लेख : उत्कर्ष

कविताएँ लिखना अब आम बात है शायद और आज कल हमें इंटरनेट पर कोई न कोई रचना दिख ही जाएगी. पर कविता-लेखन की इस भीड़ में साहित्य की कसौटी पर खरा उतरने वाली रचना कौन सी है, इसे खोजना एक प्रश्न है. आज से नहीं लिखी जा रही कविता, जाने कितने सालों से, युगों से… वाल्मीकि से कालिदास , कबीर से ग़ालिब और दिनकर से दुष्यंत कुमार, धूमिल और गीत चतुर्वेदी आदि.
पर हमारा विषय है कि ‘आज का युवा लेखन कैसा है या कैसा होना चाहिए’. किताबों की भीड़ में से हम आज भी नेरुदा, कीट्स, या मुक्तिबोध पर नज़र डालते हैं और सीखते हैं, कविता की बारीकियों को.
कविता रचते समय कुछ भी नहीं रच सकते हम, उसमे भी एक आत्मसंतुष्टि और सार्थकता आवश्यक है. और जो प्रयोगी किताबें बाज़ार में छपती हैं उन्हें कहाँ तक साहित्य कहा जाए, ये सोचना पड़ता है. ये भी कि वर्तनी कितनी शुद्ध है क्यूंकि गलत व्याकरण और वर्तनी से भी पहले तो लिखनेवाली की रचनाशीलता पर प्रश्न उठता ही है और पढ़नेवाले भी सही सीख या पढ़ नहीं पाते. रचनाशीलता बहुत गंभीर है जैसे जीवन की और भी चीजें.
 ख़ुशी ये है कि आज भी बहुत युवा हैं जो छपने के लिए नहीं बल्कि कुछ मौलिक, कुछ मार्मिक लिख रहे हैं. पर आजकल जो व्हाट्सएप्प या फेसबुक आदि पर पोस्ट किया जा रहा है, छाँटना पड़ता है कि क्या पढ़ें और क्या छोड़ें! पर ब्लॉग और सोशल-नेटवर्किंग ने कविताओं के आदान-प्रदान और लोगों तक पहुँच बनाने में अभूतपूर्व योगदान दिया है, इसे नकारा नहीं जा सकता.
शायद जो पॉपुलर पोएट्री की जो बाढ़ सी आ गयी है (सोशल मीडिया देखते हुए) वो पहले नहीं देखी गयी. आज के युवा अपने भीतर ज़ब्त हताशा, दर्द, और बेचैनी को आज़ाद कर रहे हैं अपनी कविताओं में. आज का युवा कवि बन्धनों से परे चौराहे, ब्रह्माण्ड, रेगिस्तान, आजादी, प्रेम , राजनीति, व्यंग, शोर आदि को अपनी कविता में समेट लेना चाहता है. नवोदित लेखन पुरस्कार से सम्मानित युवा कवि घनश्याम कुमार ‘देवांश’ प्रेम की अनकही सौगात लेकर आते हैं…”समय हमारे बीच/आकाश की तरह /तन गया है/ और विस्तार ले रहा है ब्रह्माण्ड की तरह…/दुनिया की कोई भी भाषा/ हमारे बीच पुल होने के लिए/ नाकाफी है/ लेकिन सुनो/  उदास मत होना/ जाना नहीं/ मेरा इंतजार करना/ मैं रास्ते में हूँ.”
अंशु मालवीय इन पंक्तियों में रिश्ते की बेजोड़ परिभाषा रचते नज़र आते हैं…”तुम खोजती हो न!अपनी ढेर-सी लड़कियों के लिए/अच्छे से नाम/तुम्हारी एक लड़की का नाम/हम रखेंगे ‘ज़िन्दगी’/ताकि हम उसे बेहद चाह सकें…/सुनो!  तुम्हारी बिटिया का नाम हम ‘उम्मीद’ रखेंगे/ताकि उम्मीद इतनी अपनी लगे/जितनी पहले कभी नहीं लगी।”
शिल्प का एक चेहरा युवा कवि अविनाश मिश्र की इन पंक्तियों में सहज ही नज़र आता है…”…पतंग के साथ होना/ केवल पतंगे काटने के लिए नहीं है/…सबसे पहले और आखिर में /हवा का रूख भांपने के लिए है.”
बिना किसी होड़ या लोभ के जो शब्द कागज़ पर उतरते हैं, वास्तव में  वही मन के कैनवास पर अच्छे लगते हैं. आजकल भीड़ है, दौड़ है और ऐसे कई चेहरे हैं जो उस बेतहाशा भीड़ से परे अपनी दुनिया को जीने का माद्दा रखते हैं. आज के युवा कवि आज की दुनिया बुन रहे हैं, उनका मन तवांग से पेरिस और काबुल से लद्दाख तक सफ़र कर रहा है. मगर ऐसा नहीं कि जो कवि हमारे सामने पत्र-पत्रिकाओं में नज़र आ रहे हैं,बस वही तक युवा-लेखन सीमित है।बल्कि कहीं समय के किसी प्रहर कोई है जो किसी दरख़्त या बालकनी में बैठा कुछ न कुछ बुन रहा है। आजकल के युवा अपनी डायरी में अपना एक अतुल्य संसार लिए बैठे हैं जिनके लिए छपना शायद कोई प्रश्न नहीं है अपितु अपने लिए कुछ ऐसा कर जाना होता है जो उन्हें संतुष्ट कर दे या उनकी अभिव्यक्ति शाब्दिक होकर एक मूर्त रूप ले ले। उपनिवेशवादी लेखन में समाज में जो भी परिवर्तन हुए हैं उनमे रचना बाज़ार की वस्तु बनती जा रही है और उपभोक्तावाद की संस्कृति ने साहित्यिक विरासत को चोट पहुँचाने का प्रयत्न किया है. ऐसे समय में साहित्यिक समरसता बरक़रार रखने का दायित्व युवा कन्धों पर है जिन्हें विरासत के पन्नों को शक्ति देकर उनका विस्तार करना है. ऐसे में क्षेत्रीय भाषाओँ में लेखनी को जोर देने की जरुरत को समझना जरुरी हो गया है और ख़ुशी की बात है कि मैथिली, असमिया, उड़िया, भोजपुरी आदि प्रांतीय भाषाओँ में भी कविताएँ  लिखी जा रही हैं. अंग्रेजी जिस तरह से हिंदी या अन्य भाषाओँ पर हावी रही है, इस परिस्थिति में हिंदी लेखन को बढ़ावा देने की बहुत जरुरत है. हम सब जानते हैं कि हमारी अपनी भाषा विचारों के आदान-प्रदान में सफल हो सकती है, अब गाँव-कस्बे  के आम लोग तो अंग्रेजी नहीं समझ सकते. भाषाएँ  तो सभी श्रेष्ठ हैं पर भाषा को थोपना या किसी और भाषा का प्रभाव कम करना ठीक नहीं.
आजकल कई पत्र-पत्रिकाओं में युवा-कवियों की रचनाओं को छापा जा रहा है जो कि स्वागत के योग्य है. इससे उन्हें अवश्य प्रोत्साहन मिलेगा.
कहानी और कविता में गहरी रूचि रखने वाले प्रत्युष पुष्कर अपनी दुनिया में अपने शब्द-संसार को बसाते नज़र आते हैं…”साथ पले हैं, बढ़ें हैं फिर भी मेरा/परिवार उम्र में बड़ा है मुझसे/ इधर मैं बस सीखता हूँ /अपने कदमों पर खड़ा होना/उधर मेरा परिवार दौड़ना सीख लेता है।”दूसरी कविता ‘दरख़्त और पत्ते’में लिखते हैं…”जब-जब पेड़ के शीर्ष से कोई पत्ता टूटकर गिरा/दरख्तों से कराहने की आवाज़ आई/ नई शाखा हंसी,कहा-इतना भी क्या अफ़सोस/धीमे से कहा दरख़्त ने कि/उम्र के इस पड़ाव पर रिश्तों की समझ आई है!”
आज के युवाओं में कुछ वरिष्ठ नाम नई पौध के लिए किसी रौशनी से कम नहीं हैं. चर्चित कवि गीत चतुर्वेदी अपनी कविताओं में मानवीय मूल्यों को असरदार तरीके से खोजते नज़र आते हैं. उनकी कविताओं में जीवन के मूलभूत सत्य और मानवीय सरोकार सहज ही सामने आते हैं ।
…सारे सिकंदर घर लौटने से पहले ही मर जाते हैं
दुनिया का एक हिस्सा हमेशा अनजीता छूट जाता है
चाहे कितने भी होश में हों, मन का एक हिस्सा अनचित्ता रहता है
कितना भी प्रेम कर लें, एक शंका उसके समांतर चलती रहती है
जाते हुए का रिटर्न-टिकट देख लेने के बाद भी मन में हूक मचती है कम से कम एक बार तो ज़रूर ही
कि जाने के बाद लौट के आने का पल आएगा भी या नहीं “
अपनी कविता ‘कागज़’ में वो एक द्वन्द के बीच सत्य सामने लाते दिखाई देते हैं.
“चारों तरफ़ बिखरे हैं काग़ज़
एक काग़ज़ पर है किसी ज़माने का गीत
एक पर घोड़ा, थोड़ी हरी घास
एक पर प्रेम
एक काग़ज़ पर नामकरण का न्यौता था
एक पर शोक
एक पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था क़त्ल
एक ऐसी हालत में था कि
उस पर लिखा पढ़ा नहीं जा सकता
एक पर फ़ोन नंबर लिखे थे
पर उनके नाम नहीं थे
एक ठसाठस भरा था शब्दों से
एक पर पोंकती हुई क़लम के धब्बे थे
एक पर उँगलियों की मैल
एक ने अब भी अपनी तहों में समोसे की गंध दाब रखी थी
एक काग़ज़ को तहकर किसी ने हवाई जहाज़ बनाया था
एक नाव बनने के इंतज़ार में था
एक अपने पीलेपन से मूल्यवान था
एक अपनी सफ़ेदी से
एक को हरा पत्ता कहा जाता था
एक काग़ज़ बार-बार उठकर आता
चाहते हुए कि उसके हाशिए पर कुछ लिखा जाए
एक काग़ज़ कल आएगा
और इन सबके बीच रहने लगेगा
और इनमें कभी झगड़ा नहीं होगा”
मनोज कुमार झा की कविताओं में भी तरुण युवाओं के सीखने के लिए  बहुत है. अपनी कविता “प्रतीक्षा” में रिश्ते का कोई सच छुपा मिलता है.
“देह छूकर कहा तूने
हम साथ पार करेंगे हर जंगल
मैं अब भी खडा हूँ वहीं पीपल के नीचे
जहाँ कोयल के कंठ में काँपता है पत्तों का पानी.”
आज के युवा-कवि के लिए कुछ भी अनंत नहीं है शायद. वो खोज रहे हैं किसी सुदूर ग्रह में छुपा जीवन और रेगिस्तान में प्यास की जिजीविषा को. थोड़े आधुनिक हैं आज के युवा, वे बेख़ौफ़ लिखते हैं, ना कोई सीमा या बंधन. प्रेम की ओस में नहलाते है शब्दों को और समाज की रूढ़िवादिता पर करारा प्रहार करते नज़र आते हैं. इन्टरनेट ने उन्हें नई आजादी दे दी है जिससे उनके भाव उन्मुक्त हैं और उनकी उंगलियाँ सरपट की-पैड पर दौड़ते हुए मशीनी शब्द टाइप करते हैं.
और ये सब हो रहा है एक ऐसे अतीत से परे जो आज से बिलकुल अलग था,नियमित पर आज दीवारें तोड़नी पड़ी हैं,वज़हें चाहे जो हों. आज का युवा उस बाज़ार का हिस्सा भी है जिसने उसे कुछ जीविका अर्जित करने का अवसर भी दिया है, हाँ ये और बात है कि छपने के लिए नहीं बल्कि खुद की ख़ुशी के लिए लिखना ही सबसे प्रभावी रचनाओं के जन्म का कारण होता है. आज के युवाओं को कुछ प्रोत्साहन भी मिल रहा है, जिनसे उन्हें और बेहतर लिखने की शक्ति मिल रही है. लिखना आसान कहाँ होता है, कवि होना कभी आसान नहीं था एक समय, थोड़ा बहुत आज भी , क्यूंकि ये कोई पेशा नहीं है पर रचनाकार बनने के लिए थोड़ा रिस्क लेना पड़ता है.
आज के युवा कवि आज़ाद हैं अपने संसार को बुनने में, शहर की सच्चाई बताता है कोई तो कहीं सुदूर गाँव में कोई खुद को कागज़ पे अभिव्यक्त कर रहा है. भीड़ से दूर कुछ ऐसे युवा चेहरे हैं जो कविता जी रहे हैं और ये साबित कर रहे हैं कि कुछ भी लिख देना कविता नहीं है. आज के युवा-कवि साहित्य की दिशा और दशा सुधारने का भी काम कर रहे हैं जोकि स्वागत योग्य है.  फिर भी सीखना एक प्रक्रिया है और सीखना जीवन भर चलता है.  कविता एक यात्रा है, ये कोई पड़ाव नहीं.
कवि विजेन्द्र के शब्दों में
“मैं जहाँ तक चला हूँ /वहीँ तक/मेरी पगडण्डी है/उसके आगे फिर/पथरीली कंकरीली धरती है/और घने वन/गूंजते,थर्राते ढलान/वहाँ अभी कोई पथ नहीं/न कोई पगडंडी/वहाँ सबसे पहले जो जाएगा/वही होगा मेरा कवि/पहली पगडंडी पर चलकर/आगे अपनी बनाना ही/कविता है.’

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[ उत्कर्ष कविताएँ लिखते हैं. आप इनसे yatharthutkarsh@gmail.com पर सम्पर्क कर  सकते हैं.]

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