कविताएँ ::
शंकरानंद 

भाई 

 एक

जो मेरा सगा था अब मेरा दुश्मन हो गया है
उसे मेरा चेहरा पसंद नहीं
इसलिए जैसे ही नजर सामने पड़ती है
मोड़ लेता है मुँह

बहुत दुःख होता है यह देखकर कि
जिसे गोद में संभाला
अब वही दिखा रहा है आँखें
अब वही चीख रहा बात बिना बात
अब वही जता रहा है अपना होना इस शर्त पर कि
पिता के गुजर जाने के बाद
जो है सो वही है।

दो

दोनों की देह में दौड़ता लहू एक है
दोनों की देह में धड़कता दिल एक
भाई तो भाई होता है
गिरने पर जो दौड़ पड़ता है उठाने के लिए
वह कैसे बदल जाता है समय के साथ
पहले सोचता था तो सोच भी नहीं पाता था

अब मगर विश्वास हो रहा है कि
सब कुछ एक होने के बाद भी
कोई भरोसा नहीं
जो भाई है वह हमेशा भाई ही बना रहेगा
हो सकता है एक समय के बाद
वह इतना बदल जाए कि
हर उस तस्वीर को फाड़ दे जिसमें कभी साथ खड़े थे
हम दोनों।

तीन

चीजें तो आती हैं और समय के साथ खत्म हो जाती हैं
पैसे आते हैं और एक दिन खाली हो जाती है जेब
जमीन अपनी जगह रहती है
उसपर लिखा नाम बदलता रहता है

हर वह चीज जो साथ खरीदी थी
कैसे उस पर किसी एक का हक हो गया पता नहीं चला
खाने की थाली जिसमें एक साथ उठते थे कौर
वह टूट गई है
गिलास जिसमें साथ पीते थे हम पानी
उसकी गर्दन टूट चुकी है

हर वह चीज जो हमारे एक होने की निशानी थी
वह या तो टूट चुकी है या फेंक दी गई है
अब जो बचा है वह कोरा कागज है
उस पर न मेरे हाथ के निशान हैं
न भाई के प्यास की छाप

भाई नहीं चाहता कि

उसके साथ मेरी कोई छाप दिखे
ऐसा कि लगता ही नहीं

ऐसा कभी भाई हो सकता था हमारा
वह टूट गए बर्तन की तरह

फेंक आया है अपनेपन की गंध
कूड़े के ढेर पर बाहर।

चार

वह मेरा रास्ता रोकता है
वह मेरा बंद करता है पानी
वह मेरे चलने की छाप से चिढ़ जाता है
वह मेरे बोलने से परेशान हो जाता है

हर वह चीज जो मुझसे जुड़ी है
भाई को वह चुभती है कांच की तरह
वह इतना बेचैन लगता है हमेशा कि
लगता है जैसे मैं जो चल रहा हूँ तो
चल रहा हूँ उसकी छाती पर
मैं जो बोल रहा हूँ तो
गिर रहा है उसके कान में पिघला हुआ शीशा
मैं जो हँस रहा हूँ तो
गिर रहा है उसकी देह पर हजार मन पानी

कभी मैं उसके चेहरे को देखकर मुस्कुरा देता था उसके साथ
जब वह छोटा था
अब वह बड़ा हो गया है
इतना बड़ा कि उसका गर्व आसमान छूता है
उसके सामने अब किसी की कोई जगह नहीं
वह हो गया है इतना तानाशाह कि
लगता ही नहीं हम एक गर्भ से पैदा हुए हैं।

पाँच

दीवारें तो आँगन में नहीं पड़ीं
दिमाग में पड़ गई हैं इतनी मजबूत कि
हवा की सिसकी भी नहीं हो सकती है पार

हम एक घर में पैदा हुए
हम एक घर में बड़े हुए
हम एक साथ झेलते आए हैं दुःख
हमने खुशियाँ साथ बांटीं हैं

वह सब कुछ जो एक होने पर हो सकता है
हमने साथ देखा
लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ उसका
इतना दुःख और इतनी तकलीफ़ के बाद भी
नहीं बचे आँसू उसकी आँखों में
नहीं बची सूई की नोक जितनी भी करुणा
नहीं बचा भरोसा
नहीं बचा प्यार

दरअसल किसी चीज के लिए कोई जगह नहीं बची
बच गई तो लालसा
बच गया तो अहंकार
बच गई तो घृणा
बच गया तो द्वेष

भाई को देखकर लगता नहीं कि
यह भाई था कभी मेरा।

छः

भाई मेरे दुःख से खिल जाता है
उसे इंतजार रहता है कि
कब मैं परेशान हो जाऊं और
उसके कलेजे को ठंडक मिले

मैं सोचता हूँ तो सोच नहीं पाता कि
जिस पिता में इतनी दया थी कि
एक चींटी तक को नुक़सान नहीं पहुंचाया कभी
उनकी संतान इतनी निष्ठुर कैसे हो सकती है
कैसे हो सकती है इतनी निर्दय

गिरने पर तो उठाने के लिए
दौड़े आते हैं दूसरे लोग
भाई मेरा गिरने पर मुसकुराता है
गाता है खुशी में

उसे देखता हूँ तो यही लगता है कि
पत्थर में बदल चुकी है उसकी आत्मा
उसका दिल रेत से भर गया है

सूख गया आँख का पानी
सूख गई हैं उसकी सांसे
तभी वह इतना नीचे गिर पाया है।

सात

एक समय था कि उसका होना सुकून देता था
एक समय है कि उसका होना गड़ता है नींद में
धीरे-धीरे यही तो होता है
जब बबूल के कांटे बिछ जाएं आँगन में तो
कैसे कोई चैन से रह सकता है

फूल के होने के भरोसे में जिसे सींचा था
वह फूल तो नहीं हुआ
कुछ और हो गया
जैसे एक जंगली पौधा जिसकी जड़ें बहुत गहरी हैं
जैसे एक बंजर जमीन
जैसे एक सूखी हुई नदी
जैसे एक पंख कटी चिड़िया

माथे पर मुकुट भी कभी भारी लग सकता है इतना कि
उसे उतार देने के सिवा दूसरा कोई विकल्प नहीं बचता।

आठ

मुझे दुःख इसका नहीं है कि अकेला पड़ चुका हूँ
दुःख इसका है कि

मुझे तबाह करने वाला दूसरा नहीं
अपना सगा निकला

दूसरे होते तो लड़ लेता
दूसरे होते तो कर लेता दो दो हाथ
दौड़ता कचहरी
लड़ता मुकदमा

हर एक तरीका अपनाता जो कोई भी
न्याय पाने के लिए अपना सकता है
लेकिन वह तो भाई है
उससे लड़ने में बहुत कठिनाई है

फिर भी अपनी जान बचाने के लिए कर सकता हूँ जो
वह करना पड़ेगा
हक की ख़ातिर लड़ना पड़ेगा।

नौ

एक समय के बाद कुछ याद नहीं रहता
रिश्ते टूट जाते हैं
टूट जाती है हर डोर जिससे बंधा होता है घर

एक ही छत के नीचे रहते हैं दो लोग
जो देखना नहीं चाहते एक दूसरे को

एक समय के बाद बदल जाती है भाषा
एक समय के बाद बदल जाता है व्यवहार
एक समय के बाद अपनी परछाईं से भी डर लगता है
एक समय के बाद कुछ अच्छा नहीं लगता

फिर कुछ महीने बीतते हैं
फिर कुछ बरस बीतते हैं
फिर सब हो जाता है सामान्य
फिर लगता है कि इस पृथ्वी पर मैं था अकेला
मेरा कोई भाई दरअसल था ही नहीं।


शंकरानंद हिन्दी के बहुचर्चित कवि हैं। उनसे shankaranand530@gmail.com पर बात हो सकती है। 

Categorized in:

Tagged in: