उद्धरण ::
अज्ञेय
चयन और प्रस्तुति : उत्कर्ष

अज्ञेय हिंदी कविता के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक हैं जिन्होंने प्रयोगवाद और नई कविता को साहित्य जगत से जोड़ने का प्रभावी कार्य किया। वह कवि, कथाकार और निबंधकार होने के साथ ही पर्यटन में भी खास रूचि लेते थे। उन्हें कविता-संग्रह ‘कितनी नावों में कितनी बार’ के लिए 1978 में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार और 1964 में ‘आँगन के पार द्वार’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनके रचना-संग्रहों में शामिल है- बावरा अहेरी (1954), क्यूँकी मैं उसे जानता हूँ (1969), महावृक्ष के नीचे (1977), ऐसा कोई घर आपने देखा है (1986), तार सप्तक क्रम के संग्रह आदि। ‘कारावास के दिन तथा अन्य कविताएँ’ में अज्ञेय की अंग्रेजी कविताओं के अनुवाद हैं।

प्रस्तुत उद्धरण उनकी डायरी से लिए गए हैं जो ईला डालमिया द्वारा संपादित डायरी-अंश ‘कवि-मन’ किताब से साभार लिए गए हैं। इन विचारों में अज्ञेय के मन के कई परतों को जानने में मदद तो मिलती ही है, साथ ही उनकी विस्तृत लेखक-दृष्टि का भी भान होता है।

अज्ञेय

लेखक के नाते मेरी यात्रा काफी अकेली रही है, मैं जानता हूँ। कभी कोई कुछ दूर साथ चल लिए हैं तो मैं उन के लिए यात्रा के संयोगों का भी और उन का भी आभारी हूँ। ऐसी अकेली यात्रा में मैं भटक ना जाऊं या पाठक- समुदाय से संपर्क न गवां बैठूं, इस के लिए आवश्यक जान पड़ता है की जब – तब उसे आमंत्रित कर के वह पूरा देश दिखा दूं जिस में से मैं अपनी राह खोजता रहा हूँ, वे यन्त्र- उपकरण भी  दिखा दूं जिनका मुझे सहारा रहा है, और उन यंत्रों से लक्ष्य जितना, जैसा, जिधर दिखता है उस की भी एक झाँकी उन्हें दिखा दूँ। मेरा पाठक – वर्ग बहुत बड़ा कभी नही होगा, निरी संख्या की मुझे आकांक्षा भी नही है, पर जितने भी पाठक हों वे मेरे मूल्यों के उस समूह के साक्षीदार हो सकें जिन की खोज ही मेरी यात्रा का लक्ष्य और प्रेरणा – स्रोत रही है, तो मेरी अकेली यात्राओं में भी उन सब का मुझे मिल गया होगा, मैं अपने कृति – कर्म को सफल मानूँगा।

लेखक होने से मुझे सामाजिक उतरदायित्व से छुट्टी नही मिल जाती क्योंकि लेखक हो जाने पर ऐसा नहीं है की मैं नागरिक नहीं रहता। दूसरी ओर कवि होने का यह अर्थ भी नहीं है की मैं अपनी कविता के लिए भी समाज के प्रति उत्तरदायित्व मानने को बाध्य हूँ।

कवि ने पूछा, ‘नदी, ओ नदी, तू पहले बता की तू क्या किनारे से प्रतिबद्ध है ?’

नदी ने खिलखिलाकर कहा, हाँ, रे, हाँ; तू देवता नहीं कि मैं दोनों किनारों से प्रतिबद्ध हूँ ?

कवि आश्वत हो कर किनारे बैठा है। नदी मझधार के स्रोत में अविराम बही जा रही है।

हर भाषा की अपनी एक गंध होती है। अगुरु-धूप के धुएँ से गंधयुक्त भाषा मेरी साध्य नहीं है; लेकिन इस का यह अर्थ नहीं है की मुझे बाजार की चरपरी या नाली की सड़ी गंधों से गंधाती भाषा की खोज है – या कि उस के प्रति मेरी स्वीकृति भी है। खुली हवा की भी एक गंध होती है – देहाती हवा की सोंधी, या वनखंडी से आते हुए झोंके की तीखी महक – और मैं नहीं मानूँगा कि शहर में केवल सीलन और घुटन ही होती है जिस से केवल बहुत दिनों की दबी हुई सीलन से गंधाती हुई भाषा ही शहरी यथार्थवाद की भाषा हो सकती है। शहर में भी लकड़ी चिरती है, चीड़ – देवदार की लकड़ी, जिस की ताज़ा चिराई से पेड़ की अस्थि – मज्जा भी दीख जाती है, और गन्ध से वातावरण मंज जाता है। ताज़ा चिरी हुई लकड़ी की गंध जिस में मिले, ऐसी भाषा…

शीशे में अपना चेहरा सभी देखते है। मैं भी देखता हूँ – रोज़ नहीं तो भी अक्सर। कभी – कभी मैं देखता नहीं पर वह एकाएक दीख जाता है : अभ्यस्त या स्मृति में बैठे हुए से कुछ भिन्न – चाहे कितनी ही सूक्ष्मता से भिन्न। तब शीशा उठा कर समीप लाता हूँ या खुद उस के निकट जाता हूँ – इतना निकट की दोनों आँखें मिल कर एक आँख बन जायें।
आँख को देखती हुई आँख। जिस आँख में समूचा विश्व समाया है, उस में झाँकती हुई वह आँख जो अपने को भी प्रतिबिंब से ही पहचानती है। क्या यही कविता होती है ?

सर्जनात्मक अंत:प्रक्रिया एक सतत प्रक्रिया है; जिस में नैरन्तर्य का भी उतना ही महत्व है जितना पूर्वापरता का। उस सतत प्रक्रिया में पाठक को सहयात्री के रूप में पा सकना या पाने का भरोसा बनाए रख सकना वह सम्बल है जो सर्जक को यात्रांत तक ले जाता है। इस के बदले मैं पाठक को यही आश्वासन दे सकता हूँ कि मैं भी भरसक इस अंत:प्रक्रिया में उस की दिलचस्पी कम नहीं होने दूंगा – कि सह-यात्रा उस के लिए रोचक और स्फूर्तिप्रद बनी रहेगी। यह गर्वोक्ति नहीं है; एक आस्था की अभिव्यक्ति है। यदि मैं कृत-संकल्प हूँ कि केन्द्रीय प्रयोजनों और मूल्यों से विमुख नहीं होऊंगा, तो निश्चय है कि मेरा पाठक भी मेरे प्रयास को चित्ताकर्षक पायेगा – क्यूंकि यह हो नहीं सकता कि उन से उसका भी गहरा सरोकार न हो। अपने पाठक के प्रति यह निष्ठा मैं ने जीवन–भर जो कुछ लिखा-रचा और प्रकाशित किया है उस की मूल निष्ठा रही है।

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