कविताएँ ::
विष्णु पाठक

विष्णु पाठक

धोलावीरा के प्रतीक

आषाढ़ की एक सुबह मैं करूँगा यात्रा
तुम्हारी तलाश में

कच्छ के रण के बीचो बीच बसे उस नगर की ओर
जहाँ चाँद के डूबते सब हो जाता है श्वेत-शांत
जहाँ खारा है सब
झील भी

वहाँ जहाँ न देता है दिखाई न सुनाई
समुद्र सिर्फ़ महसूस होता है हवाओं में
वहाँ जहाँ चीख बियाबान से लौटती नहीं टकराकर,
गुमशुदा हो जाती है अनंत में
जैसे ‘कविता’ कविता लिखने के क्रम में
हो जाती है कभी-कभी

मैं यात्रा करूँगा वहाँ जहाँ
जीवन के पिछले चक्र में
तुम थी
प्रेम था

ऊँचे टीलों पर नाचते थे मोर
आती थी आवाज़ें
जल तरंगों की
सोलह जल कुंडों से
वहाँ जहाँ प्रवाह में
कविता थी सरस्वती

खस, रजनीगंधा और तुम
करती थी यात्राएं धोलावीरा के स्नानागार से
मोहनजोदड़ो के स्नानागार तक
तुम्हारे स्नान से महक उठता था बियाबाँ

गढ़ पर बनी अपनी कमरे की खिड़की से
मेरी छत के नीले आकाश में
पीली पतंग को देखना
पसंद था तुम्हें

लाल गाजर उगते थे हरी मटर के साथ
शहर के निचले हिस्से वाली भूरी ज़मीन पर
तुम्हारे बदन को छू कर आने वाले जल के पटवन से और
भी ज्यादा मीठी हो जाया करती थी गाजर की मिठास

तो क्या सभ्यता सरस्वती के साथ-साथ
शाश्वत थी या बाद भी
सरस्वती के अंतः सलिला हो जाने के?
पूछुंगा बूढ़े दद्दा से
जो अब भी बकरियाँ चराते हैं वहाँ
जहाँ दफ़्न है पाँच हज़ार साल पुरानी सभ्यता

उन्हें ना सही उनके लोकगीतों को पता हो जवाब,
क्योंकि लोकगीतों को आती है सभ्यता की भाषा

वे लोग जो खुद को कहते हैं
पुरातत्वविद
कभी नहीं समझ पाएंगे
धोलावीरा की पुरातन सभ्यता को

वे समझ गए हैं मिस्र और मेसोपोटामिया की भाषा
उन्होंने खोज ली है तूतनखामेन की कब्र
घोषित कर दिया है महान गीजा के पिरामिड को और
लक्सर की गुफाओं में बनी चित्रकारियों पर
सैलानियों से कर रहे हैं
वाद विवाद

उन्हें मालूम है
अलेक्जेंड्रिया से लक्सर का रास्ता
लेकिन लोथल से धोलावीरा का ?
नहीं खोज पा रहे हैं वे

सिंधु घाटी सभ्यता में नहीं है कोई मंदिर
इस बात से वे बहुत हैरान हैं
उनके लिए ज्यादा जरूरी है धर्म के प्रतीक का होना
प्रेम के प्रतीक से

वे प्रसन्न हैं मिस्र और मेसोपोटामिया में
उन्हें दिखाई देते हैं देवता ही देवता
किंतु हड़प्पा के नगरों के पास हैं केवल नदियाँ
सिंधु, सरस्वती और घाघरा

स्त्रियों की कब्र में लगी हैं पकी हुई ईंटें
राखीगढ़ी के कब्रिस्तान में
सर ढका है उनका सुंदर पत्थरों वाली छत से
और रखे हैं बहुत सारे बर्तन भी

आसमान को देखते हुए नहीं लेटी हैं वे
उनकी नज़र टिकी है राखीगढ़ी की सभ्यता की ओर

उनकी नींद के हिस्से है
सबसे ऊँची ज़मीन सभ्यता में

वे हँस रही हैं राखीगढ़ी के कब्रिस्तान से
क्लियोपेट्रा के पक्ष में

वे हँस रही हैं उन इतिहासकारों पर
जो डूबे हैं अब तक तूतनखामेन के लंगड़ा होने के दुख में

वे हँस रही हैं उन इतिहासकारों पर
जो नहीं कर पा रहे हैं स्वीकार एंधेदुन्ना की कविताओं को

कर्क रेखा पर बसी धोलावीरा सभ्यता के गढ़ के उत्तरी दरवाज़े पर
गढ़े हुए प्रतीक चिन्हों को समझना है असंभव
इतिहासकारों के लिए जानते हुए
हँस रही हैं राखीगढ़ी की स्त्रियाँ

मैं तुम स्त्रियों की तलाश में
आषाढ़ की एक सुबह करूँगा यात्रा
कच्छ के रण के बीचो बीच बसे उस नगर की ओर
जहाँ चाँद के डूबते सब हो जाता है श्वेत-शांत
जहाँ खारा है सब
झील भी।

जाड़े की एक सुबह

नालंदा की लाल दीवारों पर बैठ
कुहासे के ढलते क्रम में
मैं सोच रहा था
वे चौदह बरसातें महावीर के
नालंदा में

अमरूद खा कर
पहिया घुमाते गाँव के लड़के
खीस का स्वाद लेते
बच्चे और बछेड़ साथ-साथ

निकल आती कीचड़ से भैंस
सांझ ढले
कोई गाँव वाली गाती कजरी
कोई बजाता ढोल
चाँद देखती प्रेयसी
पुवाल के मुंडेर पर सो जाते
एक दूजे की बाहों में
और उनपर रात भर
झर-झर झरते हरसिंगार
गाँव के चरवाहे गुनगुनाते
मगही लोक गीत

पंद्रह वर्ष में टूटा मोह महावीर का
और भिक्षु शारीपुत्र का?— कभी नहीं

नालंदा में जन्मा, मरा नालंदा में धर्म सेनापति शारीपुत्र
आम के उसी उपवन में जहाँ रहा करते थे उसके बुद्ध.

महावीर और बुद्ध से आगे
मैं देख रहा हूँ
एक सौ चौसठ करोड़ पंद्रह लाख पचहत्तर हजार किताबों के शमशान में
ओस से गीली घास पर बिखरे हुए फूल हरसिंगार के.

जाओ कह दो
बख्तियार खिलजी और उसके चाहने वालों से
नालंदा के खंडरों का लाल रंग बहुत गाढ़ा है
खून से, महीनो लगी आग से
तुम्हारी सोच और समझ के परे
वो जो हरे घास का मैदान है
रूमी की कविताओं में
यहीं हैं— नालंदा में !

नालंदा सिंधु घाटी सभ्यता के महाजनपद मगध का अंतिम किला है
यहाँ सूर्य उत्तरायण ही रहेगा।

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विष्णु पाठक हिन्दी कविता की नई पीढ़ी से सम्बद्ध कवि हैं। उनका काम पहले भी इन्द्रधनुष पर प्रकाशित है। उनसे vishnupathak87@gmail.com पर बात की जा सकती है। उनकी पूर्व प्रकाशित कविताओं और परिचय के लिए देखें : बरसात के इंतजार में खड़ी नावों पर

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