कहानी ::
परवीन फैज़ जादा मलाल
अनुवाद और प्रस्तुति : श्रीविलास सिंह

परवीन फैज़ जादा मलाल | तस्वीर : ptc

“यह पूरे चार किलो है।”
जब उसने ये शब्द सुने, उसके होंठो पर एक मुस्कराहट फैल गयी और उसने अपने छोटे से बेटे की ओर देखा…..
दुकानदार ने बात जारी रखी :
“बहन ये रुपये लो….पूरे आठ रुपये हैं।”

उसने अपनी चादर से अपना हाथ बाहर निकाला और दुकानदार से रुपये ले लिए। अपराह्न की धूप में वह तेजी से अपने घर की ओर चल पड़ी। वह तेज चल रही थी और उसने अपने बेटे का हाथ कस कर पकड़ रखा था। उसकी पकड़ इतनी कसी हुई थी कि उसके बेटे ने एकाएक कहा :
“माँ मेरा हाथ दुख रहा है।”
“तुम्हारी माँ सब कुछ तुम्हारी भलाई के लिए ही करती है बेटा।” उसने अपनी पकड़ ढीली करते हुये कहा। उसकी मधुर आवाज में स्नेह छलक रहा था। उसको अपना प्यारा देश छोड़े हुए पूरा एक साल बीत चुका था। वह अब एक अजनबी देश में दिन रात भटक रही थी। सुबह तड़के ही वह और उसका नन्हा बेटा टेंट से निकल जाते थे और देर अपराह्न तक शहर की गलियों और बाजारों में कागज बीनते रहते। जब शाम ढलने को होती, वे किसी दुकान पर दिन भर का इकट्ठा किया हुआ कागज बेच देते। सामान्यतः उन्हें चार या पांच रुपये ही मिल पाते थे  लेकिन आज वह खुश थी क्योंकि उसे आठ रुपये मिले थे। किसी किसी अपराह्न उसका हाथ खाली ही रह जाता था क्योंकि सारे कागज हवा के कारण किसी अनजानी जगह को उड़ गए होते थे वैसे ही जैसे उसकी खुशियाँ उड़ गई थी। लेकिन आज अपने टेंट की ओर लौटते समय उसका मन हल्का था। घर के रास्ते में ही उसने कुछ रोटियां, चाय और थोड़ी शक्कर खरीद ली थी। जब उसने अपने हाथों की ओर देखा, अभी भी उसके पास दो रुपये बचे थे। काले और धूसर रंग के तंबुओं की पंक्तियों को पार करती हुई वह अपने तम्बू तक पहुँच गयी। जैसे ही उसने तंबू के दरवाजे पर लटके पुराने पर्दे को उठा कर भीतर प्रवेश किया, शाम की नमाज़ की अज़ान होने लगी। उसने वज़ू किया और नमाज़ पढ़ी फिर लालटेन जलाने लगी। यह देख कर कि उसमें तेल नहीं था, वह अपने बेटे की ओर मुड़ी और बोली :

“बेटा, लालटेन में तेल नहीं है। ये पैसे और बोतल लो और जा कर दुकान से थोड़ा तेल ले आओ।”
उसका बेटा खड़ा हो गया, उसने अपनी माँ से पैसे और बोतल ली और बोला :
“ठीक है माँ, मैं लाता हूँ…”

“जल्दी आना। रास्ते में दूसरे बच्चों के साथ खेलने मत लगना । जल्दी ही अंधेरा हो जाएगा।”
इसके पश्चात वह बैठ कर अंगीठी में आग जलाने लगी। जैसे ही आग जली, उसके विचार भी प्रज्वलित हो उठे। स्मृतियाँ उसे किसी दुःस्वप्न की भांति दुखी करने लगीं। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे और आग की जिह्वा वैसे ही हवा को चाटने लगी, जैसे निष्कासन और विस्थापन की लपटें उसके घायल हृदय में सदैव धधकती रहतीं थीं और अपने देश वापस लौटने का विचार उसे घेर लेता था।
उस अंधेरे तंबू में, दिन-रात वह अनिश्चित भविष्य के लिए चिंतित रहती। वह इतिहास में बहुत पीछे छूटे अतीत के बारे में नहीं  बल्कि पिछले साल के समय के बारे में सोचने लगती जब उसके पास सब कुछ था; एक प्यार करने वाला पति, एक घर, सम्मान और सबसे महत्वपूर्ण- उसका अपना एक देश। लेकिन अब उसके पास अपने छोटे से बच्चे के अतिरिक्त कुछ नहीं बचा था। वह नहीं जानती थी कि उसके अन्य रिश्तेदारों का क्या हुआ, वे अब कहाँ थे, और वे जीवित भी थे अथवा नहीं। जो बात उसे सबसे अधिक परेशान करती थी वह यह थी कि उसके बेटे को वह शिक्षा नहीं मिल पा रही थी जो उसे मिलनी चाहिए थी। वह उन दिनों के बारे में सोचने लगी जब वह अपने देश में एक प्रारंभिक विद्यालय में शिक्षक थी। वह दस बच्चों की कक्षा को पढ़ाया करती थी और अब उसका स्वयं का बच्चा अनपढ़ था। उसने उसे यदा कदा थोड़ा बहुत पढ़ाने का प्रयत्न किया था फिर भी उसकी सबसे शक्तिशाली उत्कंठा उसकी उचित शिक्षा को जारी रखने की थी। पर वह बात ही अलग थी। अपने तंबू में जब वह अपने विद्यालय के अन्य बच्चों के बारे में सोचती, उसको अपने दुख से मुक्ति मिल जाती क्योंकि तब उसका दुख औरों के शोक के समान धरातल पर आ जाता और वह स्वप्नों में खो जाती।
हर सुबह की भाँति, इस सुबह जब उसने अपने बेटे के साथ अपना तम्बू छोड़ा, उसका सामना ठंडी हवा के झोंके से हुआ। आकाश में बादल घुमड़ रहे थे और बारिश की कुछ बूँदें धरती पर पड़ीं थीं। जैसे जैसे बादल घिरने लगे उसके भीतर चिंता की अनुभूति उभरने लगी। बरसात के दिनों में वे अधिक दूर नहीं जा सकते थे और यदि भारी वर्षा होती तो कागज के टुकड़ों के भीग जाने का खतरा था। जल्दी में वे मुख्य बाजार की ओर चल पड़े। जब वे वहाँ पहुँचने को थे, बारिश तेज हो गयी। वे एक बंद दुकान के आगे रुक गए, उसका बेटा उससे सट कर खड़ा हो गया और वे बारिश के रुकने की प्रतीक्षा करने लगे।  एक घंटे के पश्चात् जब वर्षा रुकी, वे शहर की सड़कों और गलियों की ओर कुछ सूखे कागज पाने की प्रत्याशा में चल पड़े। किन्तु अपराह्न तक उन्हें कहीं सूखे कागज नहीं मिले।  उन्होंने खाना भी नहीं खाया था क्योंकि कल के सारे रुपये ख़त्म हो चुके थे। अपराह्न में उसके बेटे को भूख लग आयी। यह सब कितना विचित्र था; इस वर्ष उसने और उसके बेटे ने बहुत से दिन भूखे रह कर बिताये थे। अधिकांश दिन उनके पास पिछले दिन के रुपये नहीं बचे होते थे। तब उसे और उसके बेटे को अपराह्न और कभी कभी देर साँझ तक का समय सुबह की चाय के सहारे ही बिताना पड़ता था, जब वे कागज बेच कर वापस तम्बू में लौटते थे तब कुछ थोड़ा खाने को मिलता था।  उसने अपने बेटे को इसकी आदत डलवा दी थी लेकिन कुछ समय से वह अधीर होने लगा था और इस बात का विरोध करने तथा लगातार स्वयं के भूखे होने की शिकायत करने लगा था। वह उसे सांत्वना देने और समझने का प्रयत्न करती किन्तु असफल रहती थी।  उसे समझ में नहीं आता था कि वह क्या करे। किससे मदद मांगे, किस दुकान के आगे रुके अथवा राहगीर के आगे अपनी बात रखे? इस तरह की चीजों के लिए साहस की आवश्यकता थी और कोई बहुत बहादुर व्यक्ति भी ऐसा आसानी से नहीं कर सकता था। जब वह स्वयं के ऐसा करने की कल्पना भी नहीं कर पाती थी तो वह वास्तविक जीवन में ऐसा कैसे करती ?  किन्तु अब उसका बेटा और भी अधीर हो गया था। एक दो बार उसने किसी दुकान को भी चुना और किसी आते जाते राहगीर की ओर भी देखा, किन्तु वह उन से कुछ कह न सकी। ठीक उसी क्षण उसके मस्तिष्क में एक अन्य विचार आया और उसने स्वयं से कहा, “यदि मैं किसी के घर का दरवाजा खटखटाऊँ तो शायद कुछ हो सके।” यह विचार कम से कम कुछ संभव तो लग रहा था क्योंकि बहुत अधिक संभावना थी कि कोई स्त्री ही आ कर दरवाजा खोलती। यह बात ध्यान में रख वह एक मकान की ओर चल पड़ी। उसके हाथ काँप रहे थे और उसकी देह पसीना पसीना हो रही थी। वह असमंजस में थी दरवाजे पर दस्तक दे कि न दे। उसका ह्रदय दो भागों में बटा हुआ था ; एक ओर एक माँ की ममता और स्नेह था तो दूसरी ओर लज्जा और भय। वह संभ्रम की स्थिति में थी और अपने ह्रदय की धड़कन सुन सकती थी।  उसका मुंह सूख गया था। अंत में उसने दरवाजे पर दस्तक दी।  कुछ क्षणों पश्चात् एक वृद्ध महिला ने दरवाजा खोला। कंपकपाती आवाज में उसने उस वृद्ध महिला से कहा :
“मेरा बेटा….. मेरा बेटा बहुत भूखा है और मेरे पास बिलकुल रुपये नहीं हैं, यदि आप कुछ खाने…..”
इसके पूर्व कि वह अपना वाक्य पूरा कर पाती वृद्ध महिला यह कहती हुई घर के भीतर चली गयी कि : “यह घर तुम्हारा ही है।”

आधे खुले दरवाजे से वह देख सकती थी कि वृद्ध महिला वापस आ रही थी। उस महिला के एक हाथ में कटोरा था और दूसरे में कुछ रोटियाँ।  ठीक उसी क्षण, घर के भीतर से उसने एक युवा लड़की की आवाज सुनी : “माँ मैंने तुम्हें कई बार कहा है कि तुम यह खाना भले कुत्तों को दे दिया करो, पर इन काबुली लोगों को मत दो….”
जब वृद्ध महिला अपने हाथ में खाने का कटोरा लिए हुए दरवाजे तक पहुँची, उसने देखा कि वह स्त्री और उसका नन्हा बेटा वहाँ से जा चुके थे।  वह महिला अधखुले दरवाजे से बाहर निकल आयी और रास्ते के दोनों ओर देखने लगी। उसने देखा कि वे माँ-बेटे गली के आखिरी छोर पर पहुँच चुके थे…..।

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परवीन फैज़ जादा मलाल कंधार की लेखिका हैं।  1988 में उन्होंने अफगानिस्तान छोड़ दिया और पाकिस्तान चली गयीं, पहले पेशावर और बाद में कराँची जहाँ वे वर्त्तमान में रहती हैं। उनके तीन काव्य संग्रह 1987 से 2000 के मध्य और एक कहानी संग्रह ‘सफ़ेद पन्ने’ 1996 में प्रकाशित हुए हैं।  प्रस्तुत कहानी इसी संग्रह से है। प्रस्तुत अनुवाद पश्तो से एंडर्स विंडमार्क द्वारा किये गए अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित है। श्रीविलास सिंह सुपरिचित कवि-कथाकार-अनुवादक हैं, उनसे sbsinghirs@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। 

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