कविताएँ ::
सुधीर सुमन

सुधीर सुमन

मृत्यु और जीवन के बीच

मृत्यु फेरे लगा रही
दूर भाग रहे वे
जिंदगी की छटपटाहट लिए
जो बड़े फिक्रमंद थे
दामन छुड़ाकर जा रहे न जाने किस जीवन की ओर॰
कोई संग मरने का खतरा नहीं उठाना चाहता
यह देख-देख ताक में खड़ी मौत बेतहाशा किलकती है।

अशांत बेहद भयानक कोई समुद्र है
जिसमें डूबता उतराता
देखता हूं दूर खड़े समानधर्मा साथियों को
जो बताते हैं इस भंवरजाल से मुक्ति के तरीके।

पर अभी दूर हैं वे
तभी अब तक दुनियावी सफलताओं से वंचित
भाई लेकर आता है टूटी पाल वाला नाव
उसे फिक्र नहीं कि पलट सकती है नाव
तेज थपेड़ों में
कि वह खुद भी डूब सकता है
वह बढ़ाता है मेरी ओर हाथ
थामकर मेरा जिस्म नाव में रखता है
धीरे-धीरे खेकर किनारे की ओर बढ़ता है

अर्द्धबेहोशी है या तंद्रा है जिसमें
नजर आता है एक जनसमुद्र
जो स्वप्न था, अब यथार्थ लगता है
किन्हीं आदिम बीजों के अंकुर सघन
बड़ी तेजी से बढ़ रहे हैं
विनाशकारी बादशाहत तिलमिलाती है
जमींदोज कर देना चाहती है उन सबको
उसके खूंखार अमले झपट्टा मारते हैं
मार डालते हैं कुछ को
पर उतनी ही तेजी से कई गुना
बढ़ जाती है तादाद उनकी
कोई दूरी नहीं है
वे जानते हैं
दूरी है मृत्यु का हथियार
वे बेखौफ हैं परस्पर जुड़े हुए

कहता हूं भाई से-उधर ले चलो नाव
जहां जीवन मृत्यु से भाग नहीं रहा
जहां कोई किसी के लिए नहीं है खतरा।

(दिसंबर 2020)

वही ठिकाने, वही पैमाने

हर चीज है पुराने ठिकाने पर
सफलता के वही पैमाने हैं
उल्लास-आनंद का गुदगुदाता अहसास है
कुछ करने के तमाशे हैं
पहाड़ की प्यारी सर्दियां हैं
मदिरापान का गर्म-आमंत्रण है
इधर ठंड गलाती है
मेरी हड्डियों को मैदानी इलाके में
मांसपेशियां थक जाती हैं
पस्त हो जाता हूं अक्सर
कुछ भी नहीं भाता
कुछ भी नहीं बदलता
सिर्फ बड़बोले दावे हैं उनके पास
वे उसी भीड़ में हैं शामिल
जिनसे बनती नहीं मेरी

कहां हो कवि?
तुम्हें पुकारती हुई पुकार खो जाती है अक्सर
तुम्हारी कविता के व्याख्याकार कीर्ति-व्यवसायी
बहुत मजे में हैं आजकल
कल भी मजे में थे
तुम्हारे दुखों के तमगे दिखा-दिखा
तमगे बटोरते हैं

यह मृत्युपूजकों का देश है प्यारे!
फासिस्ट दस्ते फेरे लगाते हैं गली-गली
और तुम्हारे कद्रदान
किसी न किसी गली से झूमते-लड़खड़ाते
निकलते पाए जाते हैं।

क्या ये तुम्हारी जिंदगी के हिमायती थे कभी?
-नहीं, नहीं, नहीं, नहीं!
इनके लिए अच्छा हुआ तुम गये
और जश्न इनका निर्बाध जारी रहा
आज भी जारी है।

(जनवरी 2022)

हमसफर

कहां हो तुम
जिसे हमसफर होना था
उम्र के पचासवें साल में
तुम्हें बेसब्री से ढूंढता हूं
क्या तुम कहीं फंसी हो
पूंजी के मायाजाल में
कैद हो जाति की दीवार में
तुम किसी ईश्वर के मोहक सम्मोहन में
तो नहीं फंसी हो

तुम आओ कि
उनका भरम टूटे
जो शुतुरमुर्ग बने हैं
समझौते करके तने हैं
जो ढो रहे हैं
हर पुराना सड़ा बोझ
लगता है उन्हें उनसा नहीं मैं
इसलिए कि तुम नहीं हो मेरे साथ
आओ कि मैं बता सकूं कि
वे गलत हैं
और हमेशा से गलत थे
मैं बता सकूं
कि तुम्हारा होना
उनके जैसा होना नहीं होगा
कहीं है तुम्हें भी इंतजार तो

पुकार लो मुझे ही
या मेरी पुकार सुनो
और आ जाओ।

(जनवरी 2022)

ऐसी ट्रैजडी है नीच!

एक करोड़ से अधिक पेड़ों को काट
वह सम्मानित करता है किसी ऐसे को
जिसने जीवन में लगाए पेड़ तीस हजार
सैकड़ों बीजों का करके नाश
वह बीज संरक्षण के लिए
राष्ट्रीय इनाम बांटता है और
शीघ्र बांझ होने वाले बीजों के हवाले
कर देता है खेत

हजारों स्कूलों को तहस-नहस कर
वह संतरा बेचकर शिक्षा की ज्योति
जलानेवाले को सम्मान देता है
और आप वाह, वाह कर उठते हैं
लाखों को जल-जंगल-जमीन से बेदखल कर
वह सम्मानित करता है तुम्हें जनगायक
‘गांव छोड़ब नाहिं’ की धुन पर कुटिलता से मुस्कुराता है

हत्यारों को संसद में भेजते हैं हत्यारे
गोडसे की महिमा गाते हैं
और गांधीवादी को पद्म बांटते हैं
आप मुग्ध होके इस छद्म पर मोहाते हैं

ऐसी ट्रैजडी है नीच
मुक्तिबोध की ‘समझौता’ कहानी का नाटक कर
तारीफ बटोरने वाला ‘समझौते’ के नये विद्रूप गढ़ता है
बेशर्म संस्कारी संस्कृति का उदंड प्रवक्ता
दीखने की हरसंभव कोशिश करता है
भिखारी ठाकुर को बेचते-बेचते कोई संस्कृतिबेचवा
अहंकारियों के सांस्कृतिक संगठन का अध्यक्ष हो जाता है
भगतसिंह के विचारों का दमामा बजाता लेखक
तानाशाह के लिए मुरली बजाने लगता है।

आप लोक को आस्था में करके गर्क
प्रकृति, पवित्रता, समन्वय आदि का महिमामंडन करते हैं
वे तालाब, नदी, खेत, जंगल सबकुछ
भकोसते जाते हैं
आप पूजा में मग्न
चमत्कार की आस लगाये
हर सच से भागते जाते हैं
आपके पैरों तले की जमीन
खिसकती जाती है
सांसों पर दबाव बढ़ता जाता है
आपकी प्यास बढ़ती जाती है
नदी सूखती जाती है
आपका सूरज डूबता जाता है
दीये मुंह फाड़े भौंचक
आपको तकते रहते हैं
आप उन्हें प्रवाहहीन-प्रदूषित जल
कीचड़ के हवाले करके
किसी नशेड़ी की तरह
अपने दड़बों में लौट जाते हैं
जहां रोशनी का प्रवेश नहीं होता
सिर्फ उनके टीवी और सोशल मीडिया के
उजाले का जाल होता है।

(जनवरी 2022)

वे फूल से प्यारे बच्चे ! 

जगह न थी
कमरे में उनके सिवाय
वे फूल से प्यारे बच्चे
तस्वीरों में थे, कैलेंडरों में थे
जीवन में हर जगह थे
कहीं किसी ईश्वर की
कल्पना की जरूरत न थी

बड़े हुए बच्चे
जीवन आसान नहीं था
अनिश्चितता और असुरक्षा थी हर कहीं
कोई भी विचार जो वजहों को बताए
उन तक ठीक से पहुंचता न था
चमत्कार और सफलताओं की नई-नई
दास्तानों के बीच
वे फंसते गये
किसी न किसी ईश्वर के  जाल में

कमरे की दीवारें
खाली होती गयीं
और ईश्वर के न होने का
यकीन और पुख्ता होता गया।

•••

सुधीर सुमन मूल रूप से ख़ुद को साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यकर्ता मानते हैं। उन्होंने अपनी कविताएँ कम छपवाई हैं पर चित्त से हमेशा कविताओं के आसपास रहे हैं। उन्होंने ‘समकालीन जनमत’ का लगभग सोलह वर्षों तक संपादन किया है, पत्रिका ‘इस बार’ में संपादन सहयोग, और  जनपथ के नागार्जुन अंक का अतिथि संपादन किया है। कुबेर दत्त की पुस्तक ‘एक पाठक का नोट्स ‘ का संपादन भी किया है। विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में साहित्यिक कॉलम लिखने के साथ वे युवानीति, हिरावल और भूमिका के लगभग 20 मंचीय और नुक्कड़ नाटकों में अभिनय भी करते रहे हैं। उन्होंने नुक्कड़ नाटक और बाल नाटक भी लिखे हैं। ऐसे अनेक कार्यों के साथ फ़िलहाल वे झारखंड के एक कॉलेज में अतिथि शिक्षक हैं। उनसे s.suman1971@gmail.com पर बात हो सकती है।

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