विनोद विट्ठल की कविताएँ ::

 1.अड़तालीस साल का आदमी

अड़तालीस की उम्र अस्सी प्रतिशत है ज़िंदगी का
आख़िर के आधे घंटे की होती है फ़िल्म जैसे
चाँद के साथ रात के आसमान में टँक जाती है कुछ चिंताएँ
गीतों की जगह याद की डायरी में दर्ज़ हो जाती है कुछ गोलियाँ
रविवार नियत हो जाता है लिपिड प्रोफ़ायल जैसे कुछ परीक्षणों के लिए
हर शाम डराते हैं इंवेस्टमेंट
उड़ते बालों की तरह कम होती रहती है एफडी की ब्याज़ दर
मेडिक्लेम के विज्ञापनों और बड़े अस्पतालों में सर्जरी के ख़र्चों की
सूचनाओं को इकट्ठे करते बुदबुदाता है:
कल से तमाम देवताओं के चमत्कारिक व्हाट्सएप संदेशों को सौ लोगों को शेयर किया करूँगा
ज़रूरत पड़ी तो कर लूँगा नेहरू और सोनिया के खि़लाफ़ ट्रोलिंग
पार्टटाइम में हैंडल कर सकता हूँ किसी पार्टी का ट्वीटर अकाउंट
ईर्ष्या हो जाती है उस दोस्त से
जिसका प्लॉट बारह गुना हो गया है पिछले बीस बरसों में
उस लड़की से भी जिसने प्रेम के एवज में एनआरआई चुना
और अब इंस्टाग्राम पर अपनी इतनी सुंदर तस्वीरें डालती है
गोया पैसे के फ्रिज़ में रखी जा सकती है देह तरोताज़ा, बरसों-बरस
उसे अपनी ही पुरानी तस्वीरें देखते हुए डर लगता है
मोटापा घिस देता है नाक-नक्श
ज़िंदगी के थपेड़े उड़ा ले जाते हैं आत्मविश्वास
कभी जिस हौसले से होती थी पहचान
वह खो चुका है तीसरी में साथ पढ़ी दिव्या जैन की ब्लैक एंड वाइट फ़ोटो की तरह
लगता है बाज़ारों की रौनकों और मन की बेरौनकों के बीच कोई सह-संबंध है
मोबाइल के ऐड में नितंबों को सहलाती एक अभिनेत्री
और बोतलबंद पानी की बिक्री के लिए झूलते वक्षों को दिखाती एक पोर्नस्टार को देखने के बाद भी
अब कुछ नहीं होता
डॉक्टर इसे मधुमेह से जोड़ते हैं
और कथाकार रघुनन्दन त्रिवेदी की कहानियाँ इसे बाज़ार से जोड़ती हैं
सच तो ये है बाज़ार से डरने और हारने की उम्र है ये
जिसमें बेअसर है सारी दवाइयाँ
बाल बचाने और काले रखने के तमाम नुस्ख़े
घुटनों के बढ़ते दर्द और दाँतों की संख्या के कम होने के बीच
झिंझोड़ता रहता है वट्सऐप का ज्ञान
समझना मुश्किल होता है सही और ग़लत को
नहीं कहा जा सकता: कौन किसे बेच रहा है
इलाज करने वाले बीमार हैं और बीमार इलाज कर रहे हैं
“कितनी बेवकूफ़ी और बेध्यानी से जिए तुम
जयपुर तो अच्छी पोस्टिंग मानी जाती है
हज़ार करोड़ के भुगतान में भी तुम ख़ाली रहे
सॉरी, तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता” , सस्पेंशन में चल रहा एक इंजीनियर दोस्त कहता है
बच्चों को डाँटता लेकिन खु़द के मानकों को नीचा करता अड़तालीस का ये आदमी
अपनी जाति को कहीं पीछे फेंक चुका है
धर्म से खु़द को अलगा चुका है
अपनी नैतिकता और सच्चाई की सत्ता के भ्रम में जीता एक दयनीय, डरा हुआ और डरावना है अंकल
बन कर रह गया ये आदमी
कुछ उपन्यासों के नायकों और कहानियों की नायकीय जीत में भरोसा करता हुआ
अड़तालीस के हुए किसी आदमी को गौर से देखना
वह ज़िंदगी की स्लेट से अपने निष्कर्ष तेज़ी से मिटाता हुआ पाया जाएगा
इतना निरीह होगा कि डरेगा दफ़्तर जाने से
रोएगा अपनी बेटी के भविष्य के बारे में सोचकर
ज़िंदगी के एटीएम पर अपने पासवर्ड खो चुके दिमाग के साथ खड़ा होगा वह
उसका अपना ही मोबाइल फ़ोन इनकार कर देगा उसके अँगूठे के निशान को पहचानने से
लेकिन आज भी टाइम्स ऑफ़ इंडिया के कबाड़ में पड़े किसी पेजर की तरह
वह अपना नेटवर्क मिलते ही बीप करने के लिए तैयार है
मैथोडिस्ट चर्च के स्टोर में पड़े पियानो की तरह सोचता है
थोड़ा रिपेयर मिल जाए तो अब भी गूँजा सकते हैं सिमफनी
वह पूरी ताक़त से कहना चाहता है
हम सबसे नई, युवा और बेहतर पीढ़ी थे
बेहतर दुनिया का नक़्शा था हमारे पास
आधार कार्ड से पहले हम आए थे धरती पर
जुकरबर्ग से पहले बजी थी हमारे लिए थाली
हम अड़तालीस साल बाद भले ही obsolete हो रहे हैं
पर सुनो हमें, ज़िंदगी की रिले रेस की झंडी हमसे ले लो
ये धरती फ़ेसबुक का फ़र्ज़ी अकाउंट नहीं है
जितनी मेरी है उससे ज़्यादा तुम्हारी है!

2.स्टिकी नोट

 (पीले रंग के स्टिकी नोट जो सत्ता के गलियारों और कॉरपोरेट में इस्तेमाल किए जाते हैं)

 पहली बार देखने पर लगे थे तुम गेंदे के फूल की तरह
सजीव, मासूम, सहज, साधारण लेकिन ज़रूरी
इतने ज़रूरी कि बिना कहे रुँध जाए गला
और कहने के बाद इतने हल्के जैसे लैंडलाइन फ़ोन पर मिस हुई कोई कॉल
कभी कहती है ये, कभी कहते हुए भी चुप रहती है
दर्ज़ होना चाहती है किसी कंडोम में तैरते पाँच अरब शुक्राणुओं की तरह
जितनी इसकी रिश्तेदारी सच के साथ है, उतनी ही असच के साथ भी
मुखौटे से अलग नहीं है यह, जिसे लगाया ही हटाने के लिए जाता है
कुछ इसका प्रयोग करना चाहते हैं बिना बदनाम हुए
पता नहीं क्यों, साहस की कमी या सुविधा के लिए
जैसे उदार, आत्मीय और अधेड़ प्रेमिका का उपयोग कर लेते हैं प्रेमी बनते कुछ लम्पट
कोई इसका इस्तेमाल
अपराधी की तरह बरसों बाद कर लेते हैं
पाँचवें पैग के बाद कुछ पुरुष सुनाने लग जाते हैं जैसे
मिसेज एक्स या वाई या जेड के ऐक्टिव होने के क़िस्से
पुरानी फ़िल्मों में प्रेम पत्रों का किया जाता था इस्तेमाल जैसे
आज के जमाने में स्क्रीन शॉट कह लो
कई बार
पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है
एक सड़क सत्तावन गलियाँ
कितनी नावों में कितनी बार
जैसी पंक्तियाँ इसके आस-पास भिनभिनाती हैं
बेहद हल्के और स्थाई रूप से न चिपकने के लिए बने ये पोस्टर
कभी प्रश्न की तरह लगते हैं
कभी चेतावनी में बदलते हैं
कभी कहते हैं
कभी नहीं कहते हैं
वट्सऐप पर आए किसी रोमांटिक शेर की तरह इसे अनदेखा किया जा सकता है
और लिया जा सकता है सीरीयस भी
कई बार धर्म इसकी तरह लगता है
कइयों के लिए क़ानून भी इसी की तरह होते हैं
कई अवसरों की पीठ ढूँढ़ते रहते हैं इसके लिए
कई लगे रहते हैं इसे चिपकाने और हटाने के खेल में
क्यूँ भूल जाते हैं हम
हम भी एक स्टिकी नोट ही हैं
किसी दिन हटा दिए जाएँगे, गुम हो जाएँगे
पाए जाएँगे कूड़े के ढेर में
और किसी दिसंबर की रात जला भी दिए जाएँगे
जैसे थे ही नहीं इस सृष्टि पर!

3.घर

 (एक)

पहाड़ छोड़ देते हैं अपनी अकड़
जंगल अपनी जड़
धरती बनना चाहती है माँ
आकाश पिता बनने नीचे उतरता है
नदी की तरह मुस्कुराता है एक बच्चा.

(दो)

हार जाते हैं योद्धा
थक जाते हैं शक्तिवान
सो जाते हैं सांसारिक
सबके सपनों में
दरवाजे-सा जगता रहता है.

(तीन)

बहुत अकेले हो जाते हैं
ऊबने लगते हैं हर-एक से
घेरने लगती है स्मृतियाँ और आशंकाएँ
समय हो जाता है लंबा और भारी
एक क़िस्सा-गो जो दूसरी दुनिया में ले जाता है।

4.माँ और गुम होता काजल

 भले ही शुरू करते हैं स्मृति की वर्णमाला उससे
बाद के दिनों में किसी पर्फ़्यूम की तरह वह धीरे-धीरे उड़ती है
लेकिन दर्द के क्षणों में वह अचानक आ जाती है
जैसे लंच में अचार की गंध से खाने की इच्छा
कहीं भी हो उसकी आँखें हमें देख रही होती है
उसकी प्रार्थना और प्रतीक्षा में वैसे ही शामिल रहते हैं हम
जैसे उसके सपनों और डरों में
माँ बड़ियाँ बनाती है
बाजरे की खीर
और कुछ ऐसी सब्ज़ियाँ जिन्हें खाते हुए हम पूछते हैं उनके नाम
कुछ रिश्तेदारों के बारे में भी केवल वही जानती है
वैसे ही जैसे कुछ फूलों, फलों और फसलों के बारे में
बीमारियों, कीटों, जानवरों और उपचारों के बारे में
उसे सपनों के कूट अर्थ पता हैं
शगुन वह जानती है
बकौल उसी के
कि जिस रात सपने में दिखेगी सूखी नाडी
अगली सुबह वह नहीं होगी
और हमारे स्वाद और ज्ञान का एक बड़ा हिस्सा
उस काजल की तरह गुम होगा
जो वह मेरी बिटिया के रोज़ सुबह आँजती है

5.रफ़ कॉपी पर दर्ज़न भर रफ़ कविताएँ

 (1)

हर कॉपी रफ़ कॉपी नहीं होती शुरू में
बन जाती है बाद में
जैसे कुछ बच्चे बन जाते हैं चोर या भिखारी

(2)

हर कॉपी फेयर बने रहना चाहती है
सम्भाली जाना चाहती है किसी प्रेम-पत्र की तरह
वो क्या होता है नागरिक की तरह जो उसे बेबस कर देता है

(3)

शुरुआत ठीक होती है हर कॉपी की रिश्तों की तरह ही
पर गर्मियों में अचानक गंध छोड़ती आलू की सब्ज़ी की तरह कुछ बिगड़ जाता है
और रफ़ हो जाती है कोई कॉपी जैसे गंधा जाते हैं रिश्ते

(4)

नई कॉपियों को नए रिश्तों की तरह ही
नहीं पता होता है हमारी फ़ितरत के बारे में
और इस तरह वे भी रफ़ कॉपियों में बदल जाती हैं

(5)

कटी पतंग और अमर प्रेम के गीत
सुषमा पालीवाल के लैंडलाइन नम्बर
मधु गहलोत और कविता शर्मा के जन्मदिन
सितार बजाती खुले बालों वाली प्रेरणा शर्मा का एक स्केच
इतनी ज़रूरी चीज़ें हम गैर ज़रूरी समझ रफ़ कॉपी में लिखते हैं
और फिर पूरी ज़िंदगी उदास रहते हैं

(6)

पाँच साल में एक बार डालते हैं वोट
फेयर कॉपी की तरह
सरकारें उसे रफ़ कॉपी बना देती हैं

(7)

जब रफ़ कॉपियाँ नहीं होंगी हम किसमें अभ्यास करेंगे
बड़े होने पर क्या ज़िंदगी ही रफ़ कॉपी हो जाती है

(8)

फेयर कॉपियों के बचे पन्नों की कुछ बनाते हैं रफ़ कॉपियाँ
कुछ के लिए ये ही फेयर होती हैं
फिर भी, उन्हें पकड़ो जो देश की कॉपी को रफ़ कॉपी में बदल रहे हैं

(9)

रफ़ कॉपी का कोई एक विषय नहीं होता
एक भाषा भी नहीं
फिर दुनिया को इकरंगा क्यूँ बनाया जा रहा है
देश को कुछ लोग बना रहे हैं जैसे

(10)

कुछ तुकें होती है इनमें कुछ रेखाएँ भी
रफ़ कॉपी के साथ इस तरह खो जाते हैं कुछ कवि और चित्राकार

(11)

कोई तो स्कूल हो जहाँ रफ़ कॉपी के भी नंबर मिलें
कमतर या कम सजावटी होना क्या कोई मूल्य नहीं

(12)

नौकरी में बरसों बाद समझ में आता है
मैं तो एक रफ़ कॉपी था, केवल इस्तेमाल हुआ

6. एक स्त्री के अनुपस्थित होने का दर्द

 वे जो दर्ज़ा सात से ही होने लगी थी सयानी
समझने लगी थी लड़कों से अलग बैठने का रहस्य
कॉलेज तक आते सपनों में आने लग गए थे राजकुमार
चिट्ठी का जवाब देने का संकोचभरा शर्मीला साहस आ गया था
बालों, रंगों के चयन पर नहीं रहा था एकाधिकार
उन्हीं दिनों देखी थी कई चीज़ें, जगहें
शहर के गोपनीय और सुंदर होने के तथ्य पर
पहली बार लेकिन गहरा विश्वास हुआ था
वे गंगा की पवित्रता के साथ कावेरी के वेग-सी
कई-कई धमनियों में बहती
हर रात वे किसी के स्वप्न में होती
हर दिन किसी स्वप्न की तरह उन्हें लगता
वे आज भी हैं अपने बच्चों, पति, घर, नौकरी के साथ
मुमकिन है वैसी ही हों
और यह भी
कि उन्हें भी एक स्त्री के अनुपस्थित होने का दर्द मेरी तरह सताता हो

 7. अंततः

 लंबी बीमारी के बाद दिखे परिचित की तरह
किसी दिन अचानक दिखेगा वह दिन
जब महसूस होगा कि मुश्क़िल हो गया है
सिनेमा देखना
सड़कों पर चलना
नया नाम रखना
पत्नी को हँसा पाना
अंट-शंट खा पाना
बच्चे को समझा पाना
किसी के बारे में सोच पाना
किसी का इंतज़ार कर पाना
या किसी अपरिचित को दोस्त ही बना पाना
हम बरसों से सुनते आए
किसी राक्षस को पहली बार देखेंगे
सोचेंगे आग लगने पर कुआँ खोदने वाली कहावत
और देखेंगे सभ्यता को भारी मन से जलते
सोचेंगे, काश! ये किसी फ़िल्म का दृश्य हो
और लाइट चली जाए
या प्रोजेक्टर ही जल जाए
यकायक जैसे हम हो जाते हैं बड़े
बूढ़े इतने कि लगने लगें
फूट जाता है अंडा या फटता है बादल
मर जाते हैं कम उम्र के अच्छे लोग
किसी वाइरस की तरह प्रवेश करती है कोई लड़की
हमें लगेगा कई-कई चीज़ें मुश्किल हो गई है, यकायक
आधे लोग उदास हो जाएँगे
आधे दुःख भरे गीत गाएँगे
आधे दर्शन की ओर भागेंगे
आधे गणित सिरे-से समझेंगे
आधे कम्प्यूटर की ओर देखेंगे
आधे अंतरिक्ष में जाना चाहेंगे
कुछ खींचेंगे तस्वीरें
कुछ रिकॉर्ड करेंगे बातें
कुछ लिखेंगे आत्मकथाएँ और इतिहास-पुरातत्त्व की किताबें
कुछ बेपतेदार चिट्ठियाँ
एक वही होगा
जो महसूस करेगा संकट का सूत्रा

और प्यार करेगा!

***

विनोद विट्ठल (जन्म : 10 अप्रैल 1970) सुपरचित कवि हैं तथा कविताओं के अतिरिक्त कहानियाँ, व्यंग्य और नाट्य लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं. अब तक इनके दो संग्रह ‘लोकशाही का अभिषेक’ और ‘Consecration of Democracy’ शीर्षक से प्रकाशित हैं.  विनोद विट्ठल सम्प्रति ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में पत्रकारिता करने  के बाद इनदिनों JSW के कॉर्पोरेट अफेयर्स विभाग में कार्यरत हैं. प्रस्तुत कविताएँ ‘बनास जन’ पत्रिका में प्रकाशित संकलन ‘पृथ्वी पर दिखी पाती’ से यहाँ प्रस्तुत हैं. आप इनसे vinod.vithall@gmail.com पर सम्पर्क कर सकते हैं.

 

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