जॉन रस्किन के कुछ विचार ::
चयन एवं प्रस्तुति : उत्कर्ष

जॉन रस्किन

जॉन रस्किन ( जन्म: 8 फ़रवरी 1819-मृत्यु: 20 जनवरी 1900 ) इंग्लैंड के जाने-माने विचारक, लेखक और दार्शनिक थें, जिन्होंने भूविज्ञान, वास्तुकला, मिथक, पक्षीविज्ञान, साहित्य, शिक्षा, वनस्पति विज्ञान और राजनीतिक अर्थव्यवस्था जैसे कितने ही विषयों पर लिखा. प्रस्तुत गद्यांश रस्किन की असाधारण कृति ‘अनटू दिस लास्ट’ से प्रेरित होकर गांधीजी द्वारा लिखी गई उसके सार के रूप में तैयार ‘सर्वोदय’ से उद्धरित है. इसके अनुसार जॉन रस्किन नैतिक अर्थशास्त्र के सार्वभौमिक महत्व और इससे संभव होने वाले सामाजिक सुरक्षा और सद्भाव के विषय में चर्चा करते हैं.

महात्मा गाँधी पर जॉन रस्किन के इस किताब में प्रस्तुत विचारों का बहुत प्रभाव रहा है. अपनी ‘आत्मकथा’ में गाँधीजी ने इस किताब के महत्व पर कुछ ऐसा लिखा है, “…मेरे विचार से जो चीज मुझमें गहराई से भरी हुई थी, उसका स्पष्ट प्रतिबिम्ब मैंने रस्किन के इस ग्रंथ-रत्न में देखा.” यह कहना न होगा कि इन विचारों की प्रासंगिकता हर समय बनी रहेगी और नैतिक मूल्यों का प्रसार सदैव होता रहेगा.

सर्वोदय – रस्किन की विख्यात कृति ‘अन्टू दिस लास्ट’ का सार

“मनुष्य कितनी ही भूल करता है, पर मनुष्यों की पारस्परिक भावना – स्नेह, सहानुभूति के प्रभाव का विचार किये बिना उन्हें एक प्रकार की मशीन मानकर उनके व्यवहार के गढ़ने से बढ़कर कोई दूसरी भूल नहीं दिखाई देती.”

“आपके पास जो एक रुपया है उसका अधिकार उस पर चलता है जिसके पास उतना नहीं होता. अगर आपके सामने वाले या पास वाले को आपके रुपये की गरज न हो तो आपका रुपया बेकार है.”

“सार्वजनिक अर्थशास्त्र का अर्थ है- ठीक समय पर ठीक स्थान में आवश्यक और सुखदायक वस्तुएँ उत्पन्न करना, उनकी रक्षा करना और उनका आदान-प्रदान करना. जो किसान ठीक समय पर फसल काटता है, जो राजमिस्त्री ठीक-ठीक चुनाई करता है, जो बढ़ई लकड़ी का काम ठीक तौर पर करता है, जो स्त्री अपना रसोईघर ठीक रखती है, उन सबको सच्चा अर्थशास्त्री मानना चाहिए- ये सारे लोग राष्ट्र की संपत्ति बढ़ाने वाले हैं.”

“नीति-अनीति का विचार किए बिना धन बटोरने के नियम बनाना केवल मनुष्य की घमण्ड दिखाने वाली बात है. सस्ते से सस्ता खरीदकर महंगे से महंगा बेचने के नियम के समान लज्जाजनक बात मनुष्य के लिए दूसरी नहीं है.”

“सच्ची दौलत सोना-चाँदी नहीं, बल्कि स्वयं मनुष्य ही है. धन की खोज धरती के भीतर नहीं, मनुष्य के हृदय में ही करनी है. यह ठीक हो तो अर्थशास्त्र का सच्चा नियम यह हुआ कि जिस तरह बने उस तरह लोगों को तन, मन और मान से स्वस्थ रखा जाए.”

“अर्थशास्त्री धन की गति के नियंत्रण के नियम को एकदम भूल जाते हैं. उनका शास्त्र केवल धन प्राप्त करने का शास्त्र है; परंतु धन तो अनेक प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है. एक जमाना ऐसा था जब यूरोप में धनिक को विष देकर लोग उसके धन से स्वयं धनी बन जाते थे. आजकल गरीब लोगों के लिए जो खाद्य-पदार्थ तैयार किये जाते हैं उनमें व्यापारी मिलावट कर देते हैं. जैसे दूध में सुहागा, आटे में आलू, कहवे में चीकरी, मक्खन में चरबी इत्यादि. यह भी विष देकर धनवान होने के ही समान ही है. क्या इसे हम धनवान होने की कला या विज्ञान कह सकते हैं?”

“सच्चा शास्त्र न्यायबुद्धि का है. प्रत्येक प्रकार की स्थिति में न्याय किस प्रकार किया जाय, नीति किस प्रकार निबाही जाय- जो राष्ट्र इस शास्त्र को सीखता है वही सुखी होता है.”

रस्किन की कृति ‘अन्टू दिस लास्ट’

“अर्थशास्त्री मनुष्यों के आचरण पर विचार न कर अधिक पैसा बटोर लेने को ही अधिक उन्नति मानते हैं और जनता के सुख का आधार केवल धन को बताते हैं. इसलिए वह सिखाते हैं कि कला-कौशल आदि की वृद्धि से जितना धन इकठ्ठा हो सके उतना ही अच्छा है. इस तरह के विचारों के प्रचार के कारण इंग्लैण्ड और दूसरे देशों में कारखाने बढ़ गए हैं. बहुत से आदमी शहरों में जमा होते हैं और खेती-बाड़ी छोड़ देते हैं. बाहर की सुंदर स्वच्छ वायु को छोड़कर कारखानों की गंदी हवा में रात-दिन सांस लेने में सुख मानते हैं. इसके फलस्वरूप जनता कमजोर होती जा रही है, लोभ बढ़ता जा रहा है और अनीति फैलती जा रही है.”

“वास्तव में सच्चा श्रम वही है जिससे कोई उपयोगी वस्तु उत्पन्न हो. उपयोगी वह है जिससे मानव-जाति का भरण-पोषण हो. भरण-पोषण वह है जिससे मनुष्य को यथेष्ट भोजन-वस्त्र मिल सके या जिससे वह नीति के मार्ग पर स्थिर रहकर आजीवन सत्कर्म करता रहे.”

“जिस धन को पैदा करने में जनता तबाह होती हो वह धन निकम्मा है. आज जो लोग करोड़पति हैं वे बड़े-बड़े और अनीतिमय संग्रामों के कारण करोड़पति हुए हैं. वर्तमान युग के अधिकांश युद्धों का मूल कारण धन का लोभ ही दिखाई देता है.”

“जिनसे समाज बना है वे स्वयं जबतक नैतिक नियमों का पालन न करें तबतक समाज नीतिवान कैसे हो सकता है? हम खुद तो मनमाना आचरण करें और पड़ोसी की अनीति के कारण उसके दोष निकालें तो इसका अच्छा परिणाम कैसे हो सकता है ?”

“…धन साधन मात्र है और उससे सुख तथा दुःख दोनों हो सकते हैं. यदि वह अच्छे मनुष्य के हाथ में पड़ता है तो उसकी बदौलत खेती होती है और अन्न पैदा होता है, किसान निर्दोष मजदूरी करके संतोष पाते हैं और राष्ट्र सुखी होता है. खराब मनुष्य के हाथ में धन पड़ने से उससे गोले-बारूद बनते हैं और लोगों का सर्वनाश होता है. गोला-बारूद बनाने वाला राष्ट्र और जिस पर इनका प्रयोग होता है वे दोनों हानि उठाते और दुःख पाते हैं.”

“…सच्चा आदमी ही धन है. जिस राष्ट्र में नीति है वह धन संपन्न है. यह जमाना भोग-विलास का नहीं है. हरेक आदमी को जितनी मेहनत-मजदूरी हो सके उतनी करनी चाहिए.”

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प्रस्तुत गद्य के अंश सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक ‘सर्वोदय’ से और प्रस्तुत तस्वीरें इंटरनेट के सौजन्य से साभार. उत्कर्ष से yatharthutkarsh@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

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