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लेख : आदित्य शुक्ल

मध्य वर्ग का दुःख बेहद ही अज़ीब किस्म का होता है. भोजपुरी में एक कहावत है: दो ही सुखी – कि त लक्खू, कि त भिक्खू (सिर्फ दो ही लोग सुखी हैं – या तो लखपति या भिखारी, हालांकि यह जानना बहुत रोचक है कि क्या ये दोनों वर्ग सच में सुखी हैं?).

ये कहावत भारतीय मध्य वर्ग की सामाजिक और राजनैतिक चेतना का बहुत ही सटीक ढ़ंग से निरूपण करता है. आधुनिक विश्व की जो संरचना है उसमें किसी भी समाज का एक वृहद हिस्सा मध्य वर्ग से बनता है. मध्य वर्ग की भी अपनी श्रेणियाँ हैं (उच्च मध्यवर्ग, मध्य मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग). मध्य वर्ग उच्च वर्ग की ओर लगातार देखता रहता है और उसकी अंतिम महत्वाकांक्षा उच्च वर्ग का हिस्सा होने की ही होती है. जैक कुराओक ने अमेरिकी सामाजिक चेतना के बारे में टिप्पणी करते हुए कहा है ‘अमेरिका में साम्यवाद इसलिए सफ़ल नहीं हो सकता कि एक अमेरिकी निर्धन भी रोज झाड़ू लगाते वक़्त मिलिनेयर बनने के ख़्वाब ही बुनता है.’ (साम्यवादकी सफ़लता-असफ़लता अलग विमर्श का विषय है.), भारतीय सामाजिक चेतना भी लगभग इसी अमेरिकी सामाजिक चेतना का एक फूहड़ कैरिकेचर है. उत्तर-आधुनिक विश्व के उपभोक्तावादी विश्व-संघटन में भारतीय मध्य वर्ग एक मासूम क्रूरता का जीवन व्यतीत करता है. किसी भी समाज को समझने के लिए उसके कामकाजी वर्ग की और देखने से उसके बारे में बहुत कुछ पता चलता है. भारत में रोजगार की कैसी सम्भावनाएं हैं?

  • सरकारी उपक्रम, जहाँ पर रोजगार की न्यूनतम संभावनाएं हैं. हर विभाग में न्यूनतम सीट, गलाकाट प्रतिस्पर्धा, और भ्रष्टाचार. सरकारी नौकरियों के स्पोंसर भी अब कोर्पोरेट हो लिए हैं जहाँ पर हर नौकरी के लिए सबसे पहले आपको कोचिंग लेनी पड़ती है, जिन कोचिंग संस्थानों की फीस इतनी अधिक होती है कि उनमें नामांकन ही लेना समाज के सभी वर्गों के लिए सम्भव नहीं रहा. बिना कोचिंग वगैरह किए भी ये नौकरियां निम्न वर्ग के कुछ लोगों को मिली हैं और मध्य वर्ग के पेरेंट्स इन्हीं उदाहरणों का इस्तेमाल करके अपने बच्चों का मानसिक शोषण करने और अपनी असफलताओं को छुपाने का हथियार बनाते हैं.
  • कॉर्पोरेट, भारतीय समाज में एक बहुत बड़ा हिस्सा कोर्पोरेट में नौकरीशुदा है. जिसकी एक वजह राज्य प्रदत्त नौकरियों की संख्या सीमित नहीं होना भी है. बड़ी संख्या में, इंजीनियर्स, डॉक्टर्स, पत्रकार, लेखक, गाइड, अध्यापक, डाटा ऑपरेटर्स, कालिंग एग्ज्यिक्यूटिव आदि जैसी नौकरियां बाहरी उपक्रम, भारतीय युवाओं को मुहैया कराते हैं. इन संस्थानों में भी नौकरी करने वालों के अलग अलग वर्ग हैं – जहाँ पर चपरासी से लेकर सी.ई.ओ. तक की भूमिकाओं की आवश्यकता है.
  • श्रमिक वर्ग,श्रमिक वर्ग के लोग भी अधिकतर उद्योगों में काम करते हैं जहाँ पर उन्हें शारीरिक श्रम करना पड़ता है. ये उद्योग श्रमिकों का हर स्तर पर दोहन करते हैं. श्रमिकों को कम से कम तनख्वाह देना, अधिक से अधिक काम कराना,जब चाहे तब नौकरी से निकाल देना और उनको दी जाने वाली अनिवार्य सरकारी सुविधाओं तक से उनको वंचित रखना.
  • व्यवसायी वर्ग,व्यवसायी वर्ग में फ़िलहाल मैं उन्हें रख रहा हूँ जो लोग छोटी दुकानों से अपना जीवन यापन कर रहे हैं. बड़े व्यवसायी और उद्योगपति तक जैसी हैसियत में पहुँचने के लिए कई अन्य प्रकार के सामाजिक और राजनैतिक समीकरण काम करते हैं जिनपर विस्तार से अलग विमर्श किया जाना चाहिए.

 

रोजगार की इन सीमित उपलब्धताओं में भारतीय मध्य-वर्ग एक बहुत ही कठिन संकट से गुजर रहा है जिसे मैं संक्रमण का दौर भी मानता हूँ. वर्तमान भारतीय चेतना पूरी तरह से पूंजीवाद से आयातित चेतना है जिसमें कोई मौलिकता नहीं है. उदारवादी राजनैतिक संगठनों ने जिस तरह से भारतीय समाज का शोषण किया है उसके प्रत्युत्तर में भारतीय समाज कट्टरता के पक्ष में एकजुट हो गया है.  यहाँ पर मैं आपका ध्यान भारतीय जनता पार्टी के एक बहुत ही लोकप्रिय जुमले की ओर ले जाना चाहूँगा – ‘सत्तर सालों में कांग्रेस ने क्या किया?’ इस सवाल से भारतीय जनता जुड़ पाती है क्योंकि अंततः यह प्रश्न ग़लत नहीं हैं यह अलग मसला है कि इस सही सवाल का भारतीय जनता पार्टी ग़लत इस्तेमाल कर रही है. दिल्ली में सिविल सोसाइटी का उदय, अन्ना आन्दोलन और यूपीए सरकार में हुए तमाम घोटालों के रहस्योद्घाटन ने जनता को यह सही प्रश्न पूछने की दिशा में आगे बढ़ाया लेकिन आपके हाथ में सही प्रश्न भर होना आपको सही दिशा में ले जाने का रास्ता नहीं हो सकता जब तक आप स्वयं उन प्रश्नों की विवेचना और उनके उत्तर की तलाश में नहीं संलग्न होंगे. अन्ना आन्दोलन का सबसे अधिक फ़ायदा किसी ने उठाया तो वह थी भारतीय जनता पार्टी. सिविल सोसाइटी में कुछ होशियार लोग थे जिन्होंने सोशल मिडिया का इस्तेमाल करके जनता को वर्तमान सरकार के खिलाफ़ बरगलाया लेकिन इस तकनीक का सबसे अधिक फ़ायदा उठाया मोदी और अमित शाह ने. अन्ना आन्दोलन नष्ट हो गया, ठीक उसी तरह से जैसे नष्ट हो जाता है कोई भी आन्दोलन और उसकी जगह ले ली एनडीए की ऐसी सरकार ने जो चरित्र में कमोबेश यूपीए जैसी ही थी लेकिन उसने उन प्रश्नों को पूछना शुरू कर दिया जो यूपीए सरकार और कांग्रेस के भारतीय राजनीति में लम्बे एकाधिकार के पतन का कारण बनी.

हालांकि समस्या सिर्फ़ भाजपा-कांग्रेस भर नहीं है. सिर्फ़ भारत पकिस्तान नहीं है. कश्मीर-विवादकोई समस्या नहीं है. हमें ये समस्याएं बने-बनाए भोजन की तरह परोसी जाती हैं जिससे भारत की मासूम जनता के मत का इस्तेमाल ख़ुद को सत्ता में स्थापित करने के लिए किया जा सके.

उदारीकरण, नव-पूंजीवाद, उत्तर-आधुनिक सांस्कृतिक उभार, तकनीक विकास आदि ने प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में एक ऐसा भूचाल ला दिया है जिससे निपटने में वह ख़ुद अक्षम है. भारतीय समाज में रोजगार के जिन अवसरों का ऊपर उल्लेख किया है वे अंततः व्यक्ति को पलायन की ओर उन्मुख करती हैं. नई सदी में जहाँ संघर्ष नव पूँजीवाद और मार्क्सवाद के बीच होना था (मूल कथन पुनर्वसु जोशी, साभार: रचना समय अंक– मिशेल फूको) वह अचानक से नव-पूँजीवाद और कट्टरपन्थ के बीच क्योंकर हो गया है? कहाँ तो इक्कीसवीं शताब्दी में हम ऐसे विश्व की कल्पना कर रहे थे जो हमें साइबरपंक साहित्य और सिनेमा में दिखाया गया और कहाँ यह सदी अल-कायदा और आइसिस से लड़ने की सदी हो गयी. कहाँ तो यह सदी शरणार्थियों की सदी हो गयी. कहाँ तो यह सदी अमेरिका और मेक्सिको के बीच दीवार खड़ी करने की सदी हो गयी. अगर गौर से देखें तो पाएंगे कि कहीं न कहीं आतंकवाद भी पूंजीवाद का ही उपक्रम है. ऐसे में आम जनता जो आतंकवाद के आतंक में जी रही है, एक धर्म विशेष के विरुद्ध संगठित होकर नए किस्म के कट्टरपंथ को बल दे रही है क्योंकि उसे न तो असली समस्या का भान है और न ही उसे उस समस्या को जाँचने के लिए पर्याप्त समय और संसाधन मुहैया कराए जा रहे हैं.

ऐसे में आम लोग पलायन करके अपनी धार्मिक जड़ों की ओर लौट रहे हैं क्योंकि वहां पर एक  ‘सेन्स ऑफ़ बेलोंगिंग’ और ‘एक सेन्स ऑफ़ सिक्योरिटी’ है. लोगों का अपनी जड़ों की ओर लौटने के प्रति आग्रह भी अंततः एक पूंजीवादी पैकेज है जिसमें उनकी असुरक्षाओं का भयंकर दुरूपयोग किया जा रहा है. यह एक वैश्विक फेनोमेना है और भारतीय जनता के विषय में भी यह पूरी तरह से सच है. यही भारतीय समाज (विशेषकर मध्य-वर्ग)का सामाजिक और राजनैतिक संकट है.

यही वजह है कि भारतीय मध्यवर्ग एकजुट होकर भाजपा के समर्थन में लामबंद हो गया है और इस सामाजिक संकट से लड़ने के लिए भारतीय बुद्धिजीवियों के पास भी कोई ठोस ज़मीन नहीं है क्योंकि उन्हें लगता है कि भाजपा या मोदी की बुराई करके वे राष्ट्र या राष्ट्र के पिछड़े लोगों के हित में बात कर रहे हैं लेकिन क्या वे इस भयानक संकट को सम्बोधित कर पा रहे हैं? मेरी समझ में भारतीय बुद्धिजीवी और विशेष तौर पर हिंदी भाषा के बुद्धिजीवी न तो इस संकट को ठीक से समझ रहे हैं और जो समझ भी रहे हैं वे अपने मौकापरस्ती में मगन हैं और इसे सम्बोधित करने का जोख़िम नहीं उठा रहे हैं.

सबसे बड़ी समस्या वहां पर है जहाँ पर समस्या के समाधान के लिए उसके विरोध में ठीक वैसा ही चरित्र अपना लेते हैं जो उस समस्या का मूल चरित्र है. जैसे कट्टरपंथ के जवाब में कट्टरपंथ, फासिज्म के जवाब में फासिज्म, हत्या के प्रत्युत्तर में हत्या आदि. यह चरित्र नासमझ आम लोगों को फ़िर भी शोभा देता है जो अंततः अपना दैनिंदिन जीवन सही-सलामत जीने के मूर्खतापूर्ण संघर्ष में लगे हैं लेकिन बुद्धिजीवियों के बीच भी वही रवैया कतई निराशाजनक है.

विश्व इतिहास, साहित्य और दर्शन से यह समझ में आता है कि हर ‘समयकाल के अपने नासूर’ रहे हैं. बहुत क़रीब से देखने पर इन नासूरों का कोई तात्कालिक समाधान नहीं दिखता. यह हमें एक निराशा में धकेलता है. हम एक धक्का खाकर निराशा के दलदल में गिर चुके हैं लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि निराशा हमें अंततः सत्ता के पक्ष में ला खड़ा करती है इसलिए जागरूकता और सक्रिय चेतन विकसित करना सबसे जरूरी है भले ही बुद्ध की तरह निराशा ही अंतिम भाव हो. भारतीय बौद्धिक समुदाय जिस बाइनरी के अंतर्गत संचालित हैं वह भी कम खतरनाक नहीं और अगर पूरे बौद्धिक समुदाय को भारत राष्ट्र जैसी एक ईकाई मान लें तो उसकी भी सामाजिक संरचना अंततः उसी सामाजिक और राजनैतिक संकट से गुजर रही है जिससे कि पूरा भारत राष्ट्र.

लेकिन जागरूक जनता को निराशा के पलों में भी हमेशा ‘बेहतरी की ओर’और‘दमन के विरुद्ध’ चलने के प्रति सचेत रहना चाहिए.

[ आदित्य शुक्ल कवि-गद्यकार-अनुवादक हैं.
इनसे shuklaaditya48@gmail.com  पर  संपर्क किया जा सकता है. प्रयुक्त तस्वीर : गूगल.]

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