गद्य : आदित्य शुक्ला

(शाम के सात बजे आज साप्ताहिक प्रहसन सुनिए…)

“जरा हटके, जरा बचके ये है बम्बे मेरी जां”

*फ़िल्मी

वह एक स्कैंडेलस शाम थी. सब लोग इस दुनिया में व्याप्त केओस से परेशान थे. लेकिन आखिरकार वे ही लोग उस केओस के वाहक थे. वहां उपस्थित सभी लोग जंगली सूअरों के मुखौटे पहनकर घूम रहे थे. उन सब की आँखों से लालसा, लालच और ईर्ष्या झलक रही थी. वे सभी किसी न किसी सेन्स ऑफ़ अर्जेंसी में थे और जल्दी-जल्दी इधर-उधर भाग रहे थे मानो किसी जिग-जैग रेखा पर कोई बिंदु दौड़ रही हो. समय ऐसा था कि कटता ही नहीं था. ऐसा लगता था मानो किसी ने समय की डोर को खींचकर बहुत लम्बा कर दिया हो – जिस डोर पर चलना एक अंतहीन रास्ते पर चलने जैसा हो. बाज़ार में हर तरह के लोग थे. यह कह पाना मुश्किल था कि बाज़ार लोगों से था या लोग बाज़ार से|. वहां हर तरह की चीजें बिकती थीं और वहां हर तरह की चीजों के खरीददार बराबर संख्या में थे. किन्हीं दो चीजों में कोई अंतर नहीं रह गया था. इस बाजार में बेचने पर प्यार भी बिक सकता था और ईमान भी – आधुनिकता अपने चरम पर थी जहाँ न प्यार का कोई अर्थ रह गया था न ईमान का ना ही नैतिकता का. मनुष्यता के सभी उपकरण ध्वस्त हो चुके थे. उस भीड़ में थे कुछ हत्यारे, कुछ प्रेमी, कुछ मूर्ख, कुछ धूर्त, कुछ भीरु, कुछ चतुर, कुछ पागल, कुछ कायर और न जाने क्या-क्या.

प्रेमी एक दूसरे की बांहों में बाँहें डालकर घूम रहे थे. कायर लोग अपनी साख बचाने में व्यस्त थे.  मूर्ख व्यग्र थे, स्वतंत्र थे. धूर्त कुटिल निगाहों से आस पास की चीजों पर घात लगाये बैठे थे. भीरू लोग अपने दरवाजों के पीछे दुबके थे. पागल त्रस्त थे. हत्यारे, हथियार बनाने की प्रक्रिया में लगे हुए थे. सब कुछ इतने प्राकृतिक तरीके से घटित हो रहा था मानो ईश्वर ने जान-बूझकर ऐसा विश्व बनाया हो जिसमें हो रही घटनाओं से उसका भरपूर मनोरंजन हो सके.

वह शाम हर शाम के तरह की कोई साधारण शाम तो थी नहीं.

हलांकि कोई भी शाम उतनी साधारण नहीं होती जितनी कि दिखाई देती है. घटनाओं के दर प्रतिशत समय के सभी हिस्सों में इतनी समानता से वितरित हैं कि सभी शामें असामान्य रूप से घटित होने लगीं हैं और असामान्य एक नए तरह का सामान्य बन गया है.

किसी ने अपने घर के छत से अचानक से कूड़े से भरा डस्टबैग सड़क पर फेंक दिया.

हर तरफ अफरा तफरी है.  ट्रैफिक में फंसे हुए लोग एक दूसरे को इतनी घृणा और असहिष्णुता से देख रहे हैं मानो सबने एक दूसरे की जागीर हड़पने की कोशिश कर रखी हो. समय अत्यंत तीव्र गति से भाग रहा है और सभी समस्याओं का समाधान एक ऊँगली की नोक पर उतर आया है– मोबाइल फोन, इंटरनेट. फिर भी सभी समस्याग्रस्त हैं. कुछ लोग झोले लेकर बाजार जा रहे हैं. किसी ने अभी गुटका खाकर सडक पर बेरहमी से थूक दिया है. निर्जीव सड़क ने आह करके कराहा होगा ! तभी अचानक से एक सडक दुर्घटना होती है और समस्त ब्रह्मांड में समय की गति पल भर के लिए ठप्प ! ठप्प!!

रेडियो पर कहीं कोई संगीत बज रहा है.

गायक गाए जा रहा है. लोग उन धुनों पर थिरक रहे हैं लेकिन गायक के शब्द उनके कानों तक नहीं पहुँच पाते. निश्चय ही वे किसी जरूरी या गैर-जरूरी काम में व्यस्त होंगे.

‘बुरा दुनिया को है कहता ऐसा भोला तो न बन

जो है करता वो है भरता, है यहाँ का ये चलन’

अगर यह पुरानी बम्बई होती तो यहाँ ट्राम चलते होते. रिक्शे अधिक दिखते. लोग कम होते. कोई जानी वाकर सा आदमी किसी सुंदर अभिनेत्री के चारों ओर घूम-घूम लोगों को हंसाने के लिए भंगिमाएं बनाता. अभिनेत्री भी यांत्रिक ढंग से अपनी आँखें मटका देती. टेलीविजन पर चित्रहार देखते लोग ख़ुशी से चहक उठते. शहर के रूप रंग में एक सादगी दिखती जैसा कि पुराने ज़माने के फिल्मो में दिखती है. लोगों के पास बम्बई को पुरानी फिल्मों की नजर से देखने का वक़्त ही नही है वैसे.  गीत चल रहा है सब थिरक रहे हैं लेकिन शब्द किसी के कानों-कान नहीं पहुँच रहे.

शब्द लोगों की कानों से इस तरह टकराकर वापस अंतरीक्ष में चले जाते हैं जैसे किसी इलास्टिक बाल को दीवार पर पटक दिया गया हो. लोगों ने अचानक से जंगली सूअरों के अपने मुखौटे वापस से पहनने शुरू कर दिए हैं. घटनायें रुकनी नहीं चाहिए !

इतने सारे घर हैं. सभी घर एक जैसे नहीं हैं लेकिन फिर भी एकदम समान अवस्था में निर्जीव पड़े हैं.

सड़क पर तो मजमा लग रहा है.पास चौक पर एक फव्वारा है. फव्वारे की चारों ओर बने बैठने की जगह पर लोग बैठे हैं. एक बच्ची फव्वारे की ओर अपना हाथ ले जाती और फिर हटा लेती फिर अपनी मां की ओर कौतूहल से देखती. हत्यारे अपनी अपनीसही जगह पर तैनात हैं. आज हत्या करना उनके शेड्यूल में नहीं है. लेकिन वे सड़क का, जन-जीवन का जायजा लेते रहेंगे. एक कुत्ता भौंक रहा है. एक आदमी अपनी बीवी की लिखी किताब बेचने के लिए चौक पर जमा लोगों के पास जा जाकर उनसे खरीदने के लिए गिडगिडा रहा है. पेड़ की छांह में खड़े होकर कुछ दोस्त और प्रेमी टाइप के लोग सिगरेट पी रहे हैं और हँसी-ठिठोली कर रहे हैं. ऐसे समय में जब हँसने की कला लोग लगभग भूल चुके हैं, ज्यादा हँसने लगे हैं. एक हत्यारे ने दूसरे हत्यारे को इशारे-इशारे में कुछ कहा है. दूसरा आदमी एटीएम के पास जाकर खड़ा हो गया. एक पागल ने डस्टबिन से निकालकर कुछ खा लिया. सभी लोग मुस्तैद हो गये और अपने अपने मुखौटों को कस लिया है मानो किसी युद्ध की तैयारी कर रहे हो.

पास ही किसी ने कुछ कहा. आज एक लम्बे अरसे बाद खुद अपनी आवाज़ सुनी या शायद पूरे जीवन में ही पहली बार अपनी आवाज़ इतनी निकटता से सुनी. यह एक अजीब जागरुकता थी अपनी ही ध्वनी के प्रति. एक अजीबो-गरीब खुलासा था यह. उसे पहले अपनी ही आवाज़ के ऐसे होने का कोई भान तक नहीं था. अपनी आवाज़ सुनकर वह डर गया. चुप हो गया. ट्रैफिक का अस्त-व्यस्त शोर फिर से जीवित हो उठा. शोर में अपनी आवाज़ की भयावहता छिप ही जाती है.

मुखौटे पहने लोग एक अजीब नज़र से सड़क के चारों ओर ताक रहे थे. चलते-चलते अचानक कुछ लोग रुक जाते, इधर-उधर देखते, जायजा लेते और फिर चलने लगते. शहर का रंगों-रूप बदल गया. यह शहर दूसरे शहर यानी कि इस शहर से भी अधिक चमकीले शहर में तब्दील हो गया. बम्बई से सिंगापुर, सिंगापुर से सिडनी, सिडनी से लन्दन.

और अपनी ही आवाज़ को सुनकर अपराध बोध से ग्रस्त आदमी ने अपना मुखौटा उतार फेंका.

दूर एक कमरे में दो किरदार.

वो (एक लड़की) प्लास्टिक की एक कुर्सी पर उल्टा मुंह करके बैठी है. अधनंगी देह. उसके कन्धे पर कुछ तिल हैं. उसका कोई नाम नहीं. उसका कोई चेहरा नहीं. उसका कोई चरित्र नहीं.

दूसरा (एक लड़का) दीवार से पीठ टिका के खड़ा है. नहीं दिखता चेहरा और सिगरेट के धुंए के छल्ले. सामने एक ऊँची सी टेबल पर ऐशट्रे. ऐशट्रे के ठीक पास कोई उपन्यास. उसका भी कोई नाम नहीं. कोई सिर नहीं, कोई चरित्र नहीं.

‘मैं ईश्वर को सबसे अपवित्र और तुच्छ मानता हूं’, दूसरे ने कहा.

एक ने पलटकर बिना नजर के उसे देखा. ऐसी गहरी दृष्टि, दृष्टि की अनुपस्थिति में ही सम्भव थी.

‘तुम्हें यही लगता है न मैं तुमसे प्यार नहीं करती ?’पहले ने पूछा.

दूसरे ने लापरवाही से सिगरेट का एक और छल्ला बनाया और तेबल पर रखे उपन्यास की दिशा में फ़ेंक दिया.

बाहर एक एम्बुलेंस तेजी से आवाज़ करते हुए निकल गया. तेज ठण्डी हवा चल रही थी और दोनों किरदार कमरे के अंदर बैठे बैठे लगभग काँप रहे थे.

‘मेरे लिए प्रेम पवित्रता का विषय है. तुम ज्यादा दिमाग मत चलाओ. मैं तुम्हें प्यार करता हूं. तुम दुनिया की सबसे सुंदर लड़की नहीं हो. पर मैं तुम्हें प्यार करता हूं. मैंने तुम्हें चुना है. मैं तुम्हारी आत्मा से संवाद करता हूं. हमारी आत्माएं अनुनाद पर हैं. इसके अलावा मैं कुछ नहीं जानता. तुम अपने निष्कर्ष न थोपो मुझ पर.‘

दूसरे ने सिगरेट अपने पैरों से मसलते हुए कहा.

शाम ढ़लती जा रही थी. दूर चौराहे पर लोग आने वाली बस का ऐसे इंतजार कर रहे थे जैसे ये बस उन्हें स्वर्ग तक ले जायेगी और वे अपने कष्टों से सदा में लिए मुक्त हो जाएंगे. ठण्डी हवाओं में भी ऐसे कई लोग थे जिनके पास अपने पैर और कान तक ढकने के समुचित कपड़े नहीं थे.

हम कैद में हैं. दूसरे ने रुआंसी आवाज़ में कहा.

एक ने अपनी गर्दन कुर्सी के सिरे पर झुका दी. उसकी पीठ नंगी थी, वक्ष छिपे हुए. उसकी शरीर से खूशबू की सोता फूट रहा था. दूसरे ने उसकी पीठ पर अपनी गर्दन टिका दी.

‘तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि मैं तुमसे प्यार नहीं करती ?’ एक ने सुबकते हुए कहा.

‘हम कैद में हैं.‘  दूसरे ने वही वाक्य दुहराया और सुबकने लगा.

उनके चेहरे नहीं थे. सिर भी नहीं थे. नाम नहीं थे. दूर चौराहे पर बस आकर रुक गयी थी. लोग स्वर्ग के रास्ते पर बढ़ने के लिए बस की ओर दौड़ने लगे. कुछ बस में चढ़ सके और बाकी रह गए.

एक असामान्य शाम फिर से हरकत में आ गयी तमाम अलग-अलग तरह के घरों में से किसी एक घर की खिड़की पर एक लड़की आई और नीचे सड़क की दिशा में देखने लगी. हत्यारे अपनी-अपनी जगह पर मुस्तैद खड़े थे. पर उन्हें कोई पहचान नहीं सकता था. तभी लड़की के बराबर में आकर दूसरा आदमी खड़ा हो गया. उसने नीचे देखा. मूर्ख लोग अपनी अपनी जगहों पर जड़पड़े हुए थे. उनके मुंह से लार टपक रहा था और उन्हें इसका भान तक नहीं था. लड़की पलटकर दूसरी ओर चली गयी. मुखौटे वाले आदमी ने लडकी की ओर देखा. लड़की उस जगह से भी उठकर कहीं और चली चली गयी.  मुखौटे वाला आदमी अपनी जगह पर खड़ा रहा. आदमी का मुखौटा गिर गया. उसने झुककर मुखौटा उठा लिया और लड़की के जाने की दिशा में चला गया. वह किचन में थी. उसने अपने ऊपर मिटटी के तेल का एक पूरा बड़ा गैलन उंडेल लिया था. माचिस उसके हाथ में था और वह उसे जलाने की कोशिश करने लगी. उसने गहरी उदास नजरों से मुखौटे वाले आदमी को देखा.  उसका मुखौटा सरककर नीचे गिर गया. उसने लपककर मुखोटे को पकड़ लिया.

शाम अपनी असामान्य गति से गुजर रही थी. लोग इसे समय का गुजरना कहते हैं. सब कुछ समय में माप देते हैं. यह शहर बम्बई शहर है. यहाँ भाग-दौड़ है और समय न होने की रोजाना की शिकायत. फिर भी यह पुराने ज़माने का बम्बई है. जानी वाकर के ज़माने का. जानी वाकर फिल्मों में गाने गाता था. उसके गानों में उसकी अपनी आवाज़ नहीं होती थी. वहअपनी आवाज़ से डरता रहा होगा.

नेपथ्य में वही गीत.

इंसानों के हैं कई नाम यहाँ.

***

[ आदित्य शुक्ला कवि-गद्यकार हैं. हिन्दी-अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लिखते हैं. दिल्ली में रहते हैं. इनसे shuklaaditya48@gmail.com   पर  संपर्क किया जा सकता है.]

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