कविता ::
येहुदा आमिखाई
अनुवाद एवं प्रस्तुति : अंचित

येहुदा आमिखाई  (3 मई 1924 – 22 सितम्बर 2000) ईसरायली कवि हैं. उन्होंने हिब्रू में कविताएँ लिखी हैं और सभी बड़ी विश्व भाषाओं में अनूदित हैं. वे मानते रहे कि तमाम कविताएँ राजनीतिक होती हैं, और ज़ाहिर है उनकी कविताएँ दुनिया और दुनिया के लोगों की बात करती हैं.

यह कविता, अंत के बारे में, और अनंत यात्राओं के बारे में, वतन के बारे में भी है और यही सारी बातें, दरवेश की कविताओं पर भी बैठ जाती हैं बिलकुल ठीक-ठीक. कविता से गुजरते हुए कई सवाल मन में आते हैं. बिना विरोधाभासों और अंतर्विरोधों के साहित्य का काम नहीं चलता.

सोचते हुए लगता है कि आम तौर पर हिंदी की कविताओं में हमलोगों को क्यों निष्कर्षों की माँग रहती है? दूसरा सवाल यह दिमाग़ में आता है कि क्लिष्ट होने को लेकर क्या स्टैंड रखा जाए? मनुष्यता के अमूर्त होने से जो सम्भावनाएँ उपजती हैं क्या उनको ही कहने का काम कविता है ?

येहुदा आमिखाई

इस सदी के मध्य में

इसी सदी के मध्य में
हम आधे चेहरों और पूरी आँखों के साथ
एक दूसरे की ओर मुड़े—
जैसे मिस्र की पुरानी तस्वीरों में होता है.

बहुत कम समय के लिए.

मैंने तुम्हारे बालों में उँगलियाँ उलझाईं.
जिधर जाना था तुम्हें, उससे बिलकुल उल्टी दिशा में,
हमने एक-दूसरे को वैसे पुकारा,
जैसे शहरों के नाम उन जगहों पर पुकारे जाते हैं,
जहाँ यात्रा के दौरान कोई नहीं रुकता.

सुंदर है वह दुनिया जो ग़लत के ख़िलाफ़ तुरंत मुखर होती है
सुंदर है वह दुनिया जो पाप और दया का सामना करते हुए सोती है,
एक-दूसरे में खोते हुए, मैं और तुम—
सुंदर है ये दुनिया.

धरती, लोगों और उनकी मोहब्बतों को
शराब की तरह पी जाती है.
भूलने के लिए.
लेकिन यह सम्भव नहीं.
जूडीयन पहाड़ों की लम्बी क़तारों की तरह,
हमें भी कभी अमन नहीं मिलेगा.

इस सदी के मध्य में हम एक-दूसरे को मिले,
मैंने तुम्हारी देह को देखा,
देती हुई आसरे का आमंत्रण,
मेरा इंतज़ार करती हुई,
और तब तक तो
लम्बी यात्रा की चर्मपेटियाँ
मेरे सीने पर कस चुकी थीं.

मैंने तुम्हारे नश्वर नितम्बों के क़सीदे पढ़े
तुमने मेरे साधारण चेहरे की तारीफ़ की,
जिस दिशा में तुम्हें यात्रा करनी थी,
उसी दिशा में मैंने तुम्हारे बालों पर हाथ फेरा,
अपने अंत की भविष्यवाणी करने वाली,
मैंने तुम्हारा तन छुआ,
मैंने तुम्हारा हाथ छुआ, जो कभी नहीं सोता,
मैंने तुम्हारा मुँह छुआ, जो शायद फिर से गाए.

रेगिस्तान की धूल से मेज़ ढंक गयी थी,
वही मेज़ जिस पर हमने कुछ नहीं खाया
पर मैंने अपनी उँगलियों से जिस पर
लिखे अक्षर तुम्हारे नाम के.

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अंचित से anchitthepoet@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.