताब में लिखा कि,
“What we may be witnessing is not just the end of the Cold War or the passing of a particular period of post-war history, but the end of history as such … That is, the endpoint of mankind’s ideological evolution and the universalization of Western liberal democracy as the final form of human government.”

क्या समस्या यहीं हैं? चूँकि इतिहास समाप्त हो चुका है और सिर्फ़ यही क्षण और तत्काल बचा है, कला और संस्कृति को भी इसी तत्काल ने सिडूस कर लिया है? जैसे आनंद की परिभाषा नियत हो चुकी है, वैसे ही कला की संस्कृति इसी तात्कालिकता का शिकार हो गयी है? ज़ाहिर है यह भी कोई नई बात नहीं है. अडोर्नो,बहुत पहले साउंड फ़िल्मों और अमेरिकी हॉलीवुड कल्चर पर लिखते हुए यह बात कह चुके हैं. अडोर्नो के उस लेख में फिर भी एक तरह का मानकीकरण है, एक सीमा के परे genuine art की कल्पना है जिसका होना कल्चर इंडस्ट्री के बनाए एक जैसे, तात्कालिक-पूँजीवाद-समर्थित-उद्देश्य सिद्धि के लिए manufacture किए उत्पादों के ख़िलाफ़ प्रतिरोध है. ज़ाहिर है, यहाँ एक टुकड़ा उम्मीद बाक़ी है, और यह आश्वस्ति कि युद्ध अभी चल रहा है.

लेकिन अब? इतिहास के अंत के बाद? अगर संघर्ष का होना हमारे भीतर के निर्दोष का बचे रहना था, स्वर्ग की सम्भावनाओं में बने रहना था – संघर्ष के होने का भ्रम पैदा कर युद्ध जीता जा सकता था, बिना इसका भान होने दिए कि हम हार गये – पूँजीवाद ने यही स्ट्रैटेजी अपनाई? फूकोयामा ही एक और जगह लिखते हैं कि अब मनुष्य ऊब की वजह से संघर्ष करेंगे. (“They will struggle for the sake of struggle. They will struggle, in other words, out of a certain boredom: for they cannot imagine living in a world without struggle.”)
इसको दूसरी तरह से पढ़ते हैं. अब सही होने से ज़्यादा ज़रूरी सही लगना नहीं है क्या?  क्या पूँजीवाद ने यह सुविधा प्रदान नहीं कर दी है? दूसरों की तुलना में सही लगना, दूसरों को अपने सही का बखान करना – इस तरह से यह भी कि हर व्यक्ति के लिए जो वह नहीं है, वह दूसरा है- सेल्फ़ का ग्लॉरिफ़िकेशन, यानी आत्ममुग्धता, और यह भी कि कलेक्टिव का हार जाना- उसका भ्रम की तरह ही उपस्थित होना!

तो क्या स्वर्ग से गिर कर नरक पहुँच जाने के बाद “all is not lost” पाया जा सकता है इसीलिए इस भ्रम का बने रहना कि स्वर्ग-निकाले के बावजूद स्वर्ग ज़द में है, कि संघर्ष चल रहा है? पिछले लेख से जेमिसन के कहे को याद करिए.
एक आख़िरी प्रश्न- क्या समकालीन हिंदी साहित्य को, जिसका सबसे पॉप्युलिस्ट और मजॉरिटेरीयन मैनिफ़ेस्टेशन फ़ेसबुक पर है, इन प्रश्नों के ज़रिए देखा जा सकता है?

क्रमश: 

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अंचित कवि-गद्यकार-अनुवादक हैं. उनसे anchitthepoet@gmail.com पर बात हो सकती है. अंचित द्वारा प्रत्येक सप्ताह श्रृंखलाबद्ध रूप से लिखे जा रहे इस विस्तृत लेख का पहला भाग यहाँ से पढ़ें : अंत का दृश्य और अदृश्य

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