कविताएँ ::
तनुज

तनुज

मुक्तिबोध की बीड़ी

मैं पी रहा हूँ
विभागाध्यक्ष की अनुपस्थिति में
विभागाध्यक्ष के कमरे में
मुक्तिबोध की वे बीड़ियाँ
जो वह छोड़ गए थे
दशकों पहले –
(क्षमा याचना,
नहीं आ पाऊंगा कविता पाठ के लिए ) की तरह…!

मुक्तिबोध जो
भाषा में बीड़ी मांगने के लिए,
घूमते रहे होंगे उस दुनिया में…
जहाँ सभ्यताएं बीड़ी पीकर
कविताएँ लिख दिया करती थीं।

कितनी सरल होगी
उस यायावर की मुखाकृति,
जब कविता न कहने के एवज़ में-
किसी भी सड़क चलते चालक कुली, बावर्ची, भांड, भिखारी, या रंडियों से –
वो मुखाकृति
अधीर होकर मांग लेती होगी
मुफ़्त में
बीड़ी और माचिस…

कविता न कहने के एवज़ में
वे किसी भी लैंप-पोस्ट के नीचे
सुनसान पगडंडियों पर बैठकर
कश- दर – कश, कश्मकश
फूंकते होंगे फंतासियां…

आंखें तलाशती होंगी
वह पार्टनर जिसे मालूम होगा
उसकी पॉलिटिक्स क्या है।
एक अनुकरणीय अभ्यार्थी…
जिसके साथ वे बांट सकते थे
कभी न ख़त्म होने वाली बीड़ियाँ …

इस तरह सोचने के क्रम में
मैं यथास्थिति में पहुंच जाता हूं
उनके पास उनकी फंतासी
उनकी भाषा उनके आचरण में,

कि तभी
कमरे में टंगी मुक्तिबोध की तस्वीर
धू-धू करके जल उठती है
जैसे जला देंगी यह मठ,
जैसे ही फूंकता हूँ
विभागाध्यक्ष के कमरे में
मुक्तिबोध की बीड़ियाँ।

अंजलि सरकार

पूर्वजों की रेशमी टोपी,
मिनटों पहले बनाई गई नयी धारणा
तय कर दी गई तुम्हारी अस्मिता।
ग्रेड शीट
असफल प्रेमों का इतिहास
और जाने क्या-क्या
गोगो-पेपर में भरकर फूंकती हो
अंजलि सरकार!

नकली माल,
शांतिनिकेतन में गांजे की जगह जानती हो मिलता है नकली माल
फ़िर भी अथाह फूंकती हो
कहकर ईश्वर की दुनिया फूंक रही हैं, अंजलि सरकार !

फ़ोन उठाओ ,
हफ़्ते हो गए
बहस थी एक
बीच में छूट गयी

डायलेक्टिक्स और एपिस्टमोलॉजी के अतुकांत अंतराल…
तुम्हारे बारे में सोचते -सोचते
आत्मा घिस चुकी है मौन,
संत्रास के इस बौद्धिक स्लेट पर,
बढ़ रहे हैं नाख़ून, भूल रहा हूँ भाषा।

आओ तुम्हें पागल करता हूँ,
केदारनाथ में बसे उस निर्मोही की जटाओं में
गंगा और चंद्रमा
मैं खोंस आया था,
बताकर।

बंद है कैंपस, मिलो फिर भी
हृदय या खरगोश जो भी बुलाता हूँ,
सुनो! साथ आओ,
किसी उपेक्षित कवि की कविता लेकर
भूलने के लिए स्मृतियों का यातना-शिविर
साथ आओ।

मैं तमाक से बीज हटाने में इस बीच हो गया हूँ माहिर
दम भरेंगे साथ बैठकर
नेरुदा को कहेंगे शुक्राना
बटरफ्लाई – लेक के ठीक सामने
दौड़ायेंगे कल्पनाओं के घोड़े
देखेंगे
मछलियों का शृंगार
जीवन की हंसी थामकर
कह सकेंगे हम दोनों,
तमाम विदेहियों से अधिक करते हैं
एक दूसरे से प्यार !

बची रहेगी सुखद संभावना
टहलते हुए कैंपस में
कला भवन के मुख़्य-द्वार के ठीक सामने
दस बजे के बाद कौंध जाएगा रवींद्रनाथ।

आहाहाहाहा!

दरवाजे

इस कमरे का दरवाजा
खुलता किस ओर है..?
खुलता है भी या नहीं !

खुलना अगर दरवाजे की
नियत में नहीं होता,

तो क्या फ़िर,
दरवाज़े को दीवार से
अलगा कर देखने की तमीज़ में,
दीवारें भी दरवाज़े की तरह
खुल सकती थीं ?

फ़िर क्या भय है और
क्यों विस्मय है ?
जो बंद कमरे में
कभी न पढ़ी गयी
कविता की तरह
अटका हुआ यह ‘मैं’ है ?

यह दरवाजा क्या
किसी वंचित कवि
का गला है ?
वह मंच पर खड़ा है,
शब्द नहीं बन रहा है।

फिर मैं?
मैं क्या उस कवि का हृदय
जिस हृदय को मिली है
अनंत आंखें
और आख्यान..!
जो डरता है दरवाजे के
खुल जाने से…

दरवाजे के खुलने पर
जहाँ होना था आंगन,
वहां…
शायद जल ही जल है…!
नदी है, तालाब है, जो भी है
सागर है !

हम्म!!
तभी तो आत्मा को भी
डूबने का डर है।

जब मैं संदेश से अधिक
कुछ भी नहीं…
फिर दरवाजे के बाहर
क्यों इतना सब कुछ है?

होना तो सबको चाहिए
था सफ़ेद खरगोश की तरह
कोमल,
कपास की तरह हल्का…
चिंता की तरह आसान…

कल्पना के ठीक विपरीत
की तरह
वे जो भी हैं,

वे सब चीजें हैं
वस्तु की तरह भारी
विज्ञान की तरह सच
और भाषा अहंकारी

इसलिए दरवाजे के बाहर
जो कुछ भी है,
मुझको देती असुरक्षा
असुरक्षा जिसे कमरा बनाकर
रह रहा हूँ मैं…

और असुरक्षा जो उपस्थित है,
दरवाजे की उपस्थिति में
बंद कमरे की तरह।

•••

तनुज वर्तमान में विश्वभारती विश्विद्यालय से हिंदी में स्नातक कर रहे हैं और ख़ूब कविताएँ लिखते हैं और अनुवाद करते हैं। उनसे tanujkumar5399@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है। इंद्रधनुष पर तनुज के पूर्व-प्रकाशित कार्य के लिए यहाँ देखें : मेरे होंठों पर स्वाद है परछाईयों की धूल का

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