प्रतिसंसार::
पत्र : आदित्य शुक्ल
[प्रियम्]
प्रियम्बदा, खतों का ज़माना तो कब का गुजर चुका है. ये ख़त तो इसी विशेष आस में लिखे गए हैं कि तुम तक न पहुँचें, फिर भी अगर कभी तुम मेरे पते पर लौटो तो मेरी जगह पर ये ख़त तुम्हारी प्रतीक्षा करते मिल ही जाएंगे. मैंने अपने पुरातन को किसी साक्ष्य की तरह इन ख़तों में ज़ज्ब कर दिया है.
लम्बे समय तक मेरे पास रहने के बाद राजीव भी वापस चला गया. उन दिनों जाने वालों की कड़ी में वह आखिरी था और उसके पीछे का ख़ाली शून्य मेरे पास रह गया. वह जब तक रहा उसके मन में एक हल्की सी लज्जा रहती थी. उसे हमारे साथ रहना हम पर कोई एक बोझ जैसा महसूस होता था. हालांकि ऐसा था नहीं. वह यह जाने बगैर चला गया कि उसके जाने पर घर में एक ख़ाली और हो जाएगी.
मैं तुम्हें प्रियम्बदा क्यों पुकारता हूं प्रियंवदा? एक बार तुमने पूछा भी था. मैंने कहा कि अगर तुम्हारा नाम प्रियंवदा की जगह शिवानी होता तो मैं तुम्हे शिवानी की जगह शिबानी कहकर पुकारता. नाम को इस तरह से बिगाड़कर लेने से अपनेपन का बोध होता है. तुम मेरे लिए प्रियम्बदा ही हो. प्रियंवदा तो इस विश्व में अनेकों होंगी.
तुम खिलखिलाकर रह गयी. पक्के कबि हो तुम. कहा था तुमने. बहुत से लोग कवि शब्द को बिगाड़कर उच्चारण करते हैं – कबि!
राजीव ने जाते वक़्त कई नसीहतें दीं जिनमें एक नाम तुम्हारा भी था.
मैंने भी क्या कभी चाहा कि तुम्हें कोई दुःख मिले?
जब निर्मल पहली बार बंगाल से लौटकर आया था तो सबसे पहले हमारे घर आया था. मैंने उससे कहा कि मुझे बंगाली सिखा दो. तुम हँस रही थी. ये बता पगले क्या क्या सीखेगा? स्पेनिश, जर्मन, फ्रेंच या बंगाली? देखो अगर हो सका तो सभी सीखूंगा. क्यों निर्मल, बंगाली सिखाओगे न?
हां, रबि बाबू. ये पंक्तियाँ याद है न:
आमारे तुमि अशेष करेछ
एमनि लीला तव
फुराए फेले आवार भरेछ
जीवन नव-नव.
टैगोर भी क्या संत आदमी था, यार!
निर्मल जिस दिन आया था उसी दिन की सब बात है. उसके बाद से तुम नहीं दिखी. मुझे तुम्हारा एक आखिरी चेहरा याद है. आंसूओं में गीला. तुम्हारी दो आँखों में आंसू की कुछ बूंदे. वह भी साफ़ साफ़ नहीं याद. तुम जा रही हो. तुम चली जा रही हो. तुम्हारी आँखों में आंसू की बूँदें हैं.
प्रियम्?
और अगले दिन मैं हॉस्पिटल में बेड अचेत पड़ा हूँ. आँख खुलती है तो सामने एक पुलिस वाला बैठा है.
बस कुछ सवाल है.
टैगोर! प्रियम्!!
प्रियम् कहां है निर्मल बाबू? नहीं है. इसका क्या मतलब है निर्मल? पता नहीं. खाना खाकर तुम आराम करो. तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है.
प्रियम् कहां है!!?!
निर्मल मुझे कोई एक उपन्यास पकड़ा देता है. और खाना खाने को कहकर हॉस्पिटल के कैफे चला गया.
उसका जाना पता चलता रहता है. हॉस्पिटल के कॉरिडोर में मुर्दानी खामोशी छायी हुई है. उसके चप्पल की आवाज़ धीरे-धीरे सीढ़ियों से होते हुए कम होती जाती है. तुम्हारा जाना तो पता नहीं चला. तुम्हारे चप्पलों की आवाज़ धीरे धीरे करके ख़त्म नहीं हुई बल्कि एकाएक किसी सन्नाटे में बिला गई.
मैं खाली आँखों से हॉस्पिटल के पर्दे को देखता जाता हूं एकटक. प्रियम् कहाँ है?
दूर कहीं किसी बंगाली गाँव में कोई टैगोर की पंक्तियाँ गुनगुनाता है:
जीबन नव नव.
अहस्ताक्षरित.
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आदित्य शुक्ल कवि-गद्यकार हैं. उनके कॉलम ‘प्रतिसंसार’ के अंतर्गत चिट्ठियों की एक श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है. उसी क्रम में यह पाँचवी और आख़िरी चिट्ठी है. ये चिट्ठियाँ प्रेयसियों को और अपने वजूद को सम्बोधित हैं – आप चाहें तो ऐसा मान सकते हैं. आदित्य से shuklaaditya48@gmail.com पर बात हो सकती है. फीचर्ड तस्वीर- एड्वर्ड मंच की पेंटिंग. आरम्भ के अन्य पत्र यहाँ से पढ़े जा सकते हैं : हल्कापन और भार | सब दृश्य रैंडम है | विदाई की भी एक रस्म होती है | अपमान का भी एहसास होता है