कविता-भित्ति::
प्रेम: ठाकुर गोपालशरण सिंह

ठाकुर गोपालशरण सिंह (01 जनवरी 1891 – 02 अक्तूबर 1960) का जन्म रीवा, मध्य प्रदेश में हुआ था। उनकी गणना द्विवेदी युग के प्रतिनिधि कवियों में की जाती है। मानवी (1938), माधवी (1938), ज्योतिष्मती (1938), संचिता (1939), सुमना(1941), सागरिका(1944), ग्रामिका (1951) आदि उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने कुछ प्रबंध-काव्यों की भी रचना की, जैसे : जगदालोक (1952), प्रेमांजलि (1953), कादम्बिनी (1954), विश्वगीत (1955)। अपनी काव्य-पुस्तक ‘संचिता’ की भूमिका में वो अपनी यह कृति आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी को समर्पित करते हुए लिखते हैं— “पुण्यस्मृति श्रद्धेय पण्डित महावीरप्रसाद द्विवेदी की मुझपर सदैव कृपा रही है और कविता लिखने के लिए वे मुझे बराबर प्रोत्साहित करते रहे हैं। यदि उनका करावलम्ब न मिलता तो मैं अधिक दिन तक कवि-कर्म में प्रवृत्त रह सकता था या नहीं इसमें संदेह है।”

 

प्रेम

हे जग-जीवन-सार !

आओ प्रेम ! बनो तुम मेरे,
हृदय-हार सुकुमार।

सदा तुम्हारे लिए करूंगा,
मैं सुख से बलिदान।

तन, मन, धन, जीवन जो चाहो,
दूं मैं तुम पर वार।

जो जी में आवे सो देना,
सदा रहूँगा तुष्ट।

मागूँगा मैं कभी न तुमसे,
कोई भी उपहार।

मेरे हृदय-धाम में होगा,
जहाँ तुम्हारा वास।

तहाँ शीघ्र मैं हो जाऊँगा,
निश्चय उच्च उदार।

स्वार्थ कपट ईर्षा का मन में,
नहीं रहेगा लेश।

उन्हें बहा देगी पल भर में,
पावन दृग-जल-धार।

क्रोध, विरोध, मोह, मद, मत्सर,
लोभ, क्षोभ, अभिमान।

सभी तुम्हारे प्रबल अनल में,
होंगे जल कर क्षार।

मैं न करूँगा कभी भूलकर,
अपने मन का काम।

मुझ पर होगा प्रेम ! तुम्हारा,
सदा पूर्ण-अधिकार।

गाऊँगा मैं सदा तुम्हारे,
स्वर में जीवन-गीत।

होगा लीन तुम्हीं में मेरा,
सुख-दुखमय संसार ।

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इन्द्रधनुष पर प्रकाशित स्तम्भ ‘कविता-भित्ति’ के अंतर्गत अपनी भाषा की सुदीर्घ और सुसम्पन्न काव्य-परम्परा से संवाद और स्मरण करने के उद्देश्य से हम प्रत्येक सप्ताह इस स्तम्भ के तहत अपनी भाषा के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर की किसी रचना का पाठ और पुनरावलोकन करते हैं। इस स्तम्भ में प्रकाशित कृतियों को देखने के लिए देखें : कविता-भित्ति