‘मेरा दागिस्तान’ से कुछ उद्धरण ::

प्रस्तुति :: स्मृति चौधरी

रसूल हमजातोव ने कहा था “कविगण इसलिए पुस्तकें लिखते हैं कि लोगों को युग और अपने बारे में, आत्मा की हलचल के बंध में बांध सकें, उनको अपनी भावनाओं और विचारों से अवगत करा सकें.”  यह उपन्यास सुखद एवं संजीदा किस्सों से भरा है, बिल्कुल वैसा जैसा हमारा जीवन.  यह उपन्यास किसी महाकाव्य से कम नहीं लगता क्योंकि, उनकी भाषा भी काव्यात्मक है. कहानी का कोई निश्चित ढांचा या प्लाट नहीं है, और यही बात इसे बाकी कहानियों से अलग करती है. इस उपन्यास के बारे में एक समाचार पत्र के लेख का शीर्षक था ‘जीवन की प्रस्तावना’, और इस सूक्ष्म दृष्टि से लिखे गए उपन्यास के लिए इससे उचित शीर्षक नहीं हो सकता था.

अगर तुम अतीत पर पिस्तौल से गोली चलाओगे,
तो भविष्य तुम पर तोप से गोली बरसायेगा !

 

कविताएँ, जिन्हें जीवन भर दोहराया जाता है,
एक बार ही लिखी जाती हैं!

जो कविताएँ आसानी से लिखी गयी थीं,
उन्हें पढ़ना कठिन होता है.
और जो कविताएँ मुश्किल से लिखी गयी थीं,
उन्हें पढ़ना आसान होता है.

वायलिन के तारों को सुर में करना ही काफ़ी नहीं,
उसे बजाना आना चाहिये.

ज़मीन का होना ही काफ़ी नहीं, उसे जोतना-बोना आना चाहिये.

यह मत कहो – “मुझे विषय दो.”
यह कहो – “मुझे आँखें दो.”

रसूल हमजतोव की इस किताब को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है. हर मायने में यह अमर किताब है और प्रथम पाठ के बाद भी प्रत्येक पाठ नए अर्थ खोलता हुआ लगता है. 

स्मृति पटना वोमेंस कॉलेज में साहित्य की विद्यार्थी हैं  और कवि भी हैं. उनसे choudharysmriti9@gmail.com पर बात हो सकती है. किताब की तस्वीर स्मृति की खींची हुई है और हमजतोव की तस्वीर  विकीपीडिया से साभार ली गयी है.

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