साक्षात्कार ::
अरुण कमल से विश्वजीत सेन

अरुण कमल

कविता के साथ ‘साम्यवाद’ विचारधारा को देखने के पीछे कोई अंतर्निहित कारण है क्या ?

जहां मैं समझता हूँ ‘साम्य’ शब्द एक राजनैतिक अर्थ रखता है. फ्रांस की क्रांति के साथ यह शब्द व्यवहार में आना शुरू करता है और इसका व्यापक प्रचार सोवियत संघ की क्रांति और अन्यान्य क्रांतिकारी आंदोलनों के साथ होता है. अतएव ‘साम्यवाद’ के आदर्शों के प्रति प्रतिबद्ध लेखक ही इस शब्द को अपने सृजन कार्य एवं इस विचारधारा से संबंधित मानकर चलते हैं. किन्तु वैचारिक दृष्टि से मुझे ऐसा लगता है कि कविता के शिल्प एवं विषयवस्तु के ऊपर इसका कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता है. यदि कोई कवि, जो कविता लिख रहा हो, उसके लिए इस शब्द का कोई अन्य अर्थ हो तो इसका यह अर्थ है कि किसी कवि के लिए प्रत्येक वस्तु और सामान का एक जैसा हीं महत्व है. किसी का कोई खास स्थान नहीं है. कोई एक दूसरे से ऊंचा-नीचा नहीं है. अन्य अर्थ में प्रत्येक वस्तु दूसरे के समान है. कूड़े का ढेर भी और पंचसितारा होटल का दस्तरखान भी.

कविता के साथ ध्वनि सामंजस्य, मात्रा सामंजस्य आदि के साथ समन्वय भावना का कोई संबंध है ? आप जो कविता लिखते हैं, वह क्या छंद में होती है ? छंदों को छोड़ कर क्या कविता लिखी जा सकती है ? मात्रा छंद, तुकबंदी एवं गद्य कविता के छंदों में क्या अंतर है ?

प्रथम प्रश्न स्पष्ट नहीं हो पा रहा है. इसलिए दूसरे का उत्तर दे रहा हूँ. मैं छंदों में लिखता हूँ. कोई भी जो प्रकृति से हीं कवि होगा, वह छंदों का व्यवहार करेगा. प्रत्येक उच्चारण में एक शब्द है, भले हीं वह बोधगम्य हो या ना हो. प्रत्येक कविता तथाकथित ‘फ़्री-वर्श’ हो या मुक्त छंद या ‘गद्य कविता’ हो, वह किसी ना किसी छंद में होगी. क्योंकि आपके श्वास -प्रश्वास एक तरंग में आते-जाते हैं, अर्थात एक लय में. एक छंद में. एक क्षमतावान कवि, जो निखालिस गद्य लिख रहा हो, वह भी जानता है कि किस तरह छंदों के आस-पास रहा जा सकता है. यदि इस छंद को एक निश्चित मात्रा में डाला जाय तो यह ‘मात्रा छंद’ में तब्दील हो उठेगा. आप किसी धातु को उसकी ध्वनि द्वारा चिन्हित करते हैं. उसी तरह आप एक कविता की बुनावट को उसके छंदों द्वारा चिन्हित करते हैं.

आप कहते हैं, कविता के अंत में जीरो होकर निकल आना हीं उचित है. इसका क्या तात्पर्य है ?

मुझे नहीं लगता कि कभी मैंने इस तरह कहा है. फिर भी यदि इस बात के साथ मुझे खड़ा होना पड़े तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है. फिर भी कुछ बातें स्पष्ट कर देना जरूरी है. प्रथम तो यह की कवि को शुरू से हीं नाट्य-निर्देशन की तरह होना चाहिए जो पर्दे के पीछे खड़ा हो कर नाखून चबा(कुतर) रहा हो एवं शब्दों को स्वतंत्र होकर काम करने दे रहा हो. कवि को कभी भी मंच पर आकर कोई बयान नहीं देना चाहिए. जो कुछ भी कविता के भीतर से नहीं निकल पा रहा है , वह भी कविता का एक पक्ष है एवं उसे संपादित करना तर्कसंगत नहीं है. सत्तर के दशक के कवियों  की यह आदत हो चुकी थी कि वे कविता के अंत में अप्रत्याशित रूप से उपस्थित हो जाते थे और कविता साहसपूर्ण बयान या सपाट हो जाती थी. कविता की भीतरी बुनावट में कवि का हस्तक्षेप अवांछित होता है. कविता की स्वयं की तार्किकता होती है, जिसके अंत में कवि की जरूरत नहीं होती. एक अच्छे बस कंडक्टर की तरह-एक कवि को बस पायदान पर खड़े होकर यात्रा करनी चाहिए, कभी यात्री सीट पर कब्जा नहीं करना चाहिए.

उत्तर-आधुनिक’ कविता के संबंध में आपकी क्या धारणा/राय है ? आधुनिकता के साथ इसका क्या अंतर है ? उत्तर-आधुनिक कविता के लक्षण क्या-क्या हैं ?

आधुनिक कविता में अन्ततः एक प्रतिवाद का स्वर रहा है जो उत्तर आधुनिक कविता में सम्पूर्णतया अनुपस्थित है. आधुनिक कविता में प्रायः सभी कवि ‘उपस्थित वाक्य’ को खारिज़ करते हैं एवं एक उच्चतर नैतिकता के प्रति झुकाव रखते हैं, चाहे इलियट, रिल्के, या अपोलिनायर हीं क्यों ना हों. आधुनिक कविताओं का एक महत्वपूर्ण कार्य है-गंभीर उत्कण्ठा के साथ नैतिकता को चुनना. उत्तर-आधुनिकता अधिकांशतः नैतिकताविहीन, निरपेक्ष तटस्थता वादी है. ये कविता को सिर्फ शब्द क्रिया के रूप में देखते हैं एवं उसी पर जोर देते हैं. उत्तर आधुनिकता एक झोंके की तरह है. एक अध्याय के रूप में इसे देखना एक भूल है.

क्या आप मानते हैं कि आज की कविता युरोसेंट्रिसम(युरोपकेंद्रित) एवं फार्मलिज़्म से दूर हटती जा रही है ? इस दूर हटने में क्या उत्तर आधुनिकता का हाथ है ?

यदि आपका इशारा भारतीय कविता की तरफ है तो मेरा उत्तर है -हाँ. आज की भारतीय कविता इंग्लैंड आश्रित युरोसेंट्रिक नहीं है. पिछले तीन दशकों से भारतीय कविता का परिचय पूर्व यूरोप, अफ्रीका एवं दक्षिण अमेरिका की कविताओं से हुआ है. नेरुदा, लोर्का, ब्रेख्त, आखमातोमा, बोर्खोस, नेटो, कार्डिनाल-आदि हमारे बहुत नजदीक हैं. अंग्रेजी एवं पश्चमी यूरोप के कवियों की तुलना में.

फार्मलिज़्म के संबंध में बोलूं तो-फार्मलिज़्म आज उतना महत्वपूर्ण या प्रभावकारी नहीं रहा, जितना पहले था. कविता निखालिस फार्मलिज़्म से आज बहुत दूर आ चुकी है. अभी वह अपना वास्तविक कार्य, अर्थात स्वरूप उद्घाटन के बहुत नजदीक आ चुकी है. उत्तर -आधुनिकता को इस परिवर्तन का कारण न बोल कर इसका परिणाम बोलना ज्यादा उचित होगा.

कविता के शिल्प एवं अर्थ में कर्मगत जो परिवर्तन आते हैं, उस परिवर्तन का उत्स कहाँ होता है ? क्या भाषा परिवर्तन के साथ समाज परिवर्तन का कोई संबंध होता है ? कविता में वह किस तरह कार्य करता है ?

बहुत हीं स्वाभाविक तरीके से कहा जा सकता है कि भाषा इस समाज का फल या संयुक्त सम्पति है. एक कवि समाज से भाषा को ग्रहण करता है. किन्तु इतना हीं प्रयाप्त नहीं होता. कवि भाषा को धार देता है और यह धार उसकी स्वयं की होती है. मैंने लिखा है : ‘सारा लोहा उन लोगों का अपनी केवल धार’.

आजकल देखा जाता है कि सारे कलाकार, साहित्यकार, एवं कवि अपने सीमा क्षेत्र से बाहर जा कर भी सक्रिय हैं या activist हैं. जैसे अरुंधति राय नर्मदा आंदोलन में भाग ले रही हैं. जैसे आप एक सक्रिय वामपंथी कार्यकर्ता हैं. स्वाधीनता के पहले लेखक, कवि आदि इस तरह से सक्रिय रहते थे. सामाजिक कार्यों में अंश ग्रहण करते थे. स्वाधीनता के बाद केवल वामपंथी कवियों में हीं यह बात देखी जाती थी लेकिन आज ‘कवि मात्र’ ही किसी न किसी तरीके से इस सक्रियता को बनाये रखने की चेष्टा करते हैं. इस परिवर्तन के संबंध में आपकी क्या राय है ?

अतीत के सारे लेखक अपने ढंग से सक्रिय थे. हिंदी में वामपंथी लेखक जैसे मुक्तिबोध, नागार्जुन, शमशेर किसानों, मजदूरों के आंदोलन में भाग लेते थे. अज्ञेय, रेणु जैसे लोग अ-वाम अर्थात जे.पी. के आंदोलन में थे. समाजवादी भी सक्रिय थे. आजकल का अ-वामपंथी साधारणतः पर्यावरण आंदोलन या मानवाधिकार आंदोलन अथवा एन. जी.ओ. आदि के साथ अपने को जोड़े रखता है जो प्रतिष्ठान विरोधी नहीं भी हो सकता है. ये बने बनाये हुए आर्थिक-सामाजिक दायरे के भीतर हीं कार्य करते हैं. दूसरी तरफ वामपंथी हैं या उनका रहना जरूरी है जो साम्राज्यवाद, प्रतिष्ठान एवं एकाधिकार तथा पूंजी के विरुद्ध हैं. आज सिर्फ सामाजिक रूप से सक्रिय होना हीं जरूरी नहीं है बल्कि राजनैतिक रूप से भी सक्रिय होने की जरूरत है.

 आगे वामपंथी कवि स्पष्ट रूप से राजनीति को अपनी कविताओं में तरजीह देते थे. जिससे अधिकतर समय कविता स्लोगन (नारेबाजी) में तब्दील हो जाती थी. आज देखा जा रहा है कि स्लोगन में कविता होने की प्रवणता बढ़ रही है. स्लोगन और कविता के बीच एक गंभीर द्वंदमय संपर्क है ? इस पर आपकी राय ?

कविता और स्लोगन के बीच एक दु-तरफा रास्ता है. कविता में स्लोगन को एक कच्चे माल के रूप में व्यवहार किया जा सकता है. जैसे अधिकतर वहां व्यवहृत होता है. वैसे हीं एक कविता या उसकी एकाध पंक्ति , जैसा कि कई बार हुआ है, स्लोगन के रूप में प्रतिष्ठित हो जाती है.

अब जहाँ तक मेरी स्वयं की धारणा है, एक विशुद्ध कविता बहुत ही कम संभावना पैदा करती है कि उसे स्लोगन के रूप  में व्यवहृत किया जाय. क्योंकि स्लोगन एक परिस्थिति की समस्त जटिलता का सरलीकृत रूप है. दूसरी तरफ कविता इसी जटिलता का ही अनुसन्धान करती है.

मुक्तिबोध शिल्प के स्तर पर जटिल हैं, कहीं-कहीं दुर्बोध भी. कभी लगता है-वे एक दुर्जेय एवं भयावह मनोलोक व्याख्याता हैं. जबकि उनका जीवन श्रमजीवी मनुष्यों के लिए उत्सर्ग था. इस तरह की कविता लिखने के वाबजूद वे विभिन्न मिलों के श्रमिक यूनियनों में अपने राजनैतिक दायित्वों को निष्ठा से पूरी करते थे. हम क्या कह सकते हैं कि मुक्तिबोध की कविता अपने राजनीतिक जीवन से सामंजस्य बनाए रखती है ? विश्वास के स्तर पर वे मार्क्सवादी हैं किंतु उनकी कविताओं में भारतीय मिथकों की अद्भुत उपस्थिति है. इस द्वैत को आप किस तरह व्याख्यायित करेंगे ?

यह प्रश्न एक विशेष दृष्टिकोण की मांग करता है यानी मार्क्सवाद कवि के पास सहजबोध होना चाहिए एवं अतीत के प्रति उनका कोई आग्रह भी नहीं होना चाहिए. मैं महसूस करता हूँ कि कोई भी कवि जल्द सहजबोधगम्य नहीं होते. तुलसीदास भी नहीं हैं. निराला को समझना भी आसान नहीं है. मुक्तिबोध को भी. यह क्या एक खास प्रक्रिया है , की कोई बड़ा कवि सहजबोध्य नहीं है. जबकि सभी कविताओं के पास ऐसा कुछ ना कुछ जरूर होता है जो अत्यंत अज्ञानी या अशिक्षित मनुष्य के मर्म को भी प्रभावित करता है. कविता शब्द द्वारा लिखी जाती हैं. प्रत्येक शब्द के कुछ न कुछ पूर्व निर्धारित अर्थ रहते हैं, जो सबके लिए बोधगम्य होते हैं. मुक्तिबोध की कविताओं पर भी यह बात लागू होती है. मिथ के संबंध में भी एक मार्क्सवादी को अतीत के प्रति उसी तरह का आग्रह रखना चाहिए जैसे एक आस्तिक रखता है. जिस किसी की उत्पत्ति में मनुष्य का हाथ हो या जिसमें भी मानवीय स्पर्श हो, इस ब्रह्मांड में उस छोटे से छोटे अंश को भी कवि के बक्से में होना चाहिए. उस छोटी सी जगह में प्रभु गणेश अपने सूंड का विस्तार करें या उनका वाहन मूषक अपनी मूंछ से कवि की पीठ का सुरसुरी करे. कोई फर्क नहीं पड़ता.

अरुण कमल सुप्रसिद्ध कवि हैं. उनसे  arunkamal1954@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

(‘कथोपकथन’ से.
मूल बांग्ला से अनुवाद निशांत )

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