कविता-भित्ति ::
सागर के उस पार : गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’

गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही (१८८३-१९७२) का जन्म उत्तर प्रदेश राज्य के उन्नाव जिले के हडहा गाँव में हुआ था। इन्होंने प्रारंभिक शिक्षा के दौरान ही हिंदी, उर्दू और फ़ारसी का ज्ञान प्राप्त किया और  शुरुआत में ब्रजभाषा और फिर उर्दू में सुंदर रचनाएँ लिखने के बाद कालांतर में खड़ी बोली में कविताएँ लिखीं। इनकी शुरुआती कविताओं में रीतिकालीन काव्य का प्रभाव देखा जा सकता है। जहाँ एक ओर इनकी कविताओं में प्रेम और श्रृंगार की छटा दृश्यागत होती है, वहीं दूसरी ओर इन्होंने देशप्रेम, पौराणिक व धार्मिक आधार को भी रचनाओं में भलीभाँति व्यक्त किया है। सनेहीजी की प्रमुख कृतियों में शामिल हैं :- ‘प्रेमपचीसी’, ‘कुसुमांजलि’, ‘कृषक-क्रन्दन’, ‘त्रिशूल तरंग’, ‘राष्ट्रीय मंत्र’, ‘संजीवनी’, ‘करुणा-कादम्बिनी’ और समग्र रूप से ‘सनेही रचनावली’ आदि। सनेही जी की काव्य-प्रतिभा अपने काल और कालांतर का सुंदर और सुदीर्घ स्नेहावलोकन करती है।

प्रस्तुत रचना ‘सागर के उस पार’ कवि की रचना-प्रकृति व शैली का प्रतिनिधित्व बड़ी मार्मिक और वैचारिक रूप से करती है। जिसमें कवि का मानस जीवन की रहस्यमयी माया से दूर उस ओर ले जाने के विषय में कहता है जहाँ मादकता से दूर निश्छल शांति का बोध होता हो। कहना न होगा कि प्रस्तुत काव्य सनेही जी के संतुलित काव्य-संयोजन को दर्शाते हुए उनके रचना-संसार से हम पाठकों का प्रभावी परिचय कराता है।

— सं.

गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’

सागर के उस पार

सागर के उस पार
सनेही,
सागर के उस पार।

मुकुलित जहाँ प्रेम-कानन है
परमानन्द-प्रद नन्दन है।
शिशिर-विहीन वसन्त-सुमन है
होता जहाँ सफल जीवन है।
जो जीवन का सार
सनेही।
सागर के उस पार।

है संयोग, वियोग नहीं है,
पाप-पुण्य-फल-भोग नहीं है।
राग-द्वेष का रोग नहीं है,
कोई योग-कुयोग नहीं है।
हैं सब एकाकार
सनेही !
सागर के उस पार।।

जहाँ चवाव नहीं चलते हैं,
खल-दल जहाँ नहीं खलते हैं।
छल-बल जहाँ नहीं चलते हैं,
प्रेम-पालने में पलते हैं।
है सुखमय संसार
सनेही !
सागर के उस पार।।

जहाँ नहीं यह मादक हाला,
जिसने चित्त चूर कर डाला।
भरा स्वयं हृदयों का प्याला,
जिसको देखो वह मतवाला।
है कर रहा विहार
सनेही !
सागर के उस पार।।

नाविक क्यों हो रहा चकित है ?
निर्भय चल तू क्यों शंकित है ?
तेरी मति क्यों हुई थकित है ?
गति में मेरा-तेरा हित है।
निश्चल जीवन भार
सनेही !
सागर के उस पार।।

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इन्द्रधनुष पर प्रकाशित स्तम्भ ‘कविता-भित्ति’ के अंतर्गत अपनी भाषा की सुदीर्घ और सुसम्पन्न काव्य-परम्परा से संवाद और स्मरण करने के उद्देश्य से हम प्रत्येक सप्ताह इस स्तम्भ के तहत अपनी भाषा के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर की किसी रचना का पाठ और पुनरावलोकन करते हैं। इस स्तम्भ में प्रकाशित कृतियों को देखने के लिए देखें : कविता-भित्ति